Shri Krishna 16 August Episode 106 : सुदामा और द्वारिकाधीश जब मिले एक दूसरे से

अनिरुद्ध जोशी
रविवार, 16 अगस्त 2020 (22:05 IST)
निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 16 अगस्त के 106वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 106 ) में सुदामा द्वारिका पहुंचकर द्वारिका के वैभव और अपनी दशा को देखकर इस दुविधा में पड़ जाता है कि मैं राजमहल में श्रीकृष्ण से मिलना जाऊंगा या नहीं।
 
 
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा
 
 
वह सोच में पड़ जाता है कि जाऊं की ना जाऊं क्या, करूं अब। वह सोचता है कि लौट जाओ सुदामा, देखा नहीं लोग कैसे हंस रहे थे तुम पर। पागल कह रहे थे तुम्हें। वह सब बचपने की बाते हैं। अब इस आयु मैं तो बचपना ना करो। हो सकता है कि श्रीकृष्ण तुम्हें भूल गए हों। समय के साथ-साथ मनुष्य भी बदल जाता है। इस तरह सुदामा का डबल माइंड हो जाता है। फिर सुदामा सोचता है कि नहीं नहीं वह भगवान है मनुष्‍य नहीं, भगवान नहीं बदलते।.. श्रीकृष्ण और रुक्मिणी दोनों उसकी दुविधा देख रहे होते हैं। रुक्मिणी पूछती है भगवन आपके मित्र तो द्वारिका पहुंच गए फिर इस चिंता और व्याकुलता का क्या कारण है। फिर श्रीकृष्ण कहते हैं कि मुझे भय है कि कहीं वह मुझसे मिले बगैर ही लौट न जाएं। इस समय उसमें दुविधा चल रही है। 
 
आखिर सुदामा द्वारिका में राजमहल के द्वार के परिसर पर जाकर खड़ा हो जाता है। वहां की भव्यता को देखकर दंग रह जाता है। द्वार पर सैनिकों का पहरा और द्वार परिसर से महल तक पंक्तिबद्ध सैनिक खड़े रहते हैं। यह देखकर उसे समझ में नहीं आता कि अब क्या करूं।
 
द्वार पर घोड़े पर बैठा एक सैनिक सुदामा को नीचे से ऊपर तक देखता है तो सुदामा हाथ जोड़कर पूछता है- सुनो सैनिक भैया क्या द्वारिकाधीश का महल यही है? तब वह सैनिक कहता है- हां ब्राह्मण देवता यही राजमहल है। फिर वह सैनिक आगे कहता है- आपकी दशा देखकर ऐसा लगता है कि किसी ने आप पर अत्याचार किया है और आप न्याय की याचना करने आएं हैं। 
 
यह सुनकर सुदामा कहता है- नहीं भैया मुझ पर किसी ने अत्याचार नहीं किया। ना ही मैं न्याय की याचना करने आया हूं। मैं तो परदेशी हूं बहुत दूर से आया हूं। यह सुनकर सैनिक कहता है तो आप कुछ दान-दक्षिणा मांगने आए होंगे? यह सुनकर सुदामा कहता है- नहीं भाई मैं दान-दक्षिणा भी लेने नहीं आया हूं। मैं तो श्रीकृष्ण से मिलने आया हूं। यह सुनकर सैनिक पूछता है कि आप द्वारिकाधीश से क्यों मिलना चाहते हैं? तब सुदामा कहता है- सैनिक भाई द्वारिकाधीश मेरे मित्र हैं।
 
यह सुनकर घुड़ सैनिक कहता है मित्र? ऐसा कहकर वह पुन: सुदामा को नीचे से उपर तक देखकर कहता है- मित्र? तब सुदामा कहता है- हां कोई साधारण मित्र नहीं मेरे परममित्र हैं, मेरे बाल सखा हैं। यह सुनकर सैनिक कहता है- क्षमा करें ब्राह्मण देवता। आप समझ भी रहे हैं कि क्या कह रहे हैं? तब सुदामा कहता है- हां सैनिक भाई मैं सच कह रहा हूं श्रीकृष्ण मेरे मित्र है। तब सैनिक कहता है कि यह भला कैसे संभव हो सकता है? तब सुदामा कहता है कि आप एक ब्राह्मण की बात का विश्वास नहीं कर रहे हैं? क्या द्वारिका नगरी में ब्राह्मणों का इसी तरह अपमान किया जाता है? तब वह सैनिक कहता है- क्षमा करें मान्यवर! हम आपका अपमान नहीं कर रहे हैं। तब सुदामा कहता है कि अपमान नहीं कर रहे हो तो क्या सम्मान कर रहे हो आप? तब सैनिक कहता है कि आप समझते क्यों नहीं ब्राह्मण देवता।
 
