महाभारत का वो शि‍क्षक...

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- अरुंधती आमड़ेकर

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भारत का इति‍हास ऋषि‍-मुनि‍यों और गुरुओं की कई महान् गाथाओं से परि‍पूर्ण रहा है। प्राचीन काल से ही व्‍यक्ति‍ के जीवन में गुरु को सबसे अधि‍क महत्‍व दिया जाता रहा है। ईश्वर से भी पहले गुरु को मान दि‍या गया है क्‍योंकि‍ गुरु ही शि‍ष्‍य को ईश्वर का संज्ञान कराता है।

भारत में जि‍तना बड़ा धर्म का इति‍हास रहा है, उतना ही बड़ा इति‍हास अधर्म का भी है। काल कोई भी रहा हो अधर्म हमेशा होता आया है। कल और आज में फर्क इतना है कि‍ कलयुग से पहले हर युग में अधर्म की समाप्ति‍ के लि‍ए अवतार हुए हैं। अधर्म पहले हुआ और अवतार बाद में। ये बात अलग है हर व्‍यक्ति‍ के तर्क की कसौटी पर धर्म और अधर्म अलग-अलग तरीके से उतरता है।

गुरु-शि‍ष्‍य परंपरा का अपमान और उपहास करने वालों की आज भले ही कमी ना हो लेकि‍न हमारे इति‍हास में भी ऐसे गुरुओं की कमी नहीं है जि‍न्‍होंने बड़े ही तर्क पूर्ण तरीके से शि‍क्षा के स्‍तर पर घृणा और अपमान न फैलाया हो। मैं कि‍सी और की बात नहीं कह रही हूँ बल्‍कि‍ मैं बात कर रही हूँ ऐसे द्रोणाचार्य की जि‍नका नाम भारत की पौराणि‍क गाथाओं में बड़े आदर के साथ लि‍या जाता है। मैं बात कर रही हूँ महाभारत में कुरुवंश के राजकुमारों को शि‍क्षा देने वाले, अर्जुन को अपना सबसे प्रि‍य शि‍ष्‍य बताने वाले, उसे महान धनुर्धर बनाने की अधर्म पूर्ण प्रति‍ज्ञा लेने वाले गुरु द्रोणाचार्य की। ऐसे गुरु द्रोणाचार्य की जि‍न्‍होंने एकलव्‍य और कर्ण जैसे पराक्रमी योद्धाओं को उनका सही स्‍थान नहीं मि‍लने दि‍या, जो अर्जुन से कई गुना अधि‍क प्रति‍भाशाली और सामर्थ्‍यवान थे।

भारत में प्रशि‍क्षकों की श्रेणी में दि‍ए जाने वाले पुरस्‍कार का नाम जि‍नके नाम पर रखा गया है मैं उन्‍हें भारत में मनुवाद और ब्राह्मणवाद आने से भी पहले जाति‍ प्रथा को बढ़ावा देने वाला पुरोधा मानती हूँ। द्रोणाचार्य से अधि‍क पूज्‍यनीय और वंदनीय तो कर्ण और एकलव्‍य हैं। कर्ण ने द्रोणाचार्य द्वारा शि‍क्षा ना दि‍ए जाने पर आहत मन से सूर्यदेव को अपना गुरु बनाया और परीक्षा वाले दि‍न समस्‍त हस्‍ति‍नापुर वासि‍यों और कुरुवंश के समक्ष अपने पराक्रम का लोहा मनवाया। एकलव्‍य ने द्रोणाचार्य की प्रति‍मा बनाकर उसके सामने धनुर्वि‍द्या का अभ्‍यास कि‍या और सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बना। बाद में जब गुरुदक्षि‍णा देने की इच्‍छा से जब वह गुरुद्रोण के पास गया तो उन्‍होंने अपने छल की पराकाष्ठा का परि‍चय देते हुए एकलव्‍य से उसका अंगूठा माँगा ताकि‍ वो फि‍र कभी धनुष बाण ना चला सके। क्‍योंकि‍ उन्‍हें पता था कि‍ एकलव्‍य अर्जुन से अधि‍क श्रेष्ठ है। इसके पीछे तो कोई तर्क भी समझ नहीं आता क्‍योंकि‍ गुरुदक्षि‍णा उसे दी जाती है जि‍सने शि‍क्षा दी हो, या जि‍सका शि‍ष्‍यत्‍व प्राप्त हुआ हो। साथ ही गुरुदक्षि‍णा उससे ही ली जाती है जि‍सको शि‍ष्‍य स्‍वीकार कि‍या गया हो। जब गुरु ने शि‍ष्‍यत्‍व की स्‍वीकृति‍ नहीं दी तो गुरु दक्षि‍णा को कि‍स अधि‍कार से स्‍वीकार कि‍या गया? असल में द्रोणाचार्य ऐसे महासागर थे जो बाहर का जल कभी स्‍वीकार नहीं करता। कर्ण और एकलव्‍य उनके लि‍ए बाहर का जल ही थे। वे केवल क्षत्रि‍यों के गुरु थे। उनके हि‍साब से शस्‍त्र वि‍द्या प्राप्त करने का अधि‍कार केवल क्षत्रि‍यों को होना चाहि‍ए। तो क्‍या क्षत्रि‍यों के अलावा अन्‍य को आत्‍मरक्षा का भी अधि‍कार नहीं होना चाहि‍ए?

