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Shri Krishna 29 May Episode 27 : जब कंस को पता चला कि श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत उठा लिया

हमें फॉलो करें Shri Krishna 29 May Episode 27 : जब कंस को पता चला कि श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत उठा लिया

अनिरुद्ध जोशी

, शुक्रवार, 29 मई 2020 (22:01 IST)
निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 29 मई के 27वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 27 ) में कंस को जब यह पता चलता है कि श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को अपनी अंगुलियों पर उठा लिया तो वह इस पर विश्वास नहीं करता है।
 
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा
 
 
तब कंस कहता है कि क्या हमारे किसी गुप्तचर ने ये कांड अपनी आंखों से देखा है? तब एक सेवक बताता है कि नहीं महाराज उस दिन हमारा कोई गुप्चर वहां नहीं था, क्योंकि उस दिन आंधी और तूफान का बड़ा जोर था। यमुना में बाढ़ आई हुई थी। हमारा कोई भी गुप्तचर नदी पार नहीं कर सकता। बाद में जब हमारे गुप्तचर वहां पहुंचे तो गोकुल और वृंदावन में सब ओर इसी बात की चर्चा थी। सभी लोगों ने यह दृष्य अपनी आंखों से देखा था। वर्षा और तूफान से बचने के लिए सभी लोग उसी पर्वत के नीचे जा छुपे थे।
 
यह सब सुनकर कंस कहता है, चाणूर हमने कई बार देवताओं को हराया है। विजयी करते हुए स्वर्ग से लेकर पाताल तक घुमे हैं किंतु आज तक ऐसा कोई मनुष्य नहीं देखा जो इस प्रकार पहाड़ को अपनी अंगुली पर उठा ले। केवल कथाओं में सुना है कि त्रेता में हनुमानजी थे जिन्होंने पहाड़ को उठा लिया था। परंतु वह भी मनुष्य नहीं एक वानर थे। इसलिए वह कथा भी एक कल्पना ही लगती है।
 
तब चाणूर कहता है कि महाराज वह कथा भी कल्पना थी और ये कथा जो हमारे नायक सुना रहे हैं केवल एक अफवाह मात्र है। तब कंस कहता है कि तो क्या सारे गांव वाले झूठ बोलते हैं? चाणूर कहता है कि हो सकता है। तब कंस कहता है क्यों? इस पर चाणूर कहता है कि ये देवताओं का एक षड़यंत्र हो सकता है। बालक के बारे में ऐसी अफवाहें फैलाकर वो आपको अपने लक्ष्य से पथभ्रष्ट करना चाहते हैं। कंस कहता है अर्थात?
 
चाणूर कहता है अर्थात यह कि यदि विष्णु ने कहीं जन्म लिया है तो उसे आपसे बचाने के लिए आपकी दृष्टि से दूर रखा जाएगा। नीति तो यही कहती है। इसका अर्थ यही कि कृष्ण के बारे में जो अफवाहें फैलाई जा रही है केवल इसलिए कि आपका सारा ध्यान केवल कृष्ण की ओर हो जाए और असली विष्णु कहां पल रहा है आप उसकी तलाश ना करें। तनिक सोचिए महाराज जब से आपने अपने असुर भेजने बंद कर दिए हैं तब से ही ये कालिया नाग की कहानी और अब ये पर्वत उठाने का नाटक करने की अफवाह फैलाई जा रही है। इन बातों से तो यह लगता है कि आपके चुप बैठने के बाद भी ऐसी लीला करके ये बालक बार-बार आपको चुनौति देने का कार्य क्यों कर रहा है? ताकि आप इसी के पीछे लगे रहें। कंस को चाणूर की बात समझ में आ जाती है। 
 
आसमान से ये सारी बातें नारदजी सुन रहे थे।
 
फिर एक दिन बाणासुर भी चाणूर की बात से सहमत होकर कहता है कि ये विष्णु की एक चाल है जिससे आपका ध्यान उधर ही भटकता रहे। स्वयं तो कहीं और छुपा हुआ है और उसने इस मायावी बालक को आपके सामने कर दिया है। 
यह सुनकर कंस कहता है कि परंतु प्रश्न ये है कि वह स्वयं कहां पल रहा है और उसे कैसे और कहां ढूंढा जाए?
 