तभी भीतर से रथ पर सवार अक्रूरजी आते हैं तो सुदामा उन्हें रोकता है। अक्रूरजी कहते हैं- रुको सारथी। फिर अक्रूरजी सुदामा को देखते और फिर वह द्वारपाल से कहते हैं- यह क्या हो रहा है द्वारपाल, कौन है ये सज्जन? तब वह द्वारपाल कहता है जोहर अक्रूरजी। ये कोई ब्राह्मण महाशय है जो अपने आप को द्वारिकाधीश का मित्र बता रहे हैं। यह सुनकर अक्रूरजी भी आश्चर्य से कहते हैं- मित्र? तब वह द्वारपाल कहता है कि हां और उनसे मिलने की हठ कर रहे हैं। 
 
फिर सुदामा कहता हैं कि आप मेरा विश्वास कीजिये मैं सच कह रहा हूं। फिर अक्रूरजी पूछते हैं- क्या नाम है आपका। इस पर सुदामा कहता है- सुदामा। तब अक्रूरजी कहते हैं- द्वारपाल तुम द्वारिकाधीश के पास तक इनका संदेशा ले जाओ।...यह सुनकर सुदामा प्रसन्न हो जाता है। तब अक्रूरजी कहते हैं कि यदि वो बुलाएं तो सैनिकों के साथ सम्मान पूर्वक भीतर छोड़ आना इन्हें। द्वारपाल कहता है- जो आज्ञा अक्रूरजी। सुदामा प्रसन्न होकर अक्रूरजी से कहता है- धन्यवाद आपका। अक्रूरजी उसे नमस्कार करके चले जाते हैं।
 
फिर द्वारपाल कहता है कि आप प्रतीक्षा करें ब्राह्मण देवता। मैं भीतर जाकर द्वारिकाधीश तक आपका संदेश पहुंचाकर आता हूं। सुदामा कहता है कि वो अवश्य मुझे बुलाएंगे। यह सुनकर घोड़े पर सवार द्वारपाल भीतर चला जाता है। वहां खड़े दूसरे सैनिक सुदामा को अजीब तरीके से देखते हैं तो वह सकुचाकर एक ओर खड़ा हो जाता है। परिसर के द्वार से महल नजर आता है। 
 
द्वारपाल को राजमहल के भीतर जाते हुए बताया जाता है। इधर बाहर अन्य सैनिक सुदामा को देखकर हंसते हैं। कुछ ही समय बाद वहां पर वे चार नागरिक भी आकर पीछे खड़े हो जाते हैं जिन्होंने सुदामा को राजमहल का पता बताया था और मित्र कहने पर उन्हें पागल कहा था। वे भी सुदामा को देखकर हंसते हैं। सुदामा पलटकर उन्हें गौर से देखता है तो वे वहां से चले जाते हैं। इस तरह की हरकतें देखकर सुदामा को बड़ा बुरा लगता है और सोचता है कि लौट जाना चाहिए। कहीं श्रीकृष्ण ने नहीं बुलाया तो क्या होगा। कैसी हंसी उड़ा रहे हैं लोग। जरा सोचो कहां एक दरिद्र ब्राह्मण और कहां एक राजा। तुम्हारे कारण श्रीकृष्ण भी संकट में पड़ जाएंगे। शीघ्र ही निर्णय लो और लौट जाओ।.. देखो बुलावा भेजने में कितना विलंब हो गया, लौट जाओ। यदि बुलाना होता तो अब तक बुला नहीं लिया होता। इससे पहले कि ये लोग तुम्हें धक्के मारकर निकाले दें, निकल चलो यहां से, लौट जाओ।...खड़े-खड़े ऐसी बातें सोचता रहता है सुदामा। 
 
