गुरु शब्द सुनते ही हमारे मस्तिष्क में छवि बनती है उन शिक्षकों की जिनसे हमने स्कूल या कॉलेज में शिक्षा ग्रहण की है। इनके साथ ही गुरु वो भी है जो जिनसे हमें कुछ न कुछ सीख मिले। फिर चाहे वह नन्हा बच्चा ही क्यों न हो। यदि वह भी हमें भटकाव से सही राह पर ले जाए तो वह भी हमारा गुरु ही कहलाएगा।
एकलव्य और द्रोणाचार्य जैसे गुरु-शिष्य के कई उदाहरण हमारे सामने है। विद्यार्थी जीवन में ही नहीं बल्कि जीवन के हर पथ पर हमें कोई न कोई ऐसा व्यक्ति मिलता ही है जो हमारे जीवन में एक सकारात्मक परिवर्तन लाता है। सही अर्थों में देखें तो हम हमारे दोस्तों से भी कुछ न कुछ सीखते हैं। घर में भाई-बहनों से भी कुछ सीख मिलती है। तो वे भी हमारे गुरु ही हुए ना।
वास्तव में आदमी हमेशा ही छात्र बना रहता है। वो नौकरी, पेशा या धंधा कुछ भी करे। उसे हमेशा ही अपनी क्लास, सहपाठी, गुरुओं को पाएगा। साथ बैठे सहकर्मी उसके सहपाठी हैं तो बॉस उसके गुरु और वह खुद अपने जूनियर्स के लिए वह गुरु। यदि हम खेल के क्षेत्र में जाएँगे तो आपके कोच हमारे गुरु की भूमिका निभाएँगे।
संभव ही नहीं कि जीवन में कभी हम अपना छात्र जीवन से नाता तोड़ ले। कभी भी कोई व्यक्ति पूर्ण नहीं होता। उसे किसी न किसी से, कहीं न कहीं कुछ न कुछ सीखना पड़ता है। कभी आपकी संतान, पत्नी, मित्र या सड़क चलता कोई भी आदमी भी आपके लिए गुरु की भूमिका निभाते हैं।
एकलव्य और द्रोणाचार्य जैसे गुरु-शिष्य के कई उदाहरण हमारे सामने है। विद्यार्थी जीवन में ही नहीं बल्कि जीवन के हर पथ पर हमें कोई न कोई ऐसा व्यक्ति मिलता ही है जो हमारे जीवन में एक सकारात्मक परिवर्तन लाता है.....
कल सड़क पर देखा एक बुजुर्ग किसी कोचिंग जा रही लड़की की मदद कर रहे थे। लड़की की गाड़ी का पेट्रोल खत्म हो गया था। उसे अपनी मदद से पेट्रोल पंप तक पहुँचाने की कोशिश कर रहे थे। उनसे भी कुछ सीखने को मिला। मुश्किल में पड़े व्यक्ति की मदद करने का ज़ज्बा। आज कभी हम परेशानी में हों, या घर का कोई सदस्य कहीं परेशानी में फँसा है। तो हम भी यहीं चाहेंगे कि कोई हमारी मदद को आ जाए तो मुश्किल आसान हो जाए।
ऐसे सहयोगपूर्ण माहौल में मुश्किलें-मुश्किलें नहीं रहतीं। तभी तो हम कह सकते हैं कि हाँ, हम समाज में रहते हैं और किसी क्षेत्र या शहर का प्रतिनिधित्व करते हैं।
' अंदर से सहारा दे और बाहर मारे चोट'। जिस प्रकार कुम्हार मिट्टी के घड़े को मजबूत करने के लिए अंदर से सहारा देकर ऊपर से चोट मारता है। उसी प्रकार गुरु की भूमिका बहुत ही चुनौतीपूर्ण होती है। उसे गुरु के साथ-साथ हमारे माता-पिता की भूमिका भी निभानी होती है। इन जिम्मेदारियों के साथ ही हमें शिक्षित और संस्कारवान बनाना भी गुरु की जिम्मेदारी है।
हम पर अपार कृपा बरसाने वाले गुरु बदले में हमसे कुछ नहीं चाहते हैं। उन्हें तो बस हमारी तरक्की और खुशहाली चाहिए। उन्हें जब भी यह खबर लगेगी कि मेरा अमुक छात्र आज इस मुकाम पर पहुँच गया है। तो उन्हें इसी खबर से सारी खुशियाँ मिल जाएँगी लेकिन बदले में इन्हें हम क्या देते हैं। शायद पीठ पीछे पुकारने वाले दिए गए 'निक नेम'। कई बार तो वास्तविक नाम याद करने के लिए दिमाग पर विशेष जोर डालना पड़ता है।
बड़े ही दु:ख की बात है कि कक्षा के मेधावी छात्र भी इस 'बीमारी' से बच नहीं पाते। क्यों पुकारते हो अपने गुरुओं को इन नामों से? एक बात हमेशा यह बात याद रखें। गुरु आखिर गुरु होते हैं। उनके प्रति हमेशा आदर और श्रद्धा का भाव रखिए। जीवन में कभी भी उन्हें याद करेंगे तो आत्मिक सुख मिलेगा। इस शिक्षक दिवस पर इस छोटे से सम्मान की अपेक्षा तो छात्र पीढ़ी से की ही जा सकती है।