Shri Krishna 17 Sept Episode 138 : हनुमानजी जब भीम को दिखाते हैं अपना विराट स्वरूप

अनिरुद्ध जोशी
गुरुवार, 17 सितम्बर 2020 (22:58 IST)
निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 17 सितंबर के 138वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 138 ) में काशीराज और पौंड्रक के वध के बाद काशी नरेश का पुत्र दूर्जय राक्षसनी कृत्या को द्वारिका विध्वंस और कृष्ण बलराम को मारने के लिए भेजता है परंतु श्रीकृष्ण अपने सुदर्शन को कृत्या और दूर्जय का वध करने का आदेश देते हैं। सुदर्शन दोनों का वध कर देता है। अब आगे। 
 
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा
 
 
फिर हनुमानजी को गंधमादन पर्वत पर बैठे हुए दिखाया जाता है जो अपने प्रभु श्रीकृष्ण को देख रहे होते हैं। उस वक्त रुक्मिणी तिलक लगाकर उनकी आरती उतार रही होती है तभी श्रीकृष्ण के चरणों में तीन कलम के फूल प्रकट हो जाते हैं। तब दोनों हनुमानजी की ओर देखते हैं तो हनुमानजी उन्हें प्रणाम करते हैं, क्योंकि हनुमानजी अपने प्रभु को अपने सरोवर के कमल के फूल प्रतिदिन चढ़ाते हैं। रुक्मिणी कहती है- प्रभु! हनुमान हर सुबह सबेरे सबसे पहले आपकी पूजा अर्चना करना और यह दिव्य कमल आपको अर्पण करना कभी नहीं भूलते। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- देवी मैं अपने परमभक्त हनुमान पर जितना भी गर्व करूं कम है। केवल मेरी भक्ति ही उसका जीवन उद्देश्य बनकर रह गई है। तब रुक्मिणी कहती है- परंतु प्रभु इसके अतिरिक्त एक उद्देश्य और भी तो है। आप ही ने कहा था कि हनुमान द्वारा बलराम भैया, भीम भैया, अर्जुन, गरूढ़ और सुदर्शन का अहंकार तोड़ना चाहते हैं। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- हां देवी मैंने कहा था कि अहंकार किसी भी योद्धा का दुश्मन होता है और मैं मेरे अपनों के इस दुश्मन को नष्ट करना चाहता हूं। 
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फिर उधर, भीम को बताया जाता है जो एक बड़ी-सी चट्टान को अपने पैरों से मारकर खाई में गिरा देता है। यह देखकर रुक्मिणी कहती है- प्रभु भीम भैया अपनी प्रिय पत्नी के प्रेम के आवेश में उन दिव्य कमलों को ढूंढने निकल पड़े हैं परंतु उन्हें इस बात का ज्ञान नहीं है कि ये दिव्य कमल कहां खिलते हैं। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- देवी इस समय उन दिव्य कमलों की सुगंध ही भीम भैया को अपनी ओर खींच रही है।
 
भीम उस सुगंध की ओर बढ़ते हैं तो ये देखकर सरोवर के पास खड़े तीन यक्ष देवता में से एक कहता है- कोई मनुष्य सरोवर की ओर आ रहा है स्वामी। यह सुनकर दूसरे देव कहते हैं- मनुष्य! तो कदाचित अज्ञानी होगा वह। तब तीसरा कहता है- अवश्य वर्ना यक्षलोक के इस सरोवर के पास आने का दुस्साहस कोई कैसे कर सकता है। 
 
फिर भीम मार्ग में बाधा बन रहे वृक्षों को उठाकर फेंक देता है। इस तरह वह अपने बल का प्रदर्शन करते हुए आगे बढ़ता जाता है। फिर भीम खुद से ही कहता है कि सारा वातावरण इन फूलों की सुगंध से मदमस्त है इसका मतलब यह है कि वह सरोवर यहीं-कहीं हैं चलो देखते हैं। फिर वे आगे बढ़ता है तो वहां पर उन तीन देवों में से दो प्रकट होककर उनमें से एक कहता है- हे मनुष्‍य! तुम इस गंधमादन पर्वत पर क्या कर रहे हो? दूसरा कहता है कि इस पर्वत पर मनुष्‍य का आना उचित नहीं है। यह सुनकर भीम कहता है- यह सुगंध कहां से आ रही है। यह सुनकर एक देव कहते हैं- ओह! तो तुम्हें दिव्य कमलों की सुगंध यहां तक खींच लाई है। तब दूसरा कहता है कि हमारे यक्षलोक के सरोवर से आ रही है ये सुगंध।
 
