तेनालीराम ने पंडित से इस पूजा में आने वाले खर्च के बारे में पूछा। पंडितजी ने उन्हें सौ स्वर्ण मुद्राओं का खर्च बताया।
' लेकिन इतनी स्वर्ण मुद्राएं मैं कहां से लाऊंगा?', तेनालीराम ने पंडितजी से पूछा।
पंडितजी ने कहा, 'तुम्हारे पास जो घोड़ा है, उसे बेचने से जो रकम मिले वह तुम मुझे दे देना।'
तेनालीराम ने शर्त स्वीकार कर ली। पंडितजी ने पूजा-पाठ करके तेनालीराम के ठीक होने की प्रार्थना की। कुछ दिनों में तेनालीराम बिलकुल स्वस्थ हो गए।
लेकिन वे जानते थे कि वे प्रार्थना के असर से ठीक नहीं हुए हैं, बल्कि दवा के असर से ठीक हुए हैं।
तेनालीराम पंडितजी को साथ लेकर बाजार गए। उनके एक हाथ में घोड़े की लगाम थी और दूसरे में एक टोकरी।
उन्होंने बाजार में घोड़े की कीमत एक आना बताई और कहा, 'जो भी इस घोड़े को खरीदना चाहता है, उसे यह टोकरी भी लेनी पड़ेगी जिसका मूल्य है एक सौ स्वर्ण मुद्राएं।'
इस कीमत पर वे दोनों चीजें एक आदमी ने झट से खरीद लीं। तेनालीराम ने पंडितजी की हथेली पर एक आना रख दिया, जो घोड़े की कीमत के रूप में उसे मिला था। एक सौ स्वर्ण मुद्राएं उन्होंने अपनी जेब में डाल ली और चलते बने।
पंडितजी कभी अपनी हथेली पर पड़े सिक्के को, तो कभी जाते हुए तेनालीराम को देख रहे थे ।