जिंदा माँ का श्राद्ध करता बेटा

- दिनेश पांचाल

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एक दोस्त हलवाई की दुकान पर मिल गया। मुझसे कहा- ‘आज माँ का श्राद्ध है। माँ को लड्डू बहुत पसन्द है, इसलिए लड्डू लेने आया हूँ। मैं आश्चर्य में पड़ गया। अभी पाँच मिनिट पहले तो मैं उसकी माँ से सब्जी मंडी में मिला था। मैं कुछ और कहता उससे पहले ही खुद उसकी माँ हाथ में झोला लिए वहाँ आ पहुँची।

मैंने दोस्त की पीठ पर मारते हुए कहा- 'भले आदमी ये क्या मजाक है? माँजी तो यह रही तेरे पास! दोस्त अपनी माँ के दोनों कंधों पर हाथ रखकर हँसकर बोला, ‍'भई, बात यूँ है कि मृत्यु के बाद गाय-कौवे की थाली में लड्डू रखने से अच्छा है कि माँ की थाली में लड्डू परोसकर उसे जीते-जी तृप्त करूँ। मैं मानता हूँ कि जीते जी माता-पिता को हर हाल में खुश रखना ही सच्चा श्राद्ध है।

आगे उसने कहा, 'माँ को डायबीटिज है। उन्हें मिठाई, सफेद जामुन, आम आदि पसंद है। मैं वह सब उन्हें खिलाता हूँ। श्रद्धालु मंदिर में जाकर अगरबत्ती जलाते हैं। मैं मंदिर नहीं जाता हूँ, पर माँ के सोने के कमरे में कछुआ छाप अगरबत्ती लगा देता हूँ। सुबह जब माँ गीता पढ़ने बैठती है तो माँ का चश्मा साफ कर के देता हूँ। मुझे लगता है कि ईश्वर के फोटो व मूर्ति आदि साफ करने से ज्यादा पुण्य माँ का चश्मा साफ करके मिलता है ।

यह बात श्रद्धालुओं को चुभ सकती है पर बात खरी है। हम बुजुर्गों के मरने के बाद उनका श्राद्ध करते हैं। पंडितों को खीर-पुरी खिलाते हैं। रस्मों के चलते हम यह सब कर लेते है, पर याद रखिए कि गाय-कौए को खिलाया ऊपर पहुँचता है या नहीं, यह किसे पता।

अमेरिका या जापान में भी अभी तक स्वर्ग के लिए कोई टिफिन सेवा शुरू नही हुई है। माता-पिता को जीते-जी ही सारे सुख देना वास्तविक श्राद्ध है।

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यह सत्य समझने जैसा है कि बच्चे कितने भी समझदार और सयाने हो, फिर भी वे बुढा़पे की लाचारी, पीड़ा और असहाय अवस्था को नहीं समझ सकते। जब तक आँखों से दिखना बंद नहीं होता, तब तक अंधेपन की लाचारी समझ में नहीं आ सकती। ऐसी परिस्थितियों में बुजुर्गों को पैसों से ज्यादा प्रेम और सलाह से ज्यादा सहारे की जरूरत होती है।

भागदौड़ भरे जीवन में संतानों की कई जिम्मेदारियाँ और तनाव होते हैं। जिस वजह से वे चाहते हुए भी माता-पिता की देखभाल नहीं कर पाते। ऐसे बेटों को थोड़ा माफ किया जा सकता है। कुछ युवा अपनी पत्नी और बच्चों की देखरेख तो करते हैं पर अपने ही बुजुर्ग माता-पिता की अवहेलना करते हैं।

समाज के ज्यादातर बुजुर्ग इस उपेक्षित व्यवहार को सहन कर रहे हैं। ऐसे पुत्र माता-पिता को जीते जी पाव भर भजिये भी नहीं खिलाते हैं और मरने के बाद हजारों रुपए खर्च कर ब्राह्मण भोज करवाते हैं। चावल में बहू आधा चम्मच घी खाने को मना करती है, पर श्मशान में उनकी चिता पर कई किलो घी उँड़ेला जाता है। मरने के बाद दान दिया जाता है। तीर्थस्थल पर जाकर श्राद्ध किया जाता है। सब अनप्रोडक्ट्वि एक्टिविटी है।

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बड़े-बुजुर्गों की यह जर्जर मनोदशा क्यों नहीं बदली जा सकती। आज के युवाओं को ऐसे खोखले रिवाजों का विरोध करना चाहिए।

कहीं पढ़ा था मैंने कि ‘जब मैं छोटा था और आँखों में आँसू आते थे, तब माँ याद आती थी। आज जब माँ याद आती है, तब आँखों में आँसू आते हैं। बचपन में जब आप चल नहीं सकते थे तब माता-पिता आपकी अँगुली पकड़ते थे, अब वे नहीं चल सकते तो आप उनका हाथ पकड़‍िए।

बुजुर्ग माता-पिता को तीर्थ पर न ले जाए तो चलेगा, पर उनका हाथ पकड़कर, उन्हें सम्मानपूर्वक बाथरूम तक ले जाएँ तो अड़सष्ठ तीर्थ का पुण्य मिलेगा। कहते हैं कि माता-पिता दो बार रोते हैं- एक जब बेटी घर से विदा होती है और दूसरा जब लड़का घर से निकालता है। कैसी विचित्र विडंबना है, जिन बच्चों को माता बोलना सिखाती है, वही बच्चे बड़े होकर माता को चुप रहने को कहते हैं।

विदेश में एक माँ ने बेटे को पूछा -‘बेटा, तू एक घंटा देर से ऑफिस जाएगा तो तेरी आमदनी कितनी कटेगी?’बेटा बोला-‘माँ, अगर मैं एक घंटा देर से गया तो मेरी तनख्वाह में से पचास डॉलर कट जाएँगे’। माँ ने कहा- ‘यह ले बेटा, मैंने कुछ दिन मेहनत कर पचास डॉलर जुटाए हैं, तू रख ले और मुझे अपना एक घंटा दे दे।

इस तरह के तमाम किस्सों में जीते-जी श्राद्ध का उक्त उदाहरण सचमुच दिल को छू लेने वाला है।

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