यह सुनकर भीम कहता है- अच्छा। कमल के इन फूलों के लिए ही मैं इस पर्वत पर आया हूं। कुछ फूल लेकर मैं यहां से चला जाऊंगा। आप मेरा मार्ग छोड़िये। यह सुनकर एक देव कहा है- तुम दिव्य कमलों को नहीं ले जा सकते हो। यह सुनकर भीम कहता है कि क्यों, क्यों नहीं ले जा सकता? तब एक देव कहता है क्योंकि मनुष्‍य का उन पुष्पों पर कोई अधिकार नहीं है। उन पुष्पों पर केवल यक्षलोक का अधिकार है। यह सुनकर भीम कहता है कि इस सृष्टि में जो भी फूल खिलते हैं उन पर किसी एक का अधिकार कैसे हो सकता है? यह तो प्रभु का आविष्कार है और इस पर हर एक का अधिकार है। इस पर्वत का निर्माण यक्षों ने नहीं किया फिर इन दिव्य सरोवर पर यक्षों का अधिकार कैसे हो सकता है? मैं इन फूलों के लिए आया हूं और इन्हें लेकर ही जाऊंगा।
 
यह सुनकर वे देव कहते हैं- हे मनुष्य! तुम्हारी इन बातों से अहंकार की गंध आ रही है। यह सुनकर भीम कहता है कि तुम मुझे चुनौती दे रहे हो। कदाचित तुम्हें इस बात का ज्ञान नहीं है कि मैं संसार का सबसे बलवाल पुरुष हूं। यह सुनकर एक देव कहता है- हे मनुष्‍य हम तुम्हें चेतावनी देते हैं कि यदि तुमने सरोवर के पास जाने का प्रयास किया तो हम तुम्हें जीवित नहीं छोड़ेंगे। तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम यहीं से लौट जाओ। यह सुनकर भीम कहता है कि मैं लौट जाऊंगा मगर खाली हाथ नहीं। तब दोनों देव भड़कर कहते हैं- हाथ हमारे भी खाली नहीं है मानव। यह कहते ही उनके हाथ में भी गदा आ जाती है। फिर भीम से गदा युद्ध होता है तब एक देव वृक्ष और दूसरा एक विशालकाय गोल पत्थर में बदल जाता है परंतु भीम दोनों को अपनी गदा से नष्ट कर देता है। 
 
इसके बाद भीम जोर-जोर से हंसते हुए कहता है- मैं महाबलवान हूं, अजेय हूं अक्षय हूं। इस संसार में तो क्या तीनों लोकों में मुझे कोई परास्त नहीं कर सकता।... यह देख और सुनकर श्रीकृष्ण रुक्मिणी से कहते हैं- देख रही हो देवी जब किसी बलवान को विजय प्राप्त होती है तो कैसे उसका सिर घमंड के कारण आकाश से टकराने लगता है।
 
फिर भीम सरोवर के नजदीक पहुंच जाता हैं जहां मार्ग में हनुमानजी को आंखें बंद करके लेटे हुए देखता है जिनकी पूंछ संपूर्ण मार्ग को रोके हुए पड़ी रहती है। भीम 2 से 3 बार जोर से हूंकारा भरता है ताकि हनुमानजी उठ जाएं।.. यह देखकर रुक्मिणी को हंसी आ जाती है।..फिर भीम क्रोधित होकर जोर से कहता है- हे वानर उठ, उठ यहां से। यह सुनकर हनुमानजी आंखें खोलते हैं और भीम को देखते हैं और कहते हैं- हे मनुष्य कदाचित तुम रास्ता भटक गए हो, कहां जाना है तुम्हें? 
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यह सुनकर भीम कहता है- हे वानर! मैं तो रास्ता नहीं भटका परंतु तू यहां लेटकर मेरा रास्ता रोक रहा है। तब हनुमानजी कहते हैं कि मैं तो तुम्हें केवल रास्ता दिखाने की चेष्ठा कर रहा था। तुम्हारे लिए यही अच्छा है कि तुम यहां से लौट जाओ। यह सुनकर भीम कहता है- हे वानर मैं आगे बढ़ने के बाद पीछे नहीं हटता और मेरे रास्ते में यदि हाथी भी आड़े आता है तो मैं उसे भी उठाकर दूर फेंक देता हूं। 
 
