आतंकवाद को समझे बगैर ही समाधान खोजना कितना सही?

अनिरुद्ध जोशी
भारत को स्वतंत्र हुए करीब सात दशक हो चुके हैं। मगर कुछ समस्याएं जस की तस हैं। उनमें सबसे बड़ी समस्या आतंकवाद है। अब तक आतंकवाद से लड़ने के लिए देश की किसी भी सरकार ने न तो कोई ठोस योजना बनाई न ही दृढ़ इच्छाशक्ति का प्रदर्शन किया। इस समस्या को समझे बिना ही इसका समाधान खोजने की कोशिश की जाती रही है, जबकि हकीकत में यदि आतंकवाद का खात्मा करना है तो इसके कारणों को ढूंढकर इसकी जड़ पर प्रहार करना होगा।
 
 
दरअसल, हर देश में जो आतंकवाद है उसकी जड़ अलग-अलग है। जहां तक सवाल भारत में किए जा रहे आतंकवादी हमले की बात का है तो उसकी जड़ पाकिस्तान और भारतीय राजनीति में गहरी बैठ हुई है। आप पूछेंगे कि भारतीय राजनीति में कैसे, तो यह कहना होगा कि भारत की राजनीति में एक बड़ा तबका, पाकिस्तान के प्रति दोस्ती और मिल-बैठकर समस्या के समाधान की बात करता है तो दूसरा तबका उसे सबक सिखाने की बात करता है। यह दोनों की मार्ग प्रेक्टिकल नहीं है। जब तक किसी देश की कोई एक ठोस नीति या विचारधानरा नहीं होती है तो वह देश हमेशा कंफ्यूज तो रहता ही है साथ ही उसके निर्णय भी कमजोर हो जाते हैं। ऐसे में शत्रुदेश इस परिस्थित का लाभ उठाते हुए उस देश को भीतर से कमजोर करने लगते हैं। कश्मीर में चरणबद्ध तरीके से ऑपरेशन टोपेक इसीलिए सफल होता गया। लेकिन इन सत्तर दशक में हमारी सरकार ने कभी भी इस ऑपरेशन को असफल करने के बारे में शायद ही सोचा हो? कोई सोचकर इस पर एक्शन लेता है तो दूसरी सरकार के आते ही नीति बदल जाती है। भारत के साथ सात दशक से यही होता आया है। कभी हां और कभी ना ऐसा करते वालों का अस्तित्व मिट गया है। अब हम मूल मुद्दे पर आते हैं।
 
 
दरअसल, आज जो दुनिया की तस्वीर हमारे सामने है, वह क्रूसेड-जिहाद, ब्रिटेन का उपनिवेशवाद और अमेरिका एवं मार्क्सवाद की क्रांति का परिणाम है। यह कहना गलत है कि असंवेदनशील, अनपढ़ या कम बुद्धि के लोग ही आतंक की राह पर चलते हैं। क्या ओसामा बिन लादेन गरीब या अनपढ़ था? दरअसल, बुद्धिमान होना अपने आप में एक बड़ा आतंक है। अब हम जानेंगे कि आतंकवाद किस तरह फैलता है। कुछ सवाल से पहले इनका उत्तर ढूंढना जरूरी है।
 
 
पहला सवाल : क्या धर्म की विचारधारा से आतंकवाद का जन्म होता है?
दूसरा सवाल : क्या सत्ता की अभिलाषा और सरकारें मिलकर आतंकवाद को प्रायोजित करती हैं? 
तीसरा सवाल : क्या सांप्रदायिक सोच से आतंकवाद का जन्म होता है?
चौथा सवाल : क्या सामाजिक असमानता के कारण आतंकवाद का जन्म होता है?
पांचवां : क्या विरोधी विचारधारा होने के कारण आतंकवाद का जन्म होता है?
छठा सवाल : क्या उपरोक्त सभी तरह की विचारधारा से आतंकवाद का जन्म होता है?

