पुतली चित्रलेखा ने कहा, 'सुनो।'
एक बार राजा विक्रमादित्य की इच्छा योग साधने की हुई। अपना राजपाट अपने छोटे भाई भर्तृहरि को सौंपकर अंग में भभूत लगाकर जंगल में चले गए।
उसी जंगल में एक ब्राह्मण तपस्या कर रहा था। देवताओं ने प्रसन्न होकर उस ब्राह्मण को एक फल दिया और कहा, 'जो इसे खा लेगा, वह अमर हो जाएगा। 'ब्राह्मण ने वह फल को अपनी पत्नी को दे दिया। पत्नी ने उससे कहा, 'इसे राजा को दे आओ और बदले में कुछ धन ले आओ।'
ब्राह्मण ने जाकर वह फल राजा को दे दिया। राजा अपनी रानी को बहुत प्यार करता था। उसने वह फल अपनी रानी का दे दिया। रानी का प्रेम शहर के कोतवाल से था। रानी ने वह फल उसे दे दिया।
कोतवाल एक वेश्या के पास जाया करता था। उसने वह फल वेश्या को दे दिया। वेश्या ने सोचा कि, 'मैं अमर हो जाऊंगी तो भी पाप कर्म करती रहूंगी। अच्छा होगा कि यह फल राजा को दे दूं। वह जिएगें तो लाखों का भला करेगें।' यह सोचकर उसने दरबार में जाकर वह फल राजा को दे दिया।
फल को देखकर राजा चकित रह गए। उन्हें सारा भेद मालूम हुआ तो बड़ा दुख हुआ। उसे दुनिया बेकार लगने लगी। एक दिन वह बिना किसी से कहे-सुने राजघाट छोड़कर घर से निकल गए।
राजा इंद्र को यह मालूम हुआ तो उन्होंने राज्य की रखवाली के लिए एक दूत भेज दिया।
इधर जब राजा विक्रमादित्य की योग-साधना पूरी हुई तो वह लौटे। दूत ने उन्हें रोका। विक्रमादित्य ने उससे पूछा तो उसने सब हाल बता दिया।
विक्रमादित्य ने अपना नाम बताया, फिर भी दूत ने उन्हें न जाने दिया। बोला, 'तुम विक्रमादित्य हो तो पहले मुझसे लड़ो।'
दोनों में लड़ाई हुई। विक्रमादित्य ने उसे पछाड़ दिया।
दूत बोला, 'मुझे छोड़ दो। मैं किसी दिन आपके काम आऊंगा।'
इतना कहकर पुतली बोली, 'राजन्!
क्या आप में इतना पराक्रम है कि इन्द्र के दूत को हरा कर अपना गुलाम बना सको?
इस प्रकार दूसरा दिन भी यूं ही निकल गया।
तीसरे दिन तीसरी पुतली चंद्रकला ने सुनाई नई कहानी।