यह सुनकर हनुमानजी कहते हैं कि तुम अपनी शक्ति के घमंड में धर्म, सभ्यता, शिष्टाचार सभी कुछ भूल गए हो। इतना भी नहीं जानते कि अपने से बड़ों से किस तरह बात की जाती है? तब भीम कहता है कि मैं यहां किसी वानर से धर्म का ज्ञान लेने नहीं आया हूं। मेरा उद्देश्य केवल वो दिव्य कमल है जिसकी सुगंध मुझे यहां तक ले आई है। 
 
यह सुनकर हनुमानजी कहते हैं- तो तुम कमल पुष्प लेने आए हो? परंतु ये कमल किसी मानव के लिए नहीं है। इसलिए गंधमादन पर्वत के क्षेत्र में किसी भी मनुष्‍य के आने पर प्रतिबंध है। यह सुनकर भीम कहता है- मैंने अपने बाहुबल से बड़े-बड़े राक्षसों का वध किया है। मुझे कहीं आने-जाने से कोई क्या रोकेगा। इस पर हनुमानजी कहते हैं- हे युवक मैं नहीं चाहता कि तुम आगे बढ़ो और प्रतिबंध तोड़ो। यह सुनकर भीम क्रोधित होकर कहता है- हे वृद्ध वानर तुम मुझे रोकोगे? अरे त्रिलोक में मुझ जैसा गदाधारी कोई दूसरा नहीं है फिर तुम्हारा और मेरा क्या मुकाबला। तुब वृद्ध मैं युवक, तुम निर्बल मैं बलवान। तुम मुझे पहचानते नहीं मैं वायुपुत्र भीम हूं। 
 
यह सुनकर हनुमानजी मन-ही-मन खुद से कहते हैं- वायुपुत्र भीम, मैं तो तुम्हें देखते ही पहचान गया था। अगर तुम वायुपुत्र हो तो मैं पवनपुत्र हूं परंतु तुम अपने बड़े भाई को पहचान नहीं सके। पहचानोगे भी कैसे तुम्हारी आंखों पर घमंड का परदा जो पड़ा हुआ है। पहले मुझे तुम्हारे इस अहंकार को तोड़ना होगा, तभी तो तुम्हारी आंखें खुलेंगी।
 
हनुमानजी को चुप देखकर भीम कहता है- किस चिंता में पड़ गए तुम। हे वृद्ध वानर लगता है मेरे भय से तुम्हारे हाथ पैरों के भांति ही तुम्हारी जीभ भी बोलना भूल गई है।.. यह सुनकर हनुमानजी कहते हैं- हे वायुपुत्र तुम ठीक कहते हो तुम्हारा मेरा कोई मुकाबला नहीं। तुम युवक और मैं वृद्ध, तुम बलवान और मैं निर्बल, तुम चलते हो तो धरती हिल जाती है और मेरे हाथ पैर हिलते भी हैं तो कंपकंपाहट के मारे और तुम्हारे भय से तो मेरी जीभ भी हिलना बंद हो गई।
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यह सुनकर भीम घमंड से खुश हो जाता है तब हनुमानजी कहते हैं- तो अब तुम ही बताओ मैं यहां से कैसे उठ सकता हूं? हे वायुपुत्र तुम ऐसा करो रास्ते का कंकर समझकर मेरे ऊपर से लांघ कर चले जाओ। यह सुनकर भीम कहता है- ये क्या कह रहे हो। अरे मैं बलवान अवश्य हूं परंतु इतना अधर्मी नहीं हूं कि एक निर्बल असहाय बूढ़े को लांघ जाने का पाप करूं। नहीं मैं बड़े-बड़े हाथियों को उठाकर फेंक सकता हूं परंतु मैं ये पाप नहीं कर सकता। 
 
तब हनुमानजी हाथ जोड़कर कहते हैं- हे वायुपुत्र न तुम लांघने का पाप करना चाहते हो और ना ही मैं हिल-डुल सकता हूं। मेरी तुमसे एक बिनती है कि तुम कृपा करके मेरी पूंछ को हटा दो और अपना मार्ग बनाओ और फिर आगे बढ़ो। यह सुनकर भीम जोर-जोर से हंसता है और कहता है- ठीक है अभी हटाए देता हूं। 
 
