निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 13 जुलाई के 72वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 72 ) में श्रीकृष्ण का द्वारिका नगरी में भव्य स्वागत, धृतराष्ट्र और जरासंध को श्रीकृष्ण के जीवित होने के समाचार मिलने के बाद शकुनि द्वारा पांडवों की मारने की साजिश रचना और श्रीकृष्ण द्वारा बलराम को पांडवों को अग्निकांड में जलाकर मारने की बात बताना। इसके बाद श्रीकृष्ण कहते हैं कि मैं देख रहा हूं इस समय कि भीष्म पितामह महाराज धृतराष्ट्र को समझा रहे हैं कि वो पुत्र मोह में पांडवों के साथ अन्याय ना करें।
भीष्म पितामह धृतराष्ट्र को कहते हैं कि अब सभी राजकुमार अपनी शिक्षा पूर्ण करके हस्तिनापुर लौट रहे हैं। मेरा विचार है कि उनके राजधानी पहुंचने के पूर्व युवराज पद की घोषणा भी कर देना चाहिए। क्योंकि सारे राज्य में यही चर्चा का विषय है कि महाराज धृतराष्ट्र अपने पुत्रों को युवराज बनाएंगे या अपने भाई के पुत्र को? राज्य के सामंतों में भी अलग-अलग गुट बन रहे हैं इसलिए घोषणा अभी कर दी जाए तो उचित होगा, अन्यथा देर की गई तो भाई-भाई में युद्ध की संभावना हो सकती है।...धृतराष्ट्र कहते हैं कि मेरे मन में अभी इसको लेकर दुविधा है।
फिर एक राजसभा में धृराष्ट्र की आज्ञा से विदुर सभा को बताते हैं कि हस्तिनापुर के राजकुमार शिक्षा ग्रहण करके लौट रहे हैं इसलिए महाराज धृतराष्ट्र ने यह निर्णय लिया है कि आज वे इस राजसभा में हस्तिनापुर के युवराज के नाम की घोषणा करेंगे ताकि युवराज का उचित सम्मान और स्वागत करे सकें। ऐसा कहकर विदुर अपने स्थान पर बैठ जाते हैं।
शकुनि कहता है कि क्षमा करें महाराज, किसी निर्णय की घोषणा करने के पहले सबको अपना-अपना मत व्यक्त करने का अवसर दिया जाए कि दुर्योधन और युधिष्ठिर दोनों में से कौन इसका अधिकारी है। ऐसी परिस्थिति में सभी सभासदों का मत जानना आवश्यक है। शकुनि के समर्थक उसकी बात का समर्थन करते हैं और कहते हैं कि हम सबका मत ये है महाराज कि किसी के भी दबाव में आकर आपको राजकुमार दुर्योधन के साथ अन्याय नहीं करना चाहिए।
तब धृतराष्ट्र कहते हैं कि जिन सभासदों ने राजकुमार दुर्योधन के पक्ष में आवाज उठाई है हम उनके मत का आदर करते और यह आश्वासन देते हैं कि हम स्वयं भी राजकुमार दुर्योधन के प्रति कोई अन्याय नहीं करना चाहते हैं और ना ही हम ये चाहते हैं कि राजकुमार युधिष्ठिर के अधिकार को कोई क्षति पहुंचे। युवराज कौन है इस बात का निर्णय हमारे पूर्वजों ने भी सदा जनता का मत जानकर ही किया था। हमने भी यह निश्चय किया है कि हस्तिनापुर का युवराज राजसभा के मत से नहीं बलिक साधारण जनता के मत से चुना जाएगा। हमारे राज्य के गुप्तचरों की सूचना के अनुसार हमारी जनता का बहुमत राजकुमार युधिष्ठिर के पक्ष में है। इसलिए जनता के निर्णय को शीरोधार्य करने पर विवश होकर हम आज इस राजसभा में घोषणा करते हैं कि आज से हस्तिनापुर साम्राज्य के युवराज पांडुपुत्र राजकुमार युधिष्ठिर होंगे। यह सुनकर शकुनि चौंक जाता है और महाराज धृतराष्ट्र सभा से उठकर चले जाते हैं।
