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जानिए सम्राट विक्रमादित्य के नवरत्न

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उज्जयिनी के राजा विक्रमादित्य के साथ उनके नवरत्नों को जानने की जिज्ञासा सहज स्वाभाविक है।  सम्राट विक्रमादित्य के नवरत्नों के नाम धन्वंतरि, क्षपणक, अमरसिंह, शंकु, बेताल भट्ट, घटखर्पर, कालिदास, वराहमिहिर और वररुचि कहे जाते हैं। इन नवरत्नों में उच्च कोटि के विद्वान, श्रेष्ठ कवि, गणित के प्रकांड विद्वान और विज्ञान के विशेषज्ञ आदि सम्मिलित थे। इन नवरत्नों की योग्यताओं का गुणगान संपूर्ण भारतवर्ष में हुआ है। माना जाता है कि नवरत्न रखने की परंपरा राजा विक्रमादित्य से ही शुरू हुई थी।




(1) धन्वंतरि
 
हमारे साहित्य में तीन धन्वंतरियों का उल्लेख मिलता है। दैविक, वैदिक और ऐतिहासिक। दैविक धन्वंतरि के विषय में कहा गया है कि वे रोगपीड़ित देवताओं की चिकित्सा करते हैं। उनसे संबंधित अनेक कथाएं प्राप्त होती हैं। 
 
आयुर्वेद साहित्य में प्रथम धन्वंतरि आदि वैद्य माने जाते हैं। इतिहास में दो धन्वंतरियों का वर्णन आता है। प्रथम वाराणसी के क्षत्रिय राजा दिवोदास और द्वितीय वैद्य परिवार के धन्वंतरि। दोनों ने ही प्रजा को अपनी वैद्यक चिकित्सा से लाभा‍न्वित किया। भावमिश्र का कथन है कि सुश्रुत के शिक्षक धन्वंतरि शल्य चिकित्सा के विशेषज्ञ थे। सुश्रुत गुप्तकाल से संबंधित थे। अत: स्पष्ट है कि विक्रमयुगीन धन्वंतरि अन्य व्यक्ति थे। इतना अवश्य है कि प्राचीनकाल में वैद्यों को धन्वंतरि कहा जाता होगा। इसी कारण दैविक से लेकर ऐतिहासिक युग तक अनेक धन्वंतरियों का उल्लेख मिलता है। 
 
शल्य तंत्र के प्रवर्तक को धन्वंतरि कहा जाता था। इसी कारण शल्य चि‍कित्सकों का संप्रदाय धन्वंतरि कहलाता था। शल्य चि‍कित्सा में निष्णात वैद्य धन्वंतरि उपाधि धारण करते होंगे। वैक्रम धन्वंतरि भी शल्य चिकित्सक होंगे। वे विक्रमादित्य की सेना के प्रमुख चिकित्सक होंगे जिससे विक्रमादित्य को शकों के विरुद्ध अभियान में सफलता मिली होगी। 
 
धन्वंतरि द्वारा लिखित ग्रंथों के ये नाम मिलते हैं- रोग निदान, वैद्य चिंतामणि, विद्याप्रकाश चिकित्सा, धन्वंतरि निघण्टु, वैद्यक भास्करोदय तथा चिकित्सा सार संग्रह। 


 

(2) क्षपणक
 
विक्रम की सभा का द्वितीय रत्न क्षपणक के नाम से कहा गया है। हिन्दू लोग जैन साधुओं के लिए 'क्षपणक' नाम का प्रयोग करते थे। दिगम्बर जैन साधु नग्न क्षपणक कहे जाते थे। मुद्राराक्षस में भी क्षपणक के वेश में गुप्तचरों की स्‍थिति कही गई है। महाक्षपणक और क्षपणक नामक लेख में श्री परशुराम कृष्ण गोड़े ने अनेकार्थध्वनिमंजरी नामक कोश के रचयिता को क्षपणक माना है। इस ग्रंथ का समय 800 से 900 ईस्वी का माना जाता है। 