फिर भीम मन-ही-मन सोचता है- मैं चाहूं तो इसकी पूंछ पकड़कर सीधा यमलोक फेंक सकता हूं। परंतु ये वृद्ध वानर मेरे क्रोध का नहीं दया का पात्र है।... उसकी मन की बात हनुमानजी सुन लेते हैं। फिर भीम हनुमाजी की पूंछ जो मार्ग से एक चट्टान तक लंबी रहती है उसके अंतिम भाग को एक हाथ से पकड़कर हटाने लगता है। परंतु पूंछ तो एक सूत भी हिलती भी नहीं। भीम पूंछ को पूरी ताकत से पकड़र खींचते हैं परंतु वे खुद ही दूर फिंका जाते हैं। यह देखकर रुक्मिणी और श्रीकृष्ण हंसने लगते हैं तब हनुमानजी कहते हैं- अरे भीमसेन! तुमने इतनी जल्दी हार मान ली, वो भी एक तुच्छ-सी पूंछ से? तुम तो युवक होकर भी निर्बल की तरह थक गए। ये तुम्हें शोभा नहीं देता। 
 
यह सुनकर भीम पसीना पोंछकर कहता है- नहीं नहीं मैं हारा नहीं हूं मैं तो यूं ही जरा सुस्ता रहा था। तब हनुमानजी कहते हैं- भीमसेन यदि तुम दोनों हाथों से पूंछ को उठाने का प्रयास करो तो अवश्‍य ही उठ जाएगी। तब भीम कहता है- हां ठीक है। फिर भीम अपनी पूरी ताकत लगाकर दोनों हाथों से पूंछ को उठाने का प्रयास करता है परंतु इस चक्कर में भूमि पर गिर पड़ता है।.. तब हनुमानजी हाथ जोड़कर कहते हैं- हे वायुपुत्र मैं लज्जित हूं कि मेरी तुच्छ-सी पूंछ को उठाने के प्रयास में तुम गिर पड़े। हे भीम मेरी पूंछ की इस धृष्टता के लिए मुझे दंड दो। जिस पूंछ ने तुम्हारा अपमान किया है तुम उसे काट दो।.. इस पर भीम कुछ नहीं कहता है तो हनुमानजी कहते हैं हे भीम तुम्हारा ये मौन रहना बता रहा है कि तुमने मुझे क्षमा नहीं किया है। मैं तुम्हारे चरणों में अपना माथा रखकर मैं तुमसे क्षमा मांगता हूं, मुझे क्षमा कर दो।
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यह सुनकर भीम हाथ जोड़कर खड़ा हो जाता है और कहता है- बस बस। अब बस भी कीजिये मुझे और न लज्जित कीजिये। क्षमा तो मुझे मांगनी चाहिये कि मैंने अपने दुर्वचनों से आपके कोमल हृदय को चोट पहुंचाई है। मुझसे बहुत बड़ी भूल हो गई है। मैं अपने आपको त्रिलोक का सबसे बड़ा शक्तिशाली बलशाली मनुष्‍य समझता था। समझता था कि आपकी पूंछ को गाजर-मूली की तरह उखाड़कर फेंक दूंगा। परंतु मैं अपनी सारी शक्ति, सारा बल लगाकर भी इसे हिला तक नहीं सका और आप कह रहे हैं कि मैं इस पूंछ को काट दूं। अरे ये पूंछ तो पूज्जनीय है जिसने बिना हिले अपनी फटकार से मेरे अहंकार के स्तंभ को ईंट की दीवार की तरह गिरा दिया। हे कपिश्रेष्ठ! आप मुझसे क्षमा मांग रहे हैं। मैं तो आपका आभारी हूं कि आपने मुझे सत्य का ज्ञान करा दिया। मेरे झूठे भ्रम को तोड़ दिया। फिर भीम हनुमानजी के चरण स्पर्श करता है तो हनुमानजी उसे आशीर्वाद देते हैं।
 