विदुर यह खबर पांडवों की माता कुंती को सुनाते हैं और बताते हैं कि जनता के दबाव में आकर महाराज धृतराष्ट्र ने राजकुमार युधिष्ठिर को युवराज घोषित कर दिया है। इस पर माता कुंती प्रसन्न होकर कहती हैं कि मुझे तो लगता है कि यह सब श्रीकृष्ण की कृपा है।
उधर, श्रीकृष्ण और बलराम के पास नारदजी पहुंचते हैं और बताते हैं कि तीनों लोकों में आपकी नगरी की चर्चा हो रही है प्रभु। तब श्रीकृष्ण कहते हैं इसलिए हमने इसे चार धामों से एक धाम और सात पुरियों में से एक पुरी का पद प्रदान किया है।...फिर नारदजी कहते हैं कि प्रभु आप विवाह कब करेंगे? यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं दाऊ भैया के पहले मैं कैसे विवाह कर सकता हूं, परिवेत्ता कहलाऊंगा। इस पर नारदजी कहते हैं कि दाऊ भैया कि चिंता आप न करें प्रभु। आपकी होने वाली भाभी इस समय पृथ्वी लोक की ओर ही आ रही है उनके स्वागत की तैयारियां कीजिये। तब श्रीकृष्ण पूछते हैं कौन आ रहा है और कब आ रहा है?
यह सुनकर नारदजी कहते हैं सबकुछ जानते हुए भी मुझी से पूछते हैं तो सुनिये, जब में ब्रह्मालोक पहुंचा तो मैंने देखा कि आनतनंदन सम्राट रैवत के पुत्र महाराज कुकुदनी अपनी पुत्री रेवती के साथ ब्रह्मलोक चले गए। जब वे वहां पहुंचे तो उसी समय मैं भी वहां पहुंचा और देखा कि ब्रह्माजी की सभा में संगीत गोष्ठी चल रही थी।
संगीत सभा समाप्त होने के बाद ब्रह्माजी की नजरें उनकी ओर जाती है तो वे कहते हैं आओ वत्स। कहो मृत्युलोक से यहां तक आने का कारण क्या है? तब महाराज ककुदनी उन्हें प्रणाम करके कहते हैं कि हे पितामह मेरी ये पुत्री यज्ञकुंड से उत्पन्न हुई है इस दिव्य कन्या के योग्य कोई भी वर मुझे सारी पृथ्वी में दिखाई नहीं दिया। इसलिए आपकी सेवा में यह पूछने आया हूं कि इसके लिए योग्य वर किस लोक में मिलेगा और वो कौन है?
तब ब्रह्माजी कहते हैं कि इसका वर तुम्हें पृथ्वी लोक में ही मिलेगा। यह सुनकर राजा कहते हैं परंतु पितामह वहां तो कोई भी राजकुमार या राजा मुझे दिखाई नहीं दिया। यह सुनकर ब्रह्माजी कहते हैं कि तुम जिस राजकुमार और राजाओं की बात कर रहे हो उनमें से कोई भी इस समय जीवित नहीं है। यह सुनकर राजा कुकुदनी कहते हैं मैं समझा नहीं पितामह।
तब ब्रह्माजी कहते हैं वत्स मृत्युलोक और ब्रह्मलोक के काल की गति अलग-अलग होती है। धरा पर काल इतना शीघ्रगामी होता है कि ब्रह्मलोक के एक दिन में पृथ्वी पर कई चतुर्युग बित जाते हैं। सो ब्रह्मलोक में तुमने जो क्षण बिताएं हैं उतने में पृथ्वी पर तीन युग बित गए हैं। यह सुनकर राजा चौंक जाता है।....राजन अब और देर ना करो शीघ्रता से पृथ्वी पर लौट जाओ, तुम्हारे जाने तक वहां द्वापर युग का अंत होने वाला है। उस समय भगवान शेषनाग मनुष्य रूप में अवतार लेकर श्रीकृष्ण के साथ धरती पर लीला कर रहे होंगे। तुम्हारी पुत्री रेवती वास्तव में भगवान शेषनाग की पत्नी और नित्य सहचरी देवी नाग लक्ष्मी के अंश से ही मृत्युलोक में अपने पति भगवान अनंत की सेवा में प्रकट हुई है। आप इस कन्या का हाथ उनके हाथ में देकर न केवल अपने उत्तरदायित्व से मुक्त हो जाएंगे वरन प्रभु की कृपा से मोक्ष की प्राप्ति होगी।
