कहाँ गए वो दिन

Webdunia
अखिलेश श्रीराम बिल्लौरे

‘सर, मेरा बच्चा पढ़ने में बहुत कमजोर है। यदि आप इसे घर पर ट्यूशन पढ़ा दें तो बहुत अच्छा रहेगा।’ एक अभिभावक ने शिक्षक से कहा।
‘लेकिन, मेरे पास समय नहीं है। वैसे भी स्कूल में अतिरिक्त कक्षा लगा रहे हैं, वहाँ भेज देना।’

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‘परंतु सर, मैं चाहता हूँ कि आप केवल इसे ही समय निकालकर पढ़ाएँ। आपका आशीर्वाद मिलेगा तो अच्छा पढ़ जाएगा।’ शिक्षक ने स्वीकृति दे दी। बच्चा प्रतिदिन जाने लगा। स्कूल में भी वह मन लगाकर पढ़ाई करने लगा। अच्छे नंबरों से पास हो गया। अभिभावक ने दिल खोलकर शिक्षक की तारीफ की और उचित दक्षिणा दी। शिक्षक की पढ़ाई की चर्चा होने लगी। अगले सत्र में और भी अभिभावक आ गए अपने बच्चों को लेकर। कहा- हम आपको एक कक्ष दे देते हैं, उसी में बच्चों को पढ़ाओ। हम अच्छी दक्षिणा देंगे।

शिक्षक का भी अपना परिवार होता है। उसके भी अरमान होते हैं। माता-पिता, भाई-बहन, पुत्र-पुत्रियाँ उसके भी होते हैं। अपनी महीने की सरकारी तनख्वाह को याद कर शिक्षक ने भरे-पूरे परिवार की बेहतर प‍रवरिश के लिए प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। कुछ दिन बाद बच्चों की संख्या में बढ़ोतरी होने लगी। शिक्षक पूरे मनोयोग से उन्हें पढ़ाते। स्कूल में भी उन्होंने पर्याप्त समय दिया।

लेकिन कहते हैं कि किसी की लोकप्रियता सबको नहीं सुहाती। शिक्षक के साथ भी ऐसा ही हुआ। विरोधी सक्रिय हो गए। अखबारों में छप गया- ‍ट्‍यूशनखोर शिक्षक। स्कूल में पढ़ाते नहीं और घर बुलाते हैं बच्चों को। कहीं-कहीं तो पढ़ने में आया कि शिक्षक ने कहा- ट्‍यूशन नहीं आओगे तो फेल कर दूँगा। यानी तरह-तरह के इल्जाम शिक्षकों पर लगने लगे। उस ईमानदार आहत शिक्षक ने ऐलान कर दिया कि मैं ट्यूशन नहीं पढ़ाऊँगा।

अभिभावक निवेदन करने लगे कि आप दुनिया की बातों पर न जाएँ। बच्चों को पढ़ाएँ। मजबूर शिक्षक फिर शुरू हो गए। इसे देख अन्य शिक्षकों के पास भी बच्चों का मेला लगने लगा। लेकिन समाज के कतिपय लोगों को शिक्षकों का इस प्रकार ज्ञान बाँटना ‘धंधा’ लगने लगा। ...और शुरू हो गया शिक्षकों को बदनाम करने का सिलसिला।

समय आगे बढ़ता गया। और इसके साथ-साथ शिक्षक शब्द की गरिमा पर ग्रहण लगता चला गया। इन सबके पीछे कतिपय स्वार्थी तत्वों और सरकारों का भी कम योगदान नहीं रहा। शिक्षकों से अनेक गैर-शिक्षकीय कार्य करवाए जाने लगे। उनकी निगरानी के लिए दूत नियुक्त होने लगे। थोड़ी सी चूक होने पर राई का पहाड़ बनने लगा। शिक्षक विद्यालय में कम दिखने लगे और चर्चा में ज्यादा।

नतीजा शासकीय स्कूलों में पढ़ाई का औसत गिरने लगा। बच्चों की असफलता को शिक्षक की लापरवाही माना जाने लगा। शिक्षकों के साथ दुर्व्यवहार की बाढ़ आने लगी। आए दिन इसके उदाहरण दृष्टिगोचर होते हैं। इस प्रकार की हालत के चलते उधर एक नया संसार भी बनने लगा। ...जगह-जगह निजी स्कूल खुलने लगे। वर्तमान में हालत यह हो गई कि गाँव-गाँव, गली-गली निजी स्कूल नजर आ रहे हैं। उनमें ‘शिक्षक’ की हालत बहुत दयनीय नजर आती है। कहाँ से कहाँ आ गया शिक्षक। यह सोचनीय है।

आज शिक्षक दिवस है। स्कूलों में बच्चे शिक्षकों के लिए तरह-तरह के गिफ्ट लाएँगे। उनकी शान में दो-चार शब्द कहे जाएँगे और शाम होते-होते शिक्षक को आम बना देंगे।

दोस्तों, एक दिन केवल एक दिन शिक्षक की इज्जत करने से अपना कर्तव्य पूरा नहीं हो जाता। आज के दिन हम संकल्प लें कि शिक्षक को उसकी खोई गरिमा लौटाने के लिए कुछ ऐसा करें कि हमारे पूजनीय गुरुजन कह उठें कि शिष्य हों तो ऐसे।

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