प्रसंग : गुरु गोविंदसिंहजी का एक शिष्य

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- श्री कृष्णचन्द्र तिवारी 'राष्ट्रबंधु'

लाहौर में एक बहुत अनुभवी चिकित्सक रहता था। वह श्री गुरु गोविंदसिंहजी के दर्शन करने आनंदपुर आया। गुरुजी ने उसे गुरुमंत्र दिया- जाओ, दुखियों की सेवा करो, सुख पाओगे। 
 
वह रोपड़ जाकर चिकित्सा करने लगा। जिस समय कोई बीमार आता तभी वह सेवा समझकर बड़े प्रेम के साथ दवाई करता था।
 
एक दिन सवेरे बैठा हुआ वह जपुजी साहब का पाठ कर रहा था। गुरुजी आनंदपुर से चलकर उसके सामने जाकर बैठे रहे। उनका शिष्य ध्यान में इतना लीन था कि वह गुरुजी के आगमन को जान नहीं सका। 
 
किसी ने उसी समय बाहर से आवाज दी- चिकित्सकजी! फलां आदमी बीमार है, चलो उसका इलाज करो।
 
ध्यान छूटा, पाठ छूटा और सामने गुरुजी थे। दोनों में से किसको छोडूं? इसका निर्णय करने में उसने गुरुजी के पूर्व कथन पर विचार किया- 'दुखियों की सेवा करना सबसे पहला काम है। इस सेवा का ही फल है कि आज गुरुजी मेरे पास आए हैं।'
 
उसने जाने का निश्चय किया और चला गया। रोगी को दवा देकर वापस आया। गुरुजी को प्रतीक्षा करनी पड़ी थी जिसके लिए उसने चरणों में गिरकर माफी मांगी। 
 
गुरुजी ने शिष्य को गले लगा लिया और कहा- 'बस दुखियों की सेवा ही गुरु को खुश करती है।' 

साभार- देवपुत्र
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