यह बातें बताकर नारदजी कहते हैं ब्रह्माजी से सुनकर मैं आपके पास चला आया हूं। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि आपसे ये समाचार सुनकर मेरा तो रोम-रोम प्रफुल्लित हो गया है मुनिवर।...नारायण-नारायण कहते हुए नारदमुनि अंतरिक्ष की ओर देखते हैं तो उन्हें महाराज कुकुदनी और रेवती दिखाई देती हैं तो वे कहते हैं उधर देखिये महाप्रभु अनंत लोकों की यात्रा करते हुए आपकी भाभी और उनके पिता आ रहे हैं। अब आप और दाऊ भैया इनके स्वागत की तैयारियां करिये..मैं तो चला...नारायण-नारायण।
उधर, कृष्ण और बलराम सुंदर से उद्यान में टहल रहे होते हैं तभी उन्हें आकाश में महाराज ककुदनी और रेवती नजर आते हैं। फिर राजा ककुदनी दोनों को प्रणाम करके बताते हैं कि ब्रह्मा ने आप दोनों का रहस्य बता दिया है और मैं सतयुग में पैदा हुआ महाराज रैवत का पुत्र ककुदनी हूं और ये मेरी पुत्री यज्ञकुंड से जन्मी हैं। ब्रह्माजी ने ये आदेश दिया है कि मैं अपनी ये पुत्री रेवती शेष भगवान को प्रदान करूं। क्योंकि ये आपकी नित्य सहचरी देवी नागमणि के अंश से ही उत्पन्न हुई है। सो मेरी इस पुत्री का पाणिग्रहण करके मुझे कृतार्थ करें। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे सूर्यवंश से उत्पन्न महाराज आपके बारे में नारदजी ने हमें पहले ही सूचना दे दी थी। हम दोनों आपकी ही प्रतीक्षा ही कर रहे थे। इसलिए मैं अपने अग्रज दाऊ भैया कि ओर से इस संबंध को स्वीकार करता हूं।
फिर महाराज ककुदनी अपनी पुत्री का हाथ बलराम के हाथों में सौंप देते हैं। बलराम कहते हैं कि मैं आपको वचन देते हूं कि अपने सुख, ऐश्वर्य और वैभव में इनको बराबर का भागिदार बनाऊंगा, ये मेरे घर की स्वामिनी होंगी और हमारी गृहस्थी का सारा व्यापार इनकी इच्छा के अनुकूल ही होगा।...फिर महाराज दोनों को आशीर्वाद देकर तपस्या करने चले जाते हैं।...फिर बलराम और रेवती का विधिवत रूप से विवाह होता है और नगर में इस विवाह उत्सव की धूम रहती है।
पर्वतराज हिमालय की दो चोटियां को आज भी नर और नारायण कहा जाता है। यहां पर सतुयग में नर और नारायण ने तपस्या करते की थी। श्रीमद्भागवत महापुराण के दूसरे स्कंध के सातवें अध्याय में लिखा है कि यहीं पर बहुत समय पहले सतयुग में नर और नारायण नाम दो महात्माओं ने बद्रीकावन के समीप गंधमादन पर्वत पर कई हजार वर्ष की तपस्या की थी। ये दिव्य स्थान बद्रीनाथ धाम के निकट ही है। श्रीवामन पुराण के छठे अध्याय में कहा गया है कि ब्रह्माजी ने अपने हृदय से धर्म को उत्पन्न किया था। ये दोनों धर्म के ही पुत्र थे। श्रीमद् देवी भागवत पुराण के चौथे स्कंध में भी नर और नारायण की तपस्या का वर्णन किया गया है। उनकी एक हजार साल की तपस्या से उनके भीतर अनेकों गोचर और अगोचर शक्तियों का विकास होने लगा। नर और नारायण की अत्यंत कठोर तपस्या के कारण देवलोक में इंद्र का आसन डोलने लगा। जय श्रीकृष्णा ।