उन्होंने उत्सुक नजरों से दरबारियों की ओर देखा। सबके चेहरों पर परेशानी के भाव दिखाई दे रहे थे। किसी की भी समझ में नहीं आ रहा था कि ऐसा
कौन-सा उपहार हो सकता है। तभी राजा कृष्णदेव राय को तेनालीराम की याद आई। वह दरबार में ही मौजूद था।
राजा ने तेनालीराम को संबोधित करते हुए पूछा- ‘क्या तुम ला सकते हो ऐसा उपहार जैसा दूत ने मांगा है? ’
‘अवश्य महाराज, दोपहर को जब ये महाशय यहां से प्रस्थान करेंगे, वह उपहार इनके साथ ही होगा ।’
नियत समय पर दूत अपने देश को जाने के लिए तैयार हुआ। सारे उपहार उसके रथ में रखवा दिए गए।
जब राजा कृष्णदेव राय उसे विदा करने लगे तो दूत बोला, ‘महाराज, मुझे वह उपहार तो मिला ही नहीं जिसका आपने मुझसे वायदा किया था ।’
राजा कृष्णदेव राय ने तेनालीराम की ओर देखा और बोले, ‘तेनालीराम, तुम लाए नहीं वह उपहार? ’