उधर, श्रीकृष्ण को उनकी तीनों पत्नियां तैयार कर रही होती हैं। तभी वह द्वारपाल आकर कहता है- द्वारिकाधीश की जय हो। चारों उस द्वारपाल की ओर देखने लगते हैं। तब वह कहता है- आज्ञा हो तो एक संदेशा सुनाऊं? यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- शीघ्र ही कहो क्या संदेशा लाए हो? यह सुनकर वह द्वापाल कहता है कि प्रभु द्वार पर एक ब्राह्मण आया हुआ है और आपसे मिलने की आज्ञा चाहता है। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि द्वारपाल एक ब्राह्मण को हमसे मिलने के लिए आज्ञा चाहिए ये विधान कब से बना? कृष्ण के द्वार ऋषियों और ब्राह्मणों के लिए बंद कब से होने लगे? 
 
तब वह द्वारपाल कहता है- क्षमा करें प्रभु बात ये नहीं है। तब श्रीकृष्‍ण कहते हैं- बात ये नहीं है तो फिर क्या बात है? तब द्वारपाल कहता है कि प्रभु बात ये है कि वह कोई साधारण व्यक्ति नहीं लगता, कोई विक्षिप्त प्राणी है और आधा पागलसा लगता है। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि तुमने ये कैसे जाना? तब वह द्वारपाल कहता है कि पहली बात तो यह है कि वह परम दरिद्र दिखता है। द्वारिका राज्य में ऐसा दरिद्र व्यक्ति कोई नहीं हो सकता, यह कोई परदेशी है। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि परंतु परदेशी अथवा गरीब होना तो पागल होने की निशानी नहीं होती तो फिर तुम उसे पागल कैसे कह रहे हो? तब वह द्वारपाल कहता है कि क्योंकि वह पागलों जैसे बातें कर रहा है प्रभु। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- कैसी बातें? यह सुनकर द्वारपाल कहता है कि प्रभु वह कहता है कि वह आपका परम मित्र है।
 
यह सुनकर श्रीकृष्ण प्रसन्न हो जाते हैं और कहते हैं आह! हमारा परम मित्र। रुक्मिणी, सत्यभामा और जामवंती भी देखने लगती है। तब प्रभु श्रीकृष्ण पूछते हैं- कौन है वो, कहां से आया है क्या नाम है उसका? यह सुनकर द्वारपाल कहता है सिर पर पगड़ी नहीं, धौती फटीसी, दुर्बलसा वह ब्राह्मण अपना नाम सुदामा बता रहा है। 
 
यह सुनकर श्रीकृष्ण की आंखों से आंसू झरने लगते हैं। उनके मुंह से बड़ी मुश्किल से निकलता है सुदामा? सुदामा मेरा मित्र। नाम सुदामा का सुनते ही मुकुट, चप्पल सभी छोड़कर श्रीकृष्ण द्वार की ओर नग्ने पांव भागने लगते हैं। रुक्मिणी यह दृश्य देखकर भाव विभोर हो जाती है। श्रीकृष्ण दौड़ते और रोते हुए महल के बाहर जाते हैं रास्ते में एक सैनिक से टकरा जाते हैं और पुन: भागने लगते हैं। 
 
उधर, द्वार पर दुविधा में खड़ा सुदामा लौट जाने की सोचने लगता है। वह सोचता है कि देखो बुलावा भेजने में कितना विलंब हो गया। यदि बुलाना होता तो अब तक बुला नहीं लिया होता। सुदामा सोचता है- लौट जाओ लौट जाओ सुदामा। तब सुदामा लौटने के लिए द्वार से मुंह फेर लेता है और वह लौट जाता है। सैनिक उसे देखकर हंस रहे होते हैं।
 
उधर श्रीकृष्ण महल के गलियारे में सुध-बुध खोकर भागते हैं। कभी द्वारपाल तो कभी दासियों से टकराकर गिर पड़ते हैं और फिर पुन: उठकर दौड़ने लगते हैं। सभी सैनिकों, सेवकों और दासियों को यह समझ में नहीं आता है कि ये हो क्या रहा है। वह महल का ‍गलियारा पार करके परिसर में पहुंच जाते हैं। सभी सैनिक यह देखकर दंग रह जाते हैं कि यह क्या हो रहा है द्वारिकाधीश महल के द्वार से परिसर के द्वार तक के पथ पर भागे चले जा रहे हैं मुख्‍य द्वार की ओर।  
 
