' पितृपक्ष' एक प्रकार से पितरों का सामूहिक मेला होता है। इस पक्ष में सभी पितर पृथ्वीलोक में रहने वाले अपने-अपने सगे-संबंधियों के यहां बिना आह्वान किए भी पहुंचते हैं तथा अपने सगे-संबंधियों द्वारा प्रदान किए प्रसाद से तृप्त होकर उन्हें अनेकानेक शुभाशीर्वाद प्रदान करते हैं जिनके फलस्वरूप श्राद्धकर्ता अनेक सुखों को प्राप्त करते हैं।
अत: श्राद्ध पक्ष में अपने पितरों की संतुष्टि हेतु तथा अनंत व अक्षय तृप्ति हेतु एवं उनका शुभाशीर्वाद प्राप्त करने हेतु प्रत्येक मनुष्य को अपने पितरों का श्राद्ध अवश्य करना चाहिए। जो लोग अपने पूर्वजों अर्थात पितरों की संपत्ति का उपभोग तो करते हैं, लेकिन उनका श्राद्ध नहीं करते, ऐसे लोग अपने ही पितरों द्वारा शप्त होकर नाना प्रकार के दुखों का भाजन बनते हैं।
जिस मृत पिता के एक से अधिक पुत्र हों और उनमें पिता की धन-संपत्ति का बंटवारा न हुआ हो तथा सभी संयुक्त रूप से एक जगह ही रहते हों तो ऐसी स्थिति में पिता का श्राद्ध आदि पितृकर्म सबसे बड़े पुत्र को ही करना चाहिए। सब भाइयों को अलग-अलग नहीं करना चाहिए।
यदि मृत पिता की संपत्ति का बंटवारा हो चुका हो तथा सभी पुत्र अलग-अलग रहते हों तो सभी पुत्रों को अलग-अलग श्राद्ध करना चाहिए। प्रत्येक सनातनधर्मी को अपने पूर्व की तीन पीढ़ियों- पिता, पितामही तथा प्रपितामही के साथ ही अपने नाना तथा नानी का भी श्राद्ध अवश्य करना चाहिए।
इनके अतिरिक्त उपाध्याय, गुरु, ससुर, ताऊ, चाचा, मामा, भाई, बहनोई, भतीजा, शिष्य, जामाता, भानजा, फूफा, मौसा, पुत्र, मित्र, विमाता के पिता एवं इनकी पत्नियों का भी श्राद्ध करने का शास्त्रों में निर्देश दिया गया है।