 
उपरोक्त सवालों के जवाब प्रत्येक व्यक्ति अलग-अलग तरीके से दे सकता है। यदि कोई धर्म का पक्षधर है तो वह धर्म का बचाव करेगा। यदि वह कम्युनिस्ट है तो धर्म को दोषी मानते हुए सत्ता और सामाजिक असमानता को इसके लिए जिम्मेदार ठहराएगा। सभी की सोच अलग-अलग हो सकती है।
 
पहला सवाल : क्या धर्म की विचारधारा से आतंकवाद का जन्म होता है?
उत्तर : दुनियाभर में बढ़ रहे आतंकवाद और हिंसा के बारे में पिछली शताब्दी के बेहद चर्चित दार्शनिक एवं आध्यात्मिक शख्सियत ओशो रजनीश का मानना है कि आतंकवाद आंतरिक पशुता है। इसका मूल कारण मनुष्य के मन में पल रहे स्वार्थ और लोभ जैसी पशुताएं हैं और इनको दूर किए बिना इस विश्वव्यापी समस्या का निराकरण संभव नहीं है।
 
 
पंडित, मुल्ला, मौलवियों और पादरियों के स्वार्थ को आप धर्म से जोड़कर नहीं देख सकते? ओशो कहते हैं कि भगवानों या पैगंबरों के बीच कोई लड़ाई नहीं है, लेकिन उनके अनुयायियों के बीच लड़ाई ही लड़ाई है, क्योंकि ये सभी मुल्ला और पंडित धर्म की एक खास व्याख्या पर जोर देते हैं। ऐसी व्याख्या जो लोगों में दूसरे धर्म के लोगों के प्रति नफरत को बढ़ाती है। सह-अस्तित्व की भावना को खारिज करती है।
 
 
मनुष्य और मनुष्यता को सभी धर्मों ने मिलकर मार डाला है। बचपन से ही यह सिखाया जाता है कि हमारा धर्म ही दुनिया का सर्वश्रेष्ठ धर्म है, जबकि ऐसा कहने वाले खुद अपने धर्म को नहीं जानते, उन्होंने तो जो मुल्लाओं और पंडितों से सुन रखा है उसे ही सच मानते हैं।
 
कोई मुसलमान हिन्दू धर्म को गहराई से नहीं जानता और कोई हिन्दू भी इस्लाम को नहीं जानता। इसी तरह किसी ईसाई या बौद्ध ने हिन्दू धर्म का कभी अध्ययन नहीं किया और वह भी उसी तरह व्यवहार करता है जिस तरह की नफरत करने वाले लोग करते हैं। वह समाज की प्रचलित धारा का एक अंग बनकर ही अपनी सोच निर्मित करता है।
 
एक ईसाई यह समझता है कि ईसाई बने बगैर स्वर्ग नहीं मिल सकता। इसी तरह मुसलमान भी सोचता है कि सभी गैर मुस्लिम-गफलत और भ्रम की जिंदगी जी रहे हैं अर्थात वे सभी गुमराह हैं, जो अंतिम को नहीं समझते। आम हिन्दू की सोच भी यही है। सभी दूसरे के धर्म को सतही तौर पर जानकर ही यह तय कर लेते हैं कि यह धर्म ऐसा है। अधिकतर लोग धर्म की बुराइयों पर ज्यादा ध्यान केंद्रित करते हैं।
 
 
ऐसे में यह मानना की धर्म के कारण सांप्रदायिकता और सांप्रदायिकता के कारण आतंकवाद पैदा होता है क्या उचित नहीं होगा? ओशो कहते हैं कि 'धर्म एक संगठित अपराध है। धर्मों के कारण इस धरती पर सबसे ज्यादा निर्दोष लोगों की हत्या हुई और अधिकतर लोग मारे गए।' ऐसे में यह कहना कि 'मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना' सिर्फ मन को समझाने भर की बातें हैं।
 
धर्म का आविष्कार लोगों को कबीलाई संस्कृति से बाहर निकालकर सभ्य बनाने के लिए हुआ था लेकिन हालात यह है कि यही धर्म हमें फिर से असभ्य होने के लिए मजबूर कर रहा है।
 
 
दूसरा सवाल : क्या सत्ता की अभिलाषा और सरकारें मिलकर आतंकवाद को प्रायोजित करती हैं? 
उत्तर : राजनीतिक अवसरों और मौकों के हिसाब से राजनेताओं को जो रास्ता सरल लगा, उसे अपना लिया गया। इसमें सबसे आसान रास्ता था आतंकवादियों, नक्सलवादियों, विद्रोहियों या माओवादियों के माध्यम से किसी समूह या देश को दबाना या उसे अस्थिर करना। इराक, ईरान, सऊदी अरब, ब्रिटेन, चीन, अमेरिका और पाकिस्तान ने पूरे विश्‍व में इस माध्यम का भरपूर उपयोग किया। हालांकि आतंक का समर्थन करने की उनकी यह नीति भस्मासुर ही साबित हुई।
 