उधर सुदामा द्वार से लौट जाता है। श्रीकृष्‍ण द्वार पर पहुंचकर इधर-उधर देखकर पुकारते हैं- सुदामा, सुदामा। किधर गया मेरा मित्र? यह देखकर द्वार पर खड़े सैनिक दंग रह जाता है। श्रीकृष्ण पूछते हैं- कहां गया सुदामा, कहां गया मेरा मित्र? अरे सुदामा नजर नहीं आता। तब एक सैनिक कहता है- वह तो लौट गए द्वारिकाधीश। तब श्रीकृष्ण पूछता हैं- कहां? इस पर वह सैनिक कहता है- इस तरफ गए हैं। यह सुनकर श्रीकृष्ण उस ओर भागने लगते हैं। 
 
मुख्‍य द्वारपाल आकर द्वार सैनिकों से पूछता है कि द्वारिकाधीश किधर गए? तब सैनिक कहते हैं- उधर गए हैं। सारे सैनिक उनके पीछे भागते हैं। श्रीकृष्ण नगरभर में सुदामा सुदामा पुकारते हुए इधर-उधर भागते रहते हैं। नगरवासी ये देखकर दंग रहता जाते हैं।
 
इधर, सुदामा तो चलकर पुन: उसी कुवे के पास पहुंच जाता है। वहीं पर खड़े वही चार नगरिक उसे देखकर कहते हैं लो वो फिर आ गया। वे सभी सुदामा को देखकर हंसते हैं। तभी उधर द्वारिकाधीश को नग्न पांव यूं इस तरह भागते हुए देखकर नगर के नागरिक रुककर उन्हें देखने लगते हैं। स्त्री, पुरुष, बच्चे सभी द्वारिकाधीश को देखने के लिए रुक जाते हैं। श्रीकृष्ण दौड़ते हुए जोर जोर से सुदामा, सुदामा पुकारते हैं। वह उसी कुवे के पास पहुंच जाते हैं और सुदामा को देखकर पीछे से सुदामा को पुकारते हैं। वही चारों नागरिक द्वारिकाधीश को देखकर हाथ जोड़कर खड़े हो जाते हैं। श्रीकृष्ण रोते हुए पुकारते हैं- सुदामा। 
 
सुदामा रुककर पीछे मुड़कर देखता है तो श्रीकृष्‍ण बांहें फैलाए खड़े नजर आते हैं। श्रीकृष्‍ण रोते हुए कहते हैं- सुदामा। सुदामा गौर से देखता है- तब श्रीकृष्ण पुन: हाथ फैलाकर कहते हैं- सुदामा। यह अद्भुत और अप्रत्याशित घटना एवं दृश्य देखकर सुदामा अचंभित होकर रोने लगता है। सारा नगर और सैनिकगण यह देखकर अचंभित हो जाते हैं। 
 
दोनों की आंखों से आंसू झरने लगते हैं। दोनों बस एक दूसरे को देखते ही रहते हैं। फिर कुछ देर बाद दोनों गले मिलकर खूब रोते हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं- सुदामा, मेरे मित्र। इस अद्भुत मिलन को देखकर समूचा नगर श्रीकृष्ण को प्रणाम करने लगता है। सभी सैनिक, द्वारपाल आदि हाथ जोड़कर खड़े हो जाते हैं।
 
फिर श्रीकृष्ण कहते हैं- सुदामा मेरे मित्र। सुदामा कहता है- श्रीकृष्ण मेरे सखा। यह कहकर सुदामा श्रीकृष्ण के हाथ चुमने लगता है। तब श्रीकृष्ण कहते हैं- सुदामा तुम मुझसे बिना मिले ही लौट जा रहे थे? सुदामा रोते हुए कहता है कि तुमने आने में बहुत देर जो लगा दी थी। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि आने में तो तुमने बहुत देर लगा दी थी सुदामा। कितने वर्षों बाद याद किया है मुझे। यह सुनकर सुदामा कहता है कि मैं तो तुम्हें कभी भूला ही नहीं था। इस पर श्रीकृष्ण पूछते हैं कि तो आए क्यों नहीं इतने वर्षों? यह सुनकर सुदामा सकुचाते हुए कहता है- वो असल में... तब श्रीकृष्ण रोते हुए कहते हैं- हां मैं सब समझ गया, मैं सब जानता हूं। तुमने सोचा होगा की मैं द्वारिकाधीश बन गया हूं तो तुम्हें भूल जाऊंगा। तुम्हें पहचानूंगा तक नहीं, है ना?
 