 
 

(3) शंकु
 
नवरत्नों की गणना में शंकु का नाम उल्लेखनीय है। 'ज्योतिर्विदाभरण' के अतिरिक्त शंकु का उल्लेख अन्यत्र प्राप्त नहीं होता। प्रकीर्ण पद्यों में शंकु का उल्लेख शबर स्वामी के पुत्र के रूप में हुआ है। शबर स्वामी की क्षत्रिय, वैश्य, ब्राह्मण और शूद्र जाति की एक-एक पत्नी थी। उनकी क्षत्रिय पत्नी से वराहमिहिर, वैश्य पत्नी से भर्तृहरि और विक्रमादित्य, ब्राह्मण पत्नी से हरीशचन्द्र वैद्य और शंकु तथा शूद्र पत्नी से अमरसिंह का जन्म हुआ। शबर स्वामी शबरभाष्य के र‍चयिता थे।
 
शंकु को विद्वान मंत्रवादिन, कुछ विद्वान रसाचार्य और कुछ विद्वान इन्हें ज्योतिषी मानते हैं। वास्तव में शंकु क्या थे, यह बताना अभी असंभव है। 'ज्योतिर्विदाभरण' के एक श्लोक में इन्हें कवि के रूप में चित्रित किया गया है। किंवदंतियों में इनका चित्रण स्त्री रूप में हुआ है। विक्रम की सभा के रत्न होने के कारण इनकी साहित्यिक विद्वता का परिचय अवश्य मिलता है।


 
 

(4) वेताल भट्ट
 
विक्रमादित्य के रत्नों में वेताल भट्ट के नामोल्लेख से आश्चर्य होता है कि एक व्यक्ति का नाम वेताल भट्ट अर्थात भूत-प्रेत के पंडित कैसे हो गया? इनका यथार्थ नाम यही था या अन्य कुछ विदित नहीं हो पाया है। भूत-प्रेतादि की रोमांचक कथाओं के मध्य वेताल भट्ट की ऐतिहासिकता प्रच्छन्न हो गई है। विक्रमादित्य और वेताल से संबंधित अनेक कथाएं मिलती हैं। 
 
प्राचीनकाल में भट्ट अथवा भट्टारक, उपाधि पंडितों की होती थी। वेताल भट्ट से तात्पर्य है भूत-प्रेत-पिशाच साधना में प्रवीण व्यक्ति। प्रो. भट्टाचार्य के मत से संभवत: वेताल भट्ट ही 'वेताल पञ्चविंशतिका' नामक ग्रंथ के कर्ता रहे होंगे। वेताल भट्ट उज्जयिनी के श्मशान और विक्रमादित्य के साहसिक कृत्यों से परिचित थे। संभवत: इसलिए उन्होंने 'वेताल पञ्चविंशतिका' नामक कथा ग्रंथ की रचना की होगी।
 
वेताल कथाओं के अनुसार विक्रमादित्य ने अपने साहसिक प्रयत्न से अग्निवेताल को वश में कर लिया था। वह अदृश्य रूप से उनको अद्भुत कार्यों को संपन्न करने में सहायता देता था। 
 
वेताल भट्ट साहित्यिक होते हुए भी भूत-प्रेत-पिशाचादि की साधना में निष्णात तथा तंत्र शास्त्र के ज्ञाता होंगे। यह भी संभव है कि वेताल भट्ट आग्नेय अस्त्रों एवं विद्युत शक्ति में पारंगत होंगे तथा कापालिकों एवं तांत्रिकों के प्रतिनिधि रहे होंगे। इनकी साधना शक्ति से राज्य को लाभ होता होगा। विक्रमादित्य ने वेताल की सहायता से असुरों, राक्षसों और दुराचारियों को नष्ट किया होगा। 


 
 

