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पौराणिक कथाओं में महाकुंभ

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श्री गोपालदत्त शास्त्री महाराज जो रामानुज सम्प्रदाय के आचार्य हैं, ने एक लघु पुस्तिका 'कुंभ महात्म्य' के नाम से लिखी है, जिसमें 'कुंभ पर्व की प्रचलित तीन कथाएं'  शीर्षक से जिन कथाओं का उल्लेख किया गया है उनमें सर्वोपरि महत्ता समुद्र-मंथन से सम्बद्ध कथा को मिली है, पर अन्य कथाओं की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती। क्रम यह दिया गया है- 


 
 
* महर्षि दुर्वासा की कथा 
* कद्रू-वी‍निता की कथा 
* समुद्र-मंथन की कथा 
 

महर्षि दुर्वासा की कथा 
पहली कथा इन्द्र से सम्बद्ध है जिसमें दुर्वासा द्वारा दी गई दिव्य माला का असहनीय अपमान हुआ। इन्द्र ने उस माला को ऐरावत के मस्तक पर रख दिया और ऐरावत ने उसे नीचे खींच कर पैरों से कुचल दिया। दुर्वासा ने फलतः भयंकर शाप दिया, जिसके कारण सारे संसार में हाहाकार मच गया। अनावृष्टि और दुर्भिक्ष से प्रजा त्राहि-त्राहि कर उठी। नारायण की कृपा से समुद्र-मंथन की प्रक्रिया द्वारा लक्ष्मी का प्राकट्य हुआ, जिसमें वृष्टि होने लगी और कृषक वर्ग का कष्ट कट गया। 
 
अमृतपान से वंचित असुरों ने कुंभ को नागलोक में छिपा दिया जहाँ से गरुड़ ने उसका उद्धार किया और उसी संदर्भ में क्षीरसागर तक पहुँचने से पूर्व जिन स्थानों पर उन्होंने कलश रखा, वे ही कुंभ स्थलों के रूप में प्रसिद्ध हुए।


कद्रू-वीनिता की कथा 
दूसरी कथा प्रजापति कश्यप की दो पत्नियों के सौतियाडाह से संबद्ध है। विवाद इस बात पर हुआ कि सूर्य के अश्व काले हैं या सफेद। जिसकी बात झूठी निकलेगी वहीं दासी बन जाएगी। कद्रू के पुत्र थे नागराज वासु और विनता के पुत्र थे वैनतेय गरुड़। कद्रू ने अपने नागवंशों को प्रेरित करके उनके कालेपन से सूर्य के अश्वों को ढंक दिया फलतः वीनिता हार गई। दासी के रूप में अपने को असहाय संकट से छुड़ाने के लिए वीनिता ने अपने पुत्र गरुड़ से कहा, तो उन्होंने पूछा कि ऐसा कैसे हो सकता है। कद्रू ने शर्त रखी कि नागलोक से वासुकि-रक्षित अमृत-कुंभ जब भी कोई ला देगा, मैं उसे दासत्व से मुक्ति दे दूंगी। 
 
वीनिता ने अपने पुत्र को यह दायित्व सौंपा जिसमें वे सफल हुए। गरुड़ अमृत कलश को लेकर भू-लोक होते हुए अपने पिता कश्यप मुनि के उत्तराखंड में गंधमादन पर्वत पर स्थित आश्रम के लिए चल पड़े। उधर, वासुकि ने इन्द्र को सूचना दे दी। इन्द्र ने गरुड़ पर चार बार आक्रमण किया और चारों प्रसिद्ध स्थानों पर कुंभ का अमृत छलका जिससे कुंभ पर्व की धारणा उत्पन्न हुई।
 
देवासुर संग्राम की जगह इस कथा में गरुड़ नाग संघर्ष प्रमुख हो गया। जयन्त की जगह स्वयं इन्द्र सामने आ गए। यह कहना कठिन है कि कौन- सी कथा अधिक विश्वसनीय और लोकप्रिय है।


समुद्र-मंथन की कथा 
व्यापक रूप से अमृत- मंथन की उस कथा को अधिक महत्व दिया जाता है जिसमें स्वयं विष्णु मोहिनी रूप धारण करके असुरों को छल से पराजित करते हैं।गरुड़ का संदर्भ भी स्मरणीय है, परन्तु कुल मिलाकर विशेष प्रसिद्धि समुद्र-मंथन की कथा को ही मिली। 
 
दुर्वासा की कथा में भी समुद्र-मंथन का प्रसंग समाहित है। इसलिए भी उनका मूल्य बढ़ जाता है। कश्यप की संततियों का पारम्परिक युद्ध देवासुर-संग्राम जैसा प्रभावी रूप ग्रहण नहीं कर सका यद्यपि उसकी प्राचीनता संदिग्ध नहीं है। गरुड़ की महत्ता विष्णु से जुड़ गई और वासुकि रूप में नागों का संबंध शिव से अधिक माना गया। यहाँ भी शैव-वैष्णव भाव देखा जा सकता है, जो बड़े द्वन्द्वात्मक संघर्ष के बाद अंततः हरिहरात्मक ऐक्य ग्रहण कर लेता है।
 
समुद्र-मंथन और अमृत-कुंभ : समुद्र-मंथन एक ऐसी कथा है जिसके पौराणिक रूप के भीतर जीवन का रहस्य निहित है। उसे सृष्टि-कथा से भिन्न दार्शनिक स्तर पर तत्व कथा कहा जा सकता है। सहस्त्र वर्षों के सुदीर्घ अनुभव को अद्भुत प्रतीकात्मक भाषा प्रदान की गई है, जिसमें द्वन्द्व और संघर्ष की कठोर भूमिका अपनाई गई है। 
 
उसमें मनोगत यथार्थ का शाश्वत रूप भी प्रतिबिम्बित हुआ है। यह कथा महाभारत के अन्तर्गत अध्याय सत्रह और अठारह में दी गई है तथा अनेक पुराण ग्रंथों में वर्णित है। पुराणों की तुलना में महाभारत ने इसके निहितार्थ को आध्यात्मिक रूप दे दिया है।


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