यह सुनकर सुदामा रोते हुए कहता है- हां मैंने यही सोचा था और इसीलिए जब तुम्हारा बुलावा आने में देर हो गई तो मैं लौट चला था। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- वाह! मेरी दोस्ती का अच्छा मोल लगाया है तुमने। सुदामा तुम्हें मेरी मित्रता पर भरोसा तक नहीं रहा? अरे तुमने ये कैसे सोच लिया कि मैं अपने बालसखा को द्वार से ही लौट जाने दूंगा? बताओ क्या मैं इतना गिरा हुआ... यह सुनकर सुदामा श्रीकृष्ण के मुंह पर हाथ रखकर रोते हुए कहता है- बस करो, बस करो। मुझे क्षमा कर दो मित्र। मुझसे भूल हो गई। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- वाह दिल भी दुखाते हो और क्षमा भी मांगते हो। चलो, चलो भीतर वहीं सब बातें होगी। 
 
तब सुदामा कहता है- नहीं मित्र मैं भीतर नहीं जाऊंगा। तब श्रीकृष्ण पूछते हैं- क्यों? इस पर सुदामा कहता है- देखो तुमसे मिलने की अभिलाषा थी, वो भी आज पूरी हो गई। तुमने मेरी मित्रता की लाज रख ली, मेरा मान बढ़ गया। जिस प्रकार तुमने सारे संसार के सामने मुझे गले लगा लिया, मेरी शान बढ़ गई, मेरा मान बढ़ गया। अब मुझे भी तो मित्रता निभानी चाहिये ना। मुझे कुछ ऐसा नहीं करना चाहिए जिससे ‍तुम्हारी शान को भट्टा लगे। तुम्हारी मान हानि हो इसलिए मैं यहीं से लौट जाता हूं। 
 
यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- मैं समझा नहीं। मेरे राजमहल में तुम्हारे जाने से मेरी शान को भट्टा कैसे लगेगा? तब सुदामा कहता है कि देखो, एक दरिद्र ब्राह्मण इस फटेहाल में राजभवन में प्रवेश करेगा तो तुम्हारे राज्यकर्मचारी और अधिकारी क्या सोचेंगे। तुम्हारी पटरानियों के समक्ष मुझे मित्र कहते हुए तुम्हें लज्जित होना पड़ेगा। भला ये मैं कैसे सहन कर सकता हूं कि तुम्हारी मानहानि हो।
 
यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- सुदामा तुम आज भी उतने ही भोले हो जितने तुम बचपन में थे। अरे इसमें मानहानि कैसे। अरे मित्र, तुम्हारे चरणधूल के स्पर्श मात्र से मेरे भवन का कण-कण पवित्र हो जाएगा। तुम्हारे आगमन से मेरा मान कई गुना और बढ़ जाएगा। लोग युग-युगों तक हमारी मित्रता को याद रखेंगे। सम्मान करेंगे हमारी मित्रता का। अरे तुने ये सोच भी कैसे लिया कि मैं तुम्हें यहां से चले जाने दूंगा। यह सुनकर सुदामा भावुक हो रोने लगता हैं।
 
तब श्रीकृष्ण द्वारपाल से कहते हैं- द्वारपाल! द्वारपाल कहता है- आज्ञा राजराजेश्वर। तब श्रीकृष्ण कहते हैं- सारथी से कहो की रथ लाएं और हमारे परममित्र के भव्य स्वागत का आदेश दो। द्वारपाल कहता है- जो आज्ञा। यह कहकर वह चला जाता है। फिर श्रीकृष्ण सुदामा का हाथ पकड़कर कहते हैं- आओ मित्र। 
 
फिर उनके जाने के बाद नागरिक बातें करते हैं कि वाह भई वाह! मित्रता हो तो ऐसी हो। कोई सोच भी नहीं सकता था कि एक निर्धन ब्राह्मण द्वारिकाधीश का मित्र भी हो सकता है। मित्र भी कैसा कि त्रिलोकीनाथ नंगे पैरों दौड़ते हुए आए थे उसका स्वागत करने। सर पर मुकुट तक नहीं था। उस समय यूं लग रहा था कि जैसे श्रीकृष्ण द्वारिकाधीश नहीं है बल्कि सुदामा की तरह एक साधारण मित्र ही हैं।.. इस तरह की कई बातें होती हैं।
 
