द्वितीयोऽध्यायः (संस्कृत में)

(कथा मूल संस्कृत में हिन्दी अनुवाद सहित)

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सूत उवा च
अथान्यत्संप्रवक्ष्यामि कृतं येन पुरा द्विज ।
कश्चित्‌ काशीपुरे रम्ये ह्यासीद्विप्रोऽतिनिर्धनः ॥1॥

क्षुत्तृड्भ्यां व्याकुलो भूत्वा नित्यं बभ्राम भूतले ।
दुःखितं ब्राह्मणं दृष्ट्वा भगवान्ब्राह्मणप्रियः ॥2॥

वृद्धब्राह्मणरूपस्तं पप्रच्छ द्विजमादरात्‌ ।
किमर्थं भ्रमसे विप्र महीं नित्यं सुदःखितः
तत्सर्वं श्रोतुमिच्छामि कथ्यतां द्विजसत्तम ॥3॥

सूतजी ने कहा- इस व्रत को पहले किसने किया? अब मैं आपको सुनाता हूँ। बहुत रमणीय काशीपुरी में एक निर्धन ब्राह्मण रहता था। वह भूख-प्यास से दुखित यहाँ-वहाँ भटकता रहता था। इस ब्राह्मण को दुःखी देख एक दिन भगवान ने स्वयं एक बूढ़े ब्राह्मण का वेश धारण कर, इस ब्राह्मण से आदर के साथ प्रश्न किया। हे विप्र! तुम सदा ही दुःखी रह पृथ्वी पर क्यों भटकते रहते हो। मैं यह जानना चाहता हूँ।

ब्राह्मण उवा च
ब्राह्मणोऽति दरिद्रोऽहं भिक्षाथं वै भ्रमे महीम्‌ ॥4॥
उपायं यदि जानासि कृपया कथय प्रभो ।

वृद्धब्राह्मण उवा च
सत्यनारायणो विष्णुर्वांछितार्थफलप्रदः ॥5॥

तस्य त्वं पूजनं विप्र कुरुष्व व्रतमुत्तमम्‌ ।
यत्कृत्वा सर्वदुखेभ्यो मुक्तो भवति मानवः ॥6॥

विधानं च व्रतस्यापि विप्रायाभाष्य यत्नतः ।
सत्यनारायणो वृद्धस्तत्रैवान्तरधीयत्‌ ॥7॥

तद्व्रतं संकरिष्यामि यदुक्तंब्राह्मणेन वै ।
इति संचिंत्य विप्रोऽसौ रात्रौ निद्रां न लब्धवान्‌ ॥8॥

निर्धन ब्राह्मण ने उत्तर दिया कि वह अत्यंत निर्धन ब्राह्मण है। और भिक्षा के लिए पृथ्वी पर भटकता है। अगर आप इस निर्धनता को मिटाने का उपाय जानते हों तो कृपया बताएँ। बूढ़े ब्राह्मण ने कहा कि सत्यनारायण स्वरूप विष्णु, मन चाहा फल देते हैं। अतः विप्र तुम उनका उत्तम व्रत-पूजन करो। ऐसा व्रत-पूजन करने से मनुष्यों के सब दुःख दूर हो जाते हैं।

सत्य व्रत का विधान ठीक तरह बताकर वृद्ध ब्राह्मण बनकर आए भगवान सत्यनारायण अंतर्ध्यान हो गए। निर्धन ब्राह्मण ने कहा कि वह बूढ़े ब्राह्मण द्वारा बताया व्रत करेगा। इसी विचार के कारण उसे रात्रि में नींद नहीं आई।

ततः प्रातः समुत्थाय सत्यनारायणव्रतम्‌ ।
करिष्य इति संकल्प्य भिक्षार्थमगमद् द्विजः ॥9॥

तस्मिन्नेव दिने विप्रः प्रचुरं द्रव्यमाप्तवान्‌ ।
तेनैव बन्धुभिः सार्धं सत्यस्य ब्रतमाचरत्‌ ॥10॥

सर्वदुःखविनिर्मुक्तः सर्वसंपत्समन्वितः ।
बभूव स द्विजश्रेष्ठो व्रतस्यास्य प्रभावतः ॥11॥

ततः प्रभृति कालं चम मासि व्रतं कृतम्‌ ।
एवं नारायणेवेकतिम व्रतं कृत्वा द्विजोत्तमः ॥12॥

सर्वपापविनिर्मुक्तो दुर्लभं मोक्षमाप्तवान्‌ ।
व्रतमस्य यदा विप्राः पृथिव्यां संकरिष्यति ॥13॥

दूसरे दिन वह यह संकल्प लेकर कि मैं श्री सत्यनारायण का व्रत करूँगा भिक्षा माँगने निकला। उस दिन भिक्षा में निर्धन ब्राह्मण को बड़ी मात्रा में दान प्राप्त हुआ। इसी धन से ब्राह्मण ने अपने बंधु-बांधव सहित श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत किया। व्रत के प्रभाव से दुःख से मुक्ति पाकर वह सम्पत्तिवान हो गया। तब से वह ब्राह्मण हर माह सत्यनारायण व्रत करता रहा। सब पापों से मुक्त हो, मोक्ष को प्राप्त हुआ।