अर्जुन को सर्वश्रेष्‍ठ धनुर्धर बनाने के पीछे भी द्रोणाचार्य का स्‍वार्थ था। महाभारत की एक कथा के अनुसार एक बार जब द्रोणाचार्य अपने शि‍ष्यों के साथ नदी तट गए थे तो नदी‍ से नि‍कलते समय एक मगर ने उनका पैर मुँह में ले लि‍या था। तब अर्जुन ने उस मगर पर बाणों की वर्षा कर द्रोणाचार्य के प्राणों की रक्षा की थी। अपने शि‍ष्‍य के इस पराक्रम रूपी आभार के बदले उन्‍होंने अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाने की प्रति‍ज्ञा की और घोषणा की, संसार में अर्जुन से श्रेष्ठ धनुर्धर कोई ना होगा। ऐसे छलि‍या गुरु को क्‍या कहा जाए।

स्‍वयं को साबि‍त करने के लि‍ए कर्ण और एकलव्‍य ने सर्वथा भि‍न्‍न मार्ग अपनाए। एक ने गुरु द्वारा की गई अवहेलना को शि‍रोधार्य कि‍या और दूसरे ने उसे चुनौती के रूप में स्‍वीकार कि‍या। एक ने संयम रखा और अपने मन में ति‍रस्‍कार करने वाले अपने गुरु के प्रति‍ कोई कड़वाहट नहीं रखी। श्रेष्ठ धनुर्धर बनकर भी अज्ञात बना रहा, दूसरे ने सबके सामने स्‍वयं को सि‍द्व कर अपने अपमान और ति‍रस्‍कार का बदला लि‍या। दोनों ही दशाओं में द्रोणाचार्य असफल और पराजि‍त हुए एक बार केवल स्‍वयं के सामने और दूसरी बार सबके सामने।

कहते हैं इति‍हास कभी कि‍सी को माफ नहीं करता। हरि‍जन और दलि‍तों के अधि‍कारों के लि‍ए जीवन भर संघर्ष करने वाले नेताओं के इस भारत देश में गुरु द्रोण जैसे शि‍क्षकों से प्रेरणा लेने का कोई औचि‍त्‍य नहीं हैं जबकि‍ यहाँ डॉ. राधाकृष्णन् जैसे उदाहरण मौजूद हैं। जि‍नके प्रति‍ उनके वि‍द्यार्थि‍यों के प्रेम को इस कि‍स्‍से से समझा जा सकता है कि‍ जब वे मैसूर वि‍श्ववि‍द्यालय से कलकत्ता में अध्यापन कार्य के लि‍ए जा रहे थे तो उनके वि‍द्यार्थी फूलों से सजी एक हाथ गाड़ी में उन्‍हें वि‍श्ववि‍द्यालय से स्‍टेशन तक लेकर आए। उस गाड़ी को वि‍द्यार्थी स्‍वयं हाथों से खींचकर स्‍टेशन तक लेकर आए थे।

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