- रमेश दवे शिक्षक की बनाई मूर्ति न पत्थर की होगी, न टेरेकोटा की, न सिरेमिक्स की, न लकड़ी आदि की। उसकी मूर्ति तो जीवन की मूर्ति होगी, ठीक जीवन की तरह गतिशील, भावनामय, संभावनाओं से जुड़ी, काम यानी कर्म और कामना से युक्त, तब जाकर वह कह सकेगा कि उसने ज्ञान को आनंद और प्रेम में बदला है, कर्म को श्रम और संघर्ष में बदला है, उपलब्धि को सुख और संतोष में बदला है।
ऐसा लगता है, जैसे आजादी के बाद की हमारी पूरी तालीम किसी ताबूत में रखी ममी के समान है। उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में जो बड़े-बड़े नाम शिक्षकों के हमारे पास थे, उतना बड़ा एक भी नाम आज नहीं है। रवीन्द्रनाथ, गाँधी, गिजुभाई और विनोबा इनमें से कोई पेशेवर शिक्षक नहीं था लेकिन शिक्षा में जो विचार इन्होंने दिया, जो प्रयोग इन्होंने किए, उनसे ये इतने बड़े शिक्षक बन गए कि पेशेवर शिक्षक भी इनके आगे बौना नजर आने लगा।
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कहा जाता है कि ज्ञान की जो रफ्तार है, उससे एक दिन ऐसा आ जाएगा जब समूचा ब्रह्मांड ज्ञान के समक्ष छोटा लगेगा। ज्ञान ने जिस प्रकार कर्म के साथ समझौता किया है, उससे लगता है कि ज्ञान और कर्म की शिक्षा आज के समय में जिंदा रहने की अनिवार्यता बन गई है। लेकिन रोता तो ज्ञानी भी है और कर्मवादी भी। भावना तो ज्ञानी के पास भी होती है और कर्म के प्रतीक बड़े से बड़े इंजीनियर, डॉक्टर या तकनीकीकर्मी और प्रौद्योगिकीकर्मी के पास भी।
हमारे तमाम शिक्षक जब ज्ञान और कर्म की शिक्षा में स्कूल से लेकर विशेष संस्थानों और विश्वविद्यालयों तक जुड़े हैं, तो फिर भावना और संभावना की शिक्षा कौन देगा? मनोविज्ञान कहता है कि मनुष्य के जीवन के तीन योग होते हैं या उन्हें तीन आयाम या परिक्षेत्र कहा जाता है- ज्ञान का परिक्षेत्र, भावना का परिक्षेत्र और कर्म का परिक्षेत्र।
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गीता में हमारे यहाँ इन्हें तीन योग कहा गया है- ज्ञानयोग, भक्तियोग और कर्मयोग। यदि सबकुछ ज्ञान ही ज्ञान हो गया और सब उद्धव ही उद्धव हो गए तो कृष्ण कौन होगा? सबकुछ कर्म ही कर्म हो गया या कर्म के योग को कुशलता से साध लेना ही योग कहलाने लगा तो जीवन-मरण, सुख-दुःख, क्षोभ और क्षेम जैसे संवेदनों से कौन जोड़ेगा? क्या ऐसे में दया, करुणा, सद्भाव, विनम्रता,क्षमा आदि अनेक मूल्य समाप्त नहीं हो जाएँगे और मनुष्य एक ऐसे क्रूर और हिंसक पशुलोक का निवासी नहीं हो जाएगा, जहाँ ज्ञान और कर्म होने के बावजूद भावना के अभाव में जीवन की समस्त आनंददायी संभावनाएँ समाप्त हो जाएँगी? इस प्रश्न पर कौन शिक्षक या शिक्षाशास्त्री विचार करेगा?
