शाम को भोग लगाकर पितृ को दें बिदाई

पं. अशोक पँवार 'मयंक'
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श्राद्ध पक्ष पूर्णिमा से लेकर अमावस्या तक माना गया है। इस अमावस्या को सर्वपितृ मोक्ष अमावस्या से कहा जाता है। श्राद्ध यानी श्रद्धा से अपने पितृजनों को यथाशक्ति जो उन्हें पसंद हो बनाकर अग्नि में उनके नाम से होम करते हैं। कहते हैं भगवान वासना (खुशबू) के भूखे होते हैं। ठीक उसी प्रकार हमारे पितृगण भी उस धूप की खुशबू पाकर तृप्त होते हैं।

जहाँ तक मेरी मान्यता है वह यह है कि अपने माता-पिता, दादा-दादी आदि को जीते जी तृप्त रखना। उनकी सेवा भाव से ससम्मान से आत्मा तृप्त रखी हो तो सबसे बड़ा पुण्य वही होता है।
श्राद्ध पक्ष पूर्णिमा से लेकर अमावस्या तक माना गया है। इस अमावस्या को सर्वपितृ मोक्ष अमावस्या से कहा जाता है। श्राद्ध यानी श्रद्धा से अपने पितृजनों को यथाशक्ति जो उन्हें पसंद हो बनाकर अग्नि में उनके नाम से होम करते हैं।


मरने के बाद आप सोने के पकवान बनाकर खूब दान-पुण्य करके भी उनकी आत्मा को तृप्त नहीं कर सकते। जो इंसान जीते जी अपने माँ-बाप को रुलाता हो, उन्हें भूखा रखता हो या उनकी उपेक्षा करता हो वो भला सुख कैसे पा सकता है।

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ऐसी बात नहीं कि हर व्यक्ति ही ऐसा हो। कई व्यक्ति, कई परिवार बुजुर्गों की सेवा अपने बच्चों से अधिक करते हैं। कई बेटे आज भी श्रवण के समान हैं और होंगे। जो व्यक्ति शास्त्रों के अनुसार गयाजी कर आते हैं उन्हें फिर से श्राद्ध करने की आवश्‍यकता नहीं रहती। जो गयाजी नहीं कर पाते हैं उन्हें तिथि अनुसार अपने पितृगणों को यथाशक्ति भोग लगाना चाहिए जिससे उनकी आत्मा को शांति मिलें।

सर्वपितृ अमावस्या को सभी भूले-अभूले पितृगणों को आव्हान कर प्रात: नैवेद्य देवें फिर सब भोजन करें। शाम के वक्त जिस प्रकार हम रात्रि में भोजन करते हैं, ठीक उसी प्रकार शाम को ताजा बनाकर घर की दहलीज पर भोजन रख धूप-दीप देकर पितृगण को कहें कि 'हे पितृ देवता भूले-अभूले जो हमें याद नहीं है वे सब भोजन पाकर खुशी मन होकर बिदा हों व हमें हमारे परिवार को सुख-शांति का आशीर्वाद देकर जावें ताकि हम वर्षभर हिल-मिलकर सुख-शांति से अपना जीवन व्यतीत करें।' ऐसा करने से निश्चित ही पितृगण तृप्त हो आपको आशीर्वाद देकर ही बिदा होंगे।
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