(5) घटखर्पर
 
घटखर्पर के विषय में भी अद्यावधि अल्प सामग्री उपलब्ध है। इनका यह नाम क्यों पड़ा, यह चिंतन का विषय है। इनके विषय में एक किंवदंती प्रचलित है। कहा जाता है कि कालिदास के सहवास से ये कवि बन गए थे। इनकी यह प्रतिज्ञा थी कि जो कवि मुझे यमक रचना में पराजित कर देगा, उसके घर घड़े के टुकड़े से पानी भरूंगा।
 
इनके चरित दो लघुकाव्य उपलब्ध हैं। इनमें से काव्य 22 पद्यों का सुंदर काव्य है, जो संयोग श्रृंगार से ओत-प्रोत है। उसकी शैली, मधुरता, शब्द विन्यास आदि पाठक के हृदय पर वैक्रम युग की छाप छोड़ते हैं। यह काव्य घटखर्पर काव्य के नाम से प्रसिद्ध है। यह दूत-काव्य है। इसमें मेघ के द्वारा संदेश भेजा गया है। 
 
घटखर्पर रचित दूसरा काव्य नीतिसार माना जाता है। इसमें 21 श्लोकों में नीति का सुंदर विवेचन किया गया है। इनके प्रथम काव्य पर अभिनव गुप्त, भरतमल्लिका, शंकर गोवर्धन, कमलाकर, वैद्यनाथ आदि प्रसिद्ध विद्वानों ने टीका ग्रंथ लिखे।


 

(6) वररुचि
 
वररुचि ने 'पत्रकौमुदी' नामक काव्य की रचना की। 'पत्रकौमुदी' काव्य के आरंभ में उन्होंने लिखा है कि विक्रमादित्य के आदेश से ही वररुचि ने पत्रकौमुदी काव्य की रचना की। इन्होंने 'विद्यासुंदर' नामक एक अन्य काव्य भी लिखा। इसकी रचना भी उन्होंने विक्रमादित्य के आदेश से की थी।
 
प्रबंध चिंतामणि में वररुचि को विक्रमादित्य की पुत्री का गुरु कहा गया है। वासवदत्ता के लेखक सुबंधु को वररुचि का भागिनेय कहा गया है, परंतु यह संबंध उपयुक्त प्रतीत नहीं होता। ये वररुचि वैय्याकरण वररुचि से पृथक व्यक्ति थे। 
 
काव्यमीमांसा के अनुसार वररुचि ने पाटलिपुत्र में शास्त्रकार परीक्षा उत्तीर्ण की थी। कथासरित्सागर के अनुसार वररुचि का दूसरा नाम कात्यायन था। इनका जन्म कौशाम्बी के ब्राह्मण कुल में हुआ था। जब ये 5 वर्ष के थे तभी इनके पिता की मृत्यु हो गई थी। ये आरंभ से ही तीक्ष्ण बुद्धि के थे। एक बार सुनी बात ये उसी समय ज्यों-की-त्यों कह देते थे। एक समय व्याडि और इन्द्रदत्त नामक विद्वान इनके यहां आए। व्याडि ने प्रातिशाख्य का पाठ किया। इन्होंने इसे वैसे का वैसा ही दुहरा दिया। व्याडि इनसे बहुत प्रभावित हुए और इन्हें पाटलिपुत्र ले गए। वहां इन्होंने शिक्षा प्राप्त की तथा शास्त्रकार परीक्षा उत्तीर्ण की। 


 