तभी नारदजी नारायण-नारायण कहते हुए वहां पहुंच जाते हैं। तीनों उधर देखने लगते हैं। नारदजी उनके नजदीक पहुंचकर कहते हैं कि जो आंखों के सामने मौजूद है उसे कहीं ओर ढूंढने का व्यर्थ ही प्रयास कर रहे हो। इससे बढ़ी मूर्खता और क्या हो सकती है। कंस मुस्कुराकर कहता है आइये देवर्षि आइये। आज इस प्रकार अकस्मात कैसे आना हुआ? तब नारदजी कहते हैं कि महाराज कंस हम आपसे मिलने के लिए ही आए हैं। कंस कहता है अच्छी बात है विराजिये।
 
तब नारदजी कहते हैं कि नहीं राजन! यह तो राज सिंहासन है। हम साधुओं के काम का नहीं। तब बाणासुर व्यंग से कहता है तो आपके लिए मृगछाल मंगवाएं नारद मुनि? यह सुनकर नारदजी कहते हैं कि उसका कष्ट न करें महाराज बाणासुर। हम जो कहने आएं हैं केवल उसे ही ध्यान से सुनें। तब बाणासुर मदिरापान करते हुए कहता है कि कहिये कहिये, हम ध्यान से सुन रहे हैं। 
 
तब नारदजी कहते हैं कि हमें केवल इतना ही कहना है कि आप लोग अपने आपको व्यर्थ ही भ्रम में डाल रहे हो। वास्तव में आपको जिसकी खोज है वह दूसरा कोई नहीं कृष्ण नाम का एक बालक है जो गोकुल में पल रहा है। यह सुनकर कंस बाणासुर की ओर देखता और फिर चाणूर की ओर। आगे नारदजी कहते हैं कि ये वही है जिसके लिए अष्टभूजा देवी ने आपको इशारा किया कि तुम्हें मारने वाला कहीं और जन्म ले चुका है।
 
यह सुनकर कंस मुस्कुराकर कहता है अच्छा तो आप केवल यही बताने आए थे? तब नारदजी कहते हैं हां राजन। इस पर कंस कहता है कि परंतु आज आपको ये बताने की आवश्यकता क्यूं आन पड़ी? यह सुनकर नारदजी कहते हैं कि इसलिए कि आप चाहें तो अब भी अपने आप को सर्वनाश से बचा सकते हैं। इस पर कंस हंसने लगता है और कहता है हमारे सर्वनाश के विचार से आप इतने विचलित हो गए? हम नहीं जानते थे कि आपको हमसे इतना मोह हो गया है। 
 
यह सुनकर नारदजी कहते हैं कि साधु को किसी से मोह नहीं होता राजन। हमें तो केवल दया आ रही है आप पर। फिर नारदजी कालिया नाग पर नृत्य करना और गोवर्धन को अंगुलियों से उठाने की घटना को बताकर कहते हैं कि वह बालक कोई और नहीं स्वयं सच्चिदानंद भगवान हैं। उनकी शरण में जाओ तो तुम्हारा कल्याण होगा।
 
नारदजी की बातें सुनकर बाणासुर कंस से कहता है कि इसे विष्णु ने आपके पास संधि के लिए दूत बनाकर भेजा है महाराज जो शरण की बात कर रहा है, ताकि आप डरकर उस छोटे से बालक के समक्ष अपनी सेना के साथ अस्त्र-शस्त्र त्यागकर समर्पण कर दें। यह विष्णु की एक चाल है महाराज। फिर चाणूर भी अपनी पूर्व की बात दोहराता है। फिर तीनों मिलकर नारदजी का उपहास उड़ाते हैं और उनका अपमान करके उन्हें वहां से भगा देते हैं। 
 
नारदजी सीधे गोलोक जाते हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं बहुत दुखी होकर आये हो भक्तराज। नादरजी कहते हैं प्रभु दुख तो मुझे उस अभागे पर आता है। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि तुम उसके लिए दुख न करो यह महामाया का खेल है। जो हो रहा है उसे होने दो। तब नारदजी कहते हैं सचमुच आपकी महामाया का खेल बड़ा प्रबल है। जिस अष्टम पुत्र को वह वर्षों से ढूंढ रहा था वही रहस्य हमने उसे बताया तो आपकी माया ने उसकी बुद्धि ऐसी भ्रमित कर दी की वह हमें ही झूठा कहने लगा। तब नारदजी महामाया को प्रणाम करके कहते हैं कि हम पर ऐसी कृपा कभी न करना कि हम पथभ्रष्ट हो जाएं और कंस की भांति हम भी इधर उधर भटकने लगें। यह सुनकर श्रीकृष्ण, राधा और महामाया मुस्कुरा देते हैं।
 
तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि आप अपनी चिंता क्यों करते हैं नारद? तब नारदजी कहते हैं मुझे अपनी चिंता तब तक नहीं है जब तक आप मेरे रक्षक हैं परंतु मुझे देवकी और वसुदेव की चिंता होने लगी है। ये क्रूर कंस उन्हें बहुत दुख देगा प्रभु। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि जरा सोचो आज तक उनकी रक्षा किसने की है? नारदजी कहते हैं आपने प्रभु। तब श्रीकृष्ण कहते हैं नहीं। वास्तव में वही सुरक्षित है जो धर्म की रक्षा करता है तो धर्म उसकी रक्षा करता है। जो प्राणी अपने धर्म पर दृढ़ रहता है उनका धर्म ही उनकी रक्षा करता है।
 
उधर कारागार में देवकी और वसुदेवजी के लिए अक्रूरजी भेष बदलकर भोजन देने वाला व्यक्ति बनकर पहुंचते हैं और बताते हैं कि रोहिणी, यशोदा, नंदबाबा के हाल और फिर वे कहते हैं कि दोनों बालकों को विद्या अध्ययन के लिए भेजा जा रहा है। देवकी कहती हैं कि उन्हें किसी गुरुकुल में भेजना तो खतरा होगा, क्योंकि वहां उनसे उनके माता पिता के बारे में पूछेंगे। इसलिए उन्हें गुरुकुल भेजना उचित नहीं।
 
फिर अक्रूरजी कहते हैं कि कृष्ण का रहस्य केवल हम जानते हैं। नंदराय और यशोदा नहीं जानते हैं। जब मैंने श्रीकृष्ण के विद्या अध्ययन के बारे में कहा तो उन्होंने कहा कि हमारा पुत्र तो एक ग्वाला है रोहिणी के पुत्र की तरह राजकुमार नहीं। उसे विद्या अध्ययन करके क्या करना है, गाय ही चराना है। तब देवकी कहती हैं कि इस पर रोहिणी दीदी ने क्या कहा?
 
अक्रूरजी कहते हैं कि रोहिणी भी यही सोचती है कि बलराम के साथ कृष्ण को भेजना उचित नहीं। लेकिन देवकी माता कहती हैं कि छोटे भाई को बड़े भाई से अलग करना उचित नहीं। वसुदेवजी कहते हैं कि तब मेरा निर्णय यह है कि दोनों को वहीं गुपचुप तरीके से वहीं शिक्षा दो। इस पर अक्रूरजी कहते हैं कि नंदराय तो अपने लाल को पढ़ाना ही नहीं चाहते हैं। इस पर देवकी कहती हैं कि ठीक है मेरे लाल को तो अनपढ़ ही रहने दो। उसे को मुरली बजाने दो और गय्या ही चराने दो।
 
यह सुनकर ऊपर गोलोक में बैठे श्रीकृष्ण प्रसन्न होकर राधा से कहते हैं कि लो हम तो पढ़ाई से बच गए। मैया सही कहती है कि हम तो अनपढ़ है तो अनपढ़ ही रहने दो। फिर राधा के प्रश्न पर श्रीकृष्ण बताते हैं कि ये नंद अपने पिछले जन्म में ध्रोण नाम के वसु थे और यशोदा उनकी धरा नाम की पत्नी।
 
एक बार दोनों ने गंधमादन पर्वत पर कई हजार वर्षों तक तप इसलिए किया कि उन्हें हमारे दुर्लभ बालरूप के दर्शन हो जाएं। जब उन्हें ये दर्शन नहीं हुए तो उन्होंने एक अग्निकुंड का निर्माण करके उसमें भस्म हो जाने का निश्‍चिय किया। तभी आकाशवाणी हुई कि द्वापर में तुम दोनों नंद और यशोदा के रूप में जन्म लेकर प्रभु श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं का आनंद उठाओगे। यह कथा सुनाकर श्रीकृष्ण कहते हैं तो राधे जब तक हमारा बालरूप है अभी तक उन्हें परमानंद मिलेगा। तब राधा कहती हैं कि प्रभु आपकी लीला तो अचरज भरी है। यह कथा सुनकर नारदजी श्रीकृष्ण की स्तुति करने लगते हैं। जय श्रीकृष्णा।
 
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा
 

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