रंगीन टीवी पर काला-पीला जादू

दीपक असीम
विदेशी चैनलों पर पिछले दिनों एक धारावाहिक दिखाया गया। ये धारावाहिक जादू की पोल खोलने वाला था। इसमें बताया गया था कि किस तरह के साजो-सामान की मदद से जादू दिखाए जाते हैं।

पिचानवे प्रतिशत हिस्सा होता है साजो-सामान का और पाँच प्रतिशत जादूगर की लफ्फाजी और उसकी प्रस्तुति...। उस कार्यक्रम को देखना बेहद रोचक था। ये बात और कि देखने वालों के लिए इसके बाद जादू कोई रहस्य न होकर तकनीक आधारित तमाशा बन गया।

लड़की का गायब होना, हवा में लटकना और कई तरह के हैरतअंगेज करतब कुछ तकनीकों पर निर्भर करते हैं। पश्चिम का मीडिया जहाँ अपने दर्शकों को भ्रमों से मुक्त करने का प्रयास करता है वहीं हमारा मीडिया इसमें कोई रुचि नहीं लेता।

हाल ही में स्टार वन पर जादूगरों का एक शो आ रहा है। देश भर से जादूगर खंगाल कर यहाँ पेश किए जा रहे हैं। जादूगर जादू दिखाते हैं और उन्हें अंक दिए जाते हैं। एक तरह से ये जादूगरों की प्रतियोगिता है। ये विचार ही अपने आप में फ्लॉप है। ळळछोटे-मोटे जादू तो अब कोई लाइव देखना ही पसंद नहीं करता, तो टीवी पर कोई क्या देखेगा? जहाँ तक बड़े जादू का सवाल है, लोग यह शंका कर सकते हैं कि टीवी पर क्या पता क्या जोड़-घटाकर दिखाया जा रहा है। जादू का मजा लाइव में है। जिस तरह शास्त्रीय संगीत बजाने वाले बहुत देर तक स्टेज पर तबला ठोककर साज मिलाया करते हैं, उसी तरह जादूगर को भी अपना असर जमाने में वक्त लगता है।

जादू केवल जादू ही नहीं होता, वो कम्पलीट पैकेज होता है। तो टीवी पर ये जादू अच्छा नहीं लग रहा। इसकी बजाय यदि ये लोग जादूगरों का वो साजो-सामान दिखाते, तो अधिक दिलचस्प होता। अब लोग इतने भोले नहीं कि जादू से बहल जाएँ, उन्हें जादू का राज चाहिए।

बच्चों के लिए हर चीज रहस्य होती है, हर चीज जादू। बीज का धरती से फूटना उनके लिए जादू है, पहाड़ों का कोहरे में ढॅँक जाना जादू है, फिर सूरज की किरणों के साथ कोहरे का गायब हो जाना भी जादू है, आसमान से टपकती पानी की बूँदें जादू हैं, इंद्रधनुष का बनना जादू है, दो पहियों की साइकल का बिना गिरे चल जाना जादू है, सुबह होना भी जादू है और सूरज का ढलना भी...।

विस्मय से भरे बच्चे को किसी जादूगर की जरूरत नहीं है। जादू से चकित होना और मनोरंजन करना अलग बात है और बच्चों की विस्मयविमुग्धता बहुत पवित्र, बहुत अलग चीज है। बच्चे तो चौबीसों घंटे मानो जादू की दुनिया में ही रहते हैं। "एलिस इन वंडरलैंड" बहुमूल्य रचना है। हम लोग बड़े होकर किसी भी बात पर चकित नहीं होते। व्यर्थ सूचनाएँ हमें बोथरा बना देती हैं। निदा फाजली कहते हैं -

बच्चों के नन्हे हाथों को चाँद सितारे छूने दो
चार किताबें पढ़ के ये भी हम जैसे हो जाएँगे...।

हमारे चैनल बच्चों जैसे निर्दोष भी नहीं हैं और न ही विदेशी चैनलों जैसे शार्प। वे मति भ्रम का शिकार हैं। ईडियट बॉक्स की उपाधि उनके लिए अकसर सही जान पड़ती है।

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