(7) अमरसिंह
 
राजशेखर की काव्यमीमांसा के अनुसार अमरसिंह ने उज्जयिनी में काव्यकार परीक्षा उत्तीर्ण की थी। संस्कृत का सर्वप्रथम कोश अमरसिंह का 'नामलिंगानुशासन' है, जो उपलब्ध है तथा 'अमरकोश' के नाम से प्रसिद्ध है। 'अमरकोश' में कालिदास के नाम का उल्लेख आता है। मंगलाचरण में बुद्धदेव की प्रार्थना है और कोश में बौद्ध शब्द विशेषकर महायान संप्रदाय के पाए जाते हैं। अतएव यह निश्चित है कि कोश की रचना कालिदास और बुद्धकाल के बाद हुई होगी। अमरकोश पर 50 टीकाएं उपलब्ध हैं। यही उसकी महत्ता का प्रमाण है। अमरकोश से अनेक वैदिक शब्दों का अर्थ भी स्पष्ट हुआ है। डॉ. कात्रे ने इन वैदिक शब्दों की सूची अपने लेख 'अमरकोशकार की देन' में दी है। 
बु्द्ध गया के अभिलेख का उल्लेख कीर्न महोदय ने वृहज्जातक की भूमिका में किया है। अभिलेख में लिखा गया है कि विक्रमादित्य संसार के प्रसिद्ध राजा हैं। उनकी सभा में नव विद्वान हैं, जो नवरत्न के नाम से जाने जाते हैं। उनमें अमरदेव नाम का विद्वान राजा का सचिव है। वह बहुत बड़ा विद्वान है और राजा का प्रिय पात्र है। 
 
एक प्रकीर्ण पद्य में अमरसिंह को शबर स्वामी की शूद्र पत्नी का पुत्र कहा गया है। गणक कालिदास ने विक्रमादित्य की सभा के नवरत्नों में अमर का नामोल्लेख किया है। ज्योतिर्विदाभरण के 22वें अध्याय के 8वें श्लोक में अमर को कवि कहा गया है। उनका कोश संस्कृत साहित्य का अनुपम कोश है। 


 
 

(8) वराहमिहिर
 
पं. सूर्यनारायण व्यास के अनुसार विक्रम की सभा के रत्न आदि वराहमिहिर थे। वे ज्योतिष के ज्ञाता थे। वृद्ध वराहमिहिर के रूप में इनका उल्लेख मिलता है। वृद्ध वराहमिहिर विषयक सामग्री अद्यावधि काल के गर्त में छिपी है। वृहत्संहिता, वृहज्जातक आदि ग्रंथों के कर्ता वराहमिहिर गुप्त युग के थे, ऐसा वे मानते हैं। 
 
वराहमिहिर ज्योतिष के प्रकांड विद्वान थे। उन्होंने ज्योतिष विषयक अनेक ग्रंथों का प्रणयन किया। वे ग्रंथ हैं- वृहत्संहिता, वृहज्जातक, समाससंहिता, लघुजातक, पञ्चसिद्धांतिका, विवाह-पटल, योगयात्रा, वृहत्यात्रा, लघुयात्रा। इनमें पञ्चसिद्धांतिका को छोड़कर प्राय: सभी ग्रंथों पर भट्टोत्पल ने टीका ग्रंथों का प्रणयन किया। वराहमिहिर ने अपने ग्रंथों में यवनों के प्रति आदर प्रगट किया है। उन्होंने 36 ग्रीक शब्दों का प्रयोग किया है, परंतु उन शब्दों का रूपांतर संस्कृत में कर प्रयोग किया है। उन्होंने यवन ज्योतिषियों के नामों का भी उल्लेख किया है अत: स्पष्ट है कि ग्रीक से यहां का व्यापारिक संबंध था इसी कारण साहित्यिक आदान-प्रदान हुआ। उनके ग्रंथों में यवनों के उल्लेख की आधारभूमि संभवत: यही है। 


 
 

(9) कालिदास
 
महाकवि कालिदास विक्रमादित्य की सभा के प्रमुख रत्न माने जाते हैं। प्राय: समस्त प्राचीन मनीषियों ने कालिदास की अंत:करण से अर्चना की है। कालिदास का समय अद्यावधि विद्वानों के विवाद का विषय बना है। दीर्घकाल के विमर्श के पश्चात इस संबंध में दो ही मत शेष हैं जिनमें प्रथम मत है प्रथम शताब्दी ईसवी पूर्व का तथा द्वितीय मत है चतुर्थ शताब्दी ईस्वी सन् का। प्रथम शती के पक्ष में विद्वानों का बहुमत है।



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