तदैव सर्वदुःखं तु मनुजस्य विनश्यति ।
एवं नारायणेनोक्तं नारदाय महात्मने ॥14॥

मया तत्कथितं विप्राः किमन्यत्कथयामि वः ।

ऋषयः उवा च
तस्माद्विप्राच्छुतं केन पृथिव्यां चरितं मुने ।
तत्सर्वं श्रोतुमिच्छामः श्रद्धाऽस्माकं प्रजायते ॥15॥

सूत उवा च
श्रृणुध्वं मुनयः सर्वे व्रतं येन कृतं भुवि ।
एकदा स द्विजवरो यथाविभवविस्तारै ॥16॥

बन्धुभिः स्वजनैः सार्धं व्रतं कर्तुं समुद्यतः ।
एतस्मिन्नंतरे काले काष्ठक्रेता समागमत्‌ ॥17॥

हे विप्र! पृथ्वी पर जो कोई भी इस व्रत को करेगा, उसके सभी दुःख नष्ट होंगे। श्रीमन्‌ नारायण ने यही श्री नारदजी से कहा था। श्री सूतजी बोले यह सब तो मैंने कहा अब और क्या बोलूँ। तब ऋषिगण बोले कि इस ब्राह्मण से सुनकर यह सत्यव्रत और किसने किया है। यह जानने की हमारी इच्छा है। सूतजी बोले- अच्छा ऋषियों अन्य जिन लोगों ने यह व्रत किया, उनके बारे में सुनो। यही ब्राह्मण पर्याप्त धन आ जाने के कारण एक बार सत्यनारायण का व्रत कर रहा था कि एक लकड़हारा आया।

बहिःकाष्ठं च संस्थाप्य विप्रस्य गृहमाययौ ।
तृष्णाया पीडितात्मा च दृष्ट्वा विप्रं कृतव्रतम्‌ ॥18॥

प्रणिपत्य द्विजं प्राह किमिदं त्वया ।
कृते किं फलमाप्नोति विस्तराद्वद मे प्रभो ॥19॥

विप्र उवा च
सत्यनारायणेस्येदं व्रतं सर्वेप्सितप्रदम्‌ ।
तस्य प्रसादान्मे सर्वं धनधान्यादिकं महत्‌ ॥20॥

तस्मादेतद्व्रतं ज्ञात्वा काष्ठक्रेताऽतिहर्षितः ।
पपौ जलं प्रसादं च भुक्त्वा च नगरं ययौ ॥21॥

लकड़ी का बोझा बाहर रख प्यास मिटाने वह ब्राह्मण के घर में गया। उसने ब्राह्मण को व्रत करते देखा। ब्राह्मण को प्रणाम कर उस लकड़हारे ने पूछा कि हे प्रभो! आप क्या कर रहे हैं? इस पूजन का क्या फल है? विस्तारसे कहें। ब्राह्मण ने उत्तर दिया कि मनवांच्छित सभी फलों को देने वाला यह सत्यनारायण का व्रत है। इन्हीं की कृपा से मेरा यह धन-धान्य है। यह जान लकड़हारा बहुत प्रसन्न हुआ और प्रसाद ले, जल पी, लकड़ी बेचने शहर में चला गया।

सत्यनारायणंदेवं मनसाऽसौचिन्तयतं ।
काष्ठंविक्रयतो ग्रामे प्राप्यते चाद्ययद्धनम्‌ ॥22॥

तेनैव सत्यदेवस्य करिष्ये व्रतमुत्तमम्‌ ।
इति संचिन्त्य मनसा काष्ठं धृत्वा तु मस्तके ॥23॥

जगामनगरे रम्ये धनिनां यत्र संस्थितिः ।
तद्दिने काष्ठमूल्यं च द्विगुणं प्राप्तवानसौ ॥24॥

ततः प्रसन्नहृदयः सुपक्वं कदलीफलम्‌ ।
शर्कराघृतदुग्धं च गौधूमस्य च चूर्णकम्‌ ॥25॥

लकड़ी का बोझा सिर पर लेकर उसने विचार किया कि इन लकड़ियों के बेचने पर आज जो धन मिलेगा, उससे वह सत्यनारायण का पूजन करेगा। वह सत्यनारायण का उत्तम व्रत करेगा यह मन में विचार कर लकड़हारे ने लकड़ी का बोझ सिर पर धारण किया और निकल पड़ा। वह धनवान लोगों की बस्ती में गया, जहाँ उसे अपनी लकड़ियों की दूनी कीमत मिली। तब वह प्रसन्न होकर पके केले, शकर, घी, दूध और गेहूँ का आटा सवाया बनवाकर अपने घर ले आया।

कृत्वैकत्र सपादं च गृहीत्वा स्वगृहं ययौ ।
ततो बन्धून्‌ समाहूय चकार विधिना व्रतम्‌ ॥26॥

तद्व्रतस्य प्रभावेण धनपुत्रान्वितोऽभवत्‌ ।
इह लोके सुखं भुक्त्वा चांते सत्यपुरं ययौ ॥27॥

वहाँ अपने भाई-बंधुओं के साथ मिलकर विधिपूर्वक व्रत किया। व्रत के प्रभाव से वह पुत्रवान, धनवान बना और इस लोक में सुख भोगकर अंत में सत्यनारायण के लोक में गया।

॥ इति श्रीस्कन्द पुराणे रेवाखण्डे ॥
सत्यनारायण व्रत कथायां द्वितीयोऽध्यायः समाप्तः
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