हमारी दुनिया में शिक्षक एक महान मूर्ति की तरह होता है जिसकी पूजा की जा सकती है समय-समय पर, लेकिन अक्सर वह चौराहे पर लगी उपेक्षित मूर्ति के समान होता है। मूर्ति बनने का सबसे बड़ा अभिशाप ही यह है कि उसे उपेक्षित होना पड़ता है। वह केवल उद्घाटन दिवसों की शोभा होती है। इसलिए कोई शिक्षक अगर मूर्ति बनने की कोशिश करता है तो वह जड़ हो जाता है, उपेक्षित होता है और अंततः उसे चौराहे की किसी भी उपेक्षित मूर्ति का दुर्भाग्य ही भोगना होता है।
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उसका काम है कि वह एक मूर्तिकार की तरह उभरे, वह भी आम मूर्तिकार की तरह नहीं। शिक्षक की बनाई मूर्ति न पत्थर की होगी, न टेरेकोटा की, न सिरेमिक्स की, न लकड़ी आदि की। उसकी मूर्ति तो जीवन की मूर्ति होगी, ठीक जीवन की तरह गतिशील, भावनामय, संभावनाओं से जुड़ी, काम यानी कर्म और कामना से युक्त, तब जाकर वह कह सकेगा कि उसने ज्ञान को आनंद और प्रेम में बदला है, कर्म को श्रम और संघर्ष में बदला है, उपलब्धि को सुख और संतोष में बदला है।
आजादी के बाद का शिक्षक कई शब्दों के सही अर्थ भूल गया है। वैसे तो 'स्कूल' शब्द बहुत अच्छा नहीं माना जाता है क्योंकि वह भी किसी न किसी प्रकार की जड़ता, क्रूरता और कठोरता का प्रतीक जैसा माना जाता रहा है। फिर भी भौतिक रूप से हमारे सामने स्कूल है जिसेसमाज, सरकार और बच्चों ने स्वीकारा हुआ है। वह शिक्षा देने का सर्वाधिक श्रेष्ठ और विश्वसनीय स्थल माना गया है।
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भले ही हमारे पुरातन आश्रमों की तरह न हो; न मंदिर, मकतब या चबूतरा-स्कूल की तरह, मगर कैसा भी हो वह भौतिक और मानसिक रूप से हमारे बीच उपस्थित है। इस स्कूल के पीछे की व्यवस्था यानी सरकार अदृश्य है, समाज भी बहुत हद तक अदृश्य है। अगर दृश्य हैं तो दो लोग : बच्चे और शिक्षक।
स्कूल के यथार्थ को झुठलाया नहीं जा सकता। कितना भी अक्षम, रूखा, कठोर, जड़ या शिक्षा के लिए प्रतिकूल हो, मगर स्कूल है और वह रहेगा। जब स्कूल है, तो वह अपशिक्षा का माध्यम क्यों हो? वह मरा हुआ क्यों माना जाए? उसकी नई मूर्ति कौन गढ़ेगा? शिक्षक ही वह काम कर सकता है।
अब शिक्षक ज्ञान की चुनौती और हुनर की चिंता के सामने खड़ा है। शिक्षा ने दुनियाभर में जो वातावरण रचा है, उससे यह तो जाहिर हुआ है कि शिक्षा का संस्थागत मॉडल पिट गया है और स्कूल से लेकर विश्वविद्यालय तक अप्रासंगिक-से लगने लगे हैं। सीखने-सिखाने के माध्यम पर कम्प्यूटर के हेडस्टार्ट हावी हैं। अब बच्चे, किशोर या युवक केवल स्कूल या शिक्षक से ही नहीं सीखते, अब तो वे मशीनों से बातें करते हैं, उन्हें आदेश देते हैं और उनसे अपना हर हुक्म मनवा लेते हैं। मनुष्य पर मशीन हावी है। शिक्षा का भूमंडलीकरण एक प्रकार का भूमंडीकरण बनकर आ गया है, जिसमें शिक्षा बहुराष्ट्रीय बाजार की बड़ी मंडी बनती जा रही है।
गिजुभाई ने यह कोशिश अपने ढंग से की थी। ताराबेन मोडक ने भी की थी। रवीन्द्रनाथ, गाँधी, विनोबा और जाकिर हुसैन साहब ने अपने ढंग से की। लेकिन स्कूल की मूर्ति बदलने या नई बनाने के पहले शिक्षक को अपनी मूर्ति से मुक्त होना होगा।
अब शिक्षक की जरूरत है कहाँ? ज्ञान उपलब्ध है, हुनर का व्यापार है। जब ज्ञान और हुनर दोनों का व्यापार है तो भावना का क्या करें? भावना से किन संभावनाओं की खोज करें? हमारे सामने आतंकवाद है, कट्टरता है, सांप्रदायिकता है, जातिवाद और वर्गवाद है, नफरतें हैं, दंगे-फसाद हैं, स्वार्थ हैं और ये सब मानवीय भावना और संवेदना से जुड़े हैं।
क्या इसे हम शिक्षा की नई संभावना की तरह नहीं देख सकते? अगर हमने भावनाओं की सही शिक्षा दे दी, उनके जाहिर होने की भी और उन पर संयम या नियंत्रण की भी, तो मनुष्य को बेहतर मनुष्य बनाने, मनुष्य का सही मूर्तिकार, जीवंत और गतिवान मूर्तिकार बनने का श्रेय शिक्षक को ही मिलेगा। अब शिक्षक यह स्वयं सोचे कि उसे मूर्ति बनना है या मूर्तिकार?