फिर उधर, रथ आ जाता है तो श्रीकृष्‍ण उन्हें रथ में बैठाकर
 राजमहल की ओर ले जाते हैं। राजमहल के द्वार के भीतर सुदामा और श्रीकृष्ण का फूलों से और नगाड़ों से स्वागत होता है। सुदामा यह सब देखकर दंग रह जाता है। दोनों प्रसन्न मुद्रा में आगे बढ़ते जाते हैं। दास-दासियों द्वारा पुष्प वर्षा की जाती है।  
 
महल के मुख्य कक्ष में पहुंचकर सुदामा ये देखकर अचंभित हो जाते हैं कि श्रीकृष्ण की तीनों पटरानियां उनके लिए आरती की थाल लिए खड़ी हैं। रुक्मिणी सुदामा को देखकर अति प्रसन्न हो जाती है। सुदामा यह देखकर सकुचाते हैं तो श्रीकृष्ण उन्हें गले लगाकर कहते हैं आओ मित्र। सुदामा मना करते हैं तो श्रीकृष्ण हाथजोड़कर संकेत से कहते हैं- आगे बढ़ो मित्र। फिर वे सुदामा का हाथ पकड़कर आगे कर देते हैं तो महल में तीनों रानियां उनकी आरती वंदन करती हैं। श्रीकृष्ण सुदामा के पीछे खड़े रहते हैं। यह देखकर सुदामा रोने लगते हैं तो श्रीकृष्ण अपने उत्तरीय से उनके आंसू पोछते हैं। सुदामा भी यह देखकर अपने हाथों से श्रीकृष्‍ण के आंसू पोछते हैं।
 
फिर श्रीकृष्‍ण उन्हें हाथ पकड़कर आगे ले जाते हैं और उन्हें उनके सिंहासन पर बैठाते हैं। फिर वह सत्यभामा एक थाल सुदामा के चरणों में रख देती हैं तब यह देखकर सुदामा हाथ जोड़ता है और ऐसा नहीं करने का संकेत करता है तो श्रीकृष्‍ण भी हाथ जोड़कर उन्हें संकेत करते हैं कि ऐसा करने दो। 
 
फिर श्रीकृष्‍ण सुदामा के फटे और घायल चरण देखकर रोने लगते हैं। तीनों रानियां भी ये देखकर रोने लगती हैं। श्रीकृष्‍ण उनके चरणों से एक-एक कांटा निकालते हैं और रोते जाते हैं और अपने आंसुओं से सुदामा के चरण धोते हैं। यह देखकर सुदामा अति भावुक और द्रवित हो जाता है। फिर सत्यभामा थाल में जल डालती है तो वे उस जल से सुदामा के पग धोते हैं। 
 
फिर बाद में श्रीकृष्‍ण के सामने सुदामा को चंदन, हल्दी, सुगंधित पदार्थ आदि का उबटन लगाकर सेवक लोग उन्हें शहद, दूध और दही से स्नान करवाते हैं। श्रीकृष्ण सेवकों से संकेत से कहते हैं- अच्छा खूब रगड़ों। इससे सुदामा का मुखमंडल चंद्र के समान उभर जाता है। फिर उन्हें नए वस्त्र पहनाया जाते हैं उस दौरान सुदामा अपनी पत्नी वसुंधरा द्वारा दिए गए चावल की पोटली को उठा लेते हैं। श्रीकृष्ण वह पोटली देख लेते हैं।
 
फिर सुदामा खुद को दर्पण में देखकर अचंभित हो जाता है। फिर वह अपने हाथ की पोटली को और नए वस्त्र को देखता है। फिर वह सोचता है कि त्रिभुवन के धन भंडार में मेरे इस थोड़े से चावल की क्या औकात। अब उसे ये पोटली देने में लज्जा महसूस होती है। क्या सोचेगी रानियां और क्या बोलेंगे दास और फिर श्रीकृष्‍ण को किस-किस का उपहास सहना होगा। सुदाम यह सब सोचने लगता है। जय श्रीकृष्णा।
 
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा
 

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