हे कपिश्रेष्ठ! आप निश्‍चित ही ईश्वरीय अवतार हैं कृपया आप अपना परिचय दीजिये। आप अवश्य ही इस भेष में कोई सिद्ध, गंधर्व अथवा देवता होंगे। यह सुनकर हनुमानजी उठकर खड़े होते हैं और कहते हैं- हे पांडुनंदन भीमसेन में वानरराज केसरी के क्षेत्र में वायुदेवता से उत्पन्न वानर हनुमान हूं। मैं प्रभु श्रीराम का सेवक हनुमान हूं। यह सुनकर भीम चौंककर प्रणाम करता है।
 
फिर हनुमानजी कहते हैं- मैंने तुम्हें पहचान लिया था भ्राता परंतु अहंकार के कारण तुम्हारी आंखों पर परदा पड़ा हुआ था जिससे तुम अच्छे और बुरे, सच और झूठ की पहचान खो बैठे थे। इसलिए तुमने मुझे पहचाना नहीं। यह सुनकर भीम कहता है- हे हनुमानजी। आप मेरे बड़े भाई हैं मुझे क्षमा कर दीजिये। आपने मेरी आंखें खोलकर मुझे सत्यता का ज्ञान कराया और मुझे पथभ्रष्ट होने से बचा लिया। आप तो परमज्ञानी हैं कृपया आप मेरे गुरु बन जाइये और मुझे ज्ञान की भिक्षा दीजिये।.. फिर हनुमानजी चारों युग में मनुष्य के चरित्रों का वर्णन करते हैं।
 
फिर भीम कहते हैं कि आपका ये उपदेश सुनकर मैं धन्य हो गया। आपसे मेरी अंतिम विनती है। तब हनुमानजी कहते हैं- कहो भीमसेन क्या बिनती है? विदा होने से पहले मैं तुम्हारी इच्छा अवश्‍य पूरी करूंगा। तब भीम कहता है- सतयोजन समुद्र को लांघते समय आपने जो विराट स्वरूप धारण किया था आपके उस विराट स्वरूप का मैं दर्शन करना चाहता हूं। यह सुनकर हनुमानजी कहते हैं- मेरे अनुज भ्राता तुम मेरे उस विराट रूप को देखने का हट मत करो। तब भीम कहता है- भ्राताश्री मैं आपके उस विराट रूप के दर्शन किए बिना यहां से नहीं जाऊंगा। हे हनुमानजी यदि मैं आपसे अनुग्रहित होने के योग्य हूं तो कृपया आप अपने विराट रूप का दर्शन दीजिये। 
 
फिर हनुमानजी जय श्रीराम कहते हुए अपना विराट रूप धारण करते हैं। फिर हनुमानजी कहते हैं- हे कुंतीपुत्र भीम यहां तक तुम मेरा विराट रूप देख सकते हो इसलिए मैंने तुम्हें इतना ही रूप दिखाया है परंतु में इससे भी अधिक विराट रूप धारण कर सकता हूं। मैं अपनी इच्छा के अनुसार विराट रूप ले सकता हूं। यह सुनकर भीम कहता है- हनुमानजी! मैं धन्य हो गया, आपने मेरी इच्छापूर्ति के लिए अपने रोद्र रूप का दर्शन कराया। इसके लिए बहुत-बहुत धन्यवाद परंतु अब अपना पूर्व रूप धारण कीजिये क्योंकि मुझमें आपके सूर्य के समान तेजस्वी रूप को अधिक समय तक देखने की क्षमता नहीं है। फिर हनुमानजी जय श्रीराम कहते हुए पुन: अपने पूर्व रूप में आ जाते हैं। फिर हनुमानजी भीमसेन से गले मिलते हैं और कहते हैं- हे भीमसेन तुम मेरा ये स्थान किसी को ना बताना। 
 
उधर, ‍रुक्मिणी हनुमानजी का विराट स्वरूप देखकर दंग रह जाती है तो श्रीकृष्‍ण पूछते हैं- क्या हुआ देवी। कहां खो गई हैं आप? देवी मेरे परमभक्त हनुमान का विराट रूप देखकर आप भी भीमसेन की भांति मोहित हो गई हैं। तब रुक्मिणी कहती हैं- धन्य हैं आप और आपका परमभक्त। फिर श्रीकृष्‍ण कहते हैं- भीमसेन के अहंकार का हनुमान ने तो नाश किया ही है और अब बारी है दाऊ भैया की और मेरे‍ प्रिय सखा अर्जुन की। जय श्रीकृष्णा।
 
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