 
सोवियत संघ के दौर में अमेरिका ने अफगानिस्तान में तालिबान को सपोर्ट किया था। चीन ने नेपाल सहित भारत के पूर्वोत्तर राज्यों में उग्रवादियों को भरपूर मदद की। शीत युद्ध के दौरान अमेरिका की सहमति से अल कायदा सऊदी की खुफिया सेवा के समर्थन से पैदा हुआ था। बाद में इसी अल कायदा ने अमेरिका में 9/11 की घटना को अंजाम दिया था।
 
सोवियत संघ के पतन के बाद पाकिस्तान जब अफगान युद्ध से फारिग हुआ तो 90 के दशक में उसने कश्मीर में आग लगा दी। भारत में आतंकवादी या उग्रवादी घटनाएं ज्यादातर पाकिस्तान और चीन के समर्थन से होती हैं। राजनीतिक व्यक्ति धर्म का उपयोग करना अच्छी तरह जानता है और कट्टरपंथी लोग भी राजनीतिज्ञों का उपयोग करना सीख गए हैं।
 
 
वर्तमान में रशिया और पाकिस्तान ने तालिबान से हाथ मिलाया है। वही तालिबान जिसने अफगानिस्तान को तबाह कर दिया। वही तालिबान जो रशिया की मदद से अमेरिका से लड़ता रहा। इस तरह हमने पूर्व में देखा है कि राजनीतिज्ञों के किस तरह इस्लाम के नाम पर हथियारबद्ध संगठन खड़े किए और उनके माध्यम से कई देशों को अस्थिर और बर्बाद किया। बाद में जब वे संगठन भस्मासुर बन गए तो उसको खत्म भी किया गया।
 
 
राजनीति का धर्म और समाज से गहरा नाता रहा है। राजनीति खड़ी ही की जाती है धर्म या समाज को तोड़ने के आधार पर वर्ना राजनीति चल नहीं सकती। छल, बल या अन्य किसी तरीके से समाज में फूट डालकर राज्य किया जा सकता है। राजनीति के जिंदा रहने का आधार ही समाज में फूट डालना और लोगों को भयभीत करना है। यदि आप लोगों को जब तक किसी दूसरे धर्म या राष्ट्र के खतरे के प्रति भयभीत नहीं करेंगे, तब तक लोग आपके समर्थन में नहीं होंगे। किसी भी देश का राजनीतिक दल हो या धर्म, वह आज भी इसी आधार पर समर्थन जुटाता है कि तुम असुरक्षित हो। मुल्क या धर्म खतरे में है।
 
 
राजनीति पहले देशसेवा होती थी, फिर एक दौर ऐसा आया जबकि यह पेशा बन गई और अब यह अपराध में बदल गई है। यदि हम ममता बनर्जी, जयललिता, मायावती, लालू प्रसाद यादव, मुलायम, साक्षी महाराज, साध्वी प्राची, उद्धव ठाकरे, सुब्रह्मण्यम स्वामी, प्रवीण तोगड़िया और ओवैसी बंधुओं की बात करें तो कहना होगा कि देश में कभी भी राष्ट्रीय राजनीति का विकास नहीं हो सकता।
 
जहां तक सांप्रदायिक राजनीति की बात करें तो यह भारत विभाजन से ही जारी है। विभाजन भी सांप्रदायिक आधार पर ही हुआ था। भारत की राजनीति की शुरुआत में ही सांप्रदायिकता के बीज बो दिए गए थे। आजकल राजनीति का दूसरा नाम विश्वासघात है। विश्वासघात जनता के साथ, देश के साथ और अपने धर्म के साथ। यदि हम प्रांतवादी राजनीति की बात करें तो इसका जोर महाराष्ट्र सहित दक्षिण भारत में ज्यादा देखने को मिलता है। हर प्रांत में क्षेत्रीय पार्टियां हैं लेकिन उनमें से कई किसी भाषा या प्रांत की राजनीति के आधार पर खड़ी नहीं हुई है। 

तीसरा सवाल : क्या सांप्रदायिक सोच से आतंकवाद का जन्म होता है?
उत्तर : जो लोग यह समझते हैं कि हमारा धर्म ही सत्य है। उन्हें उनके धर्म के मर्म और इतिहास की जरा भी जानकारी नहीं है। बहुत से लोगों ने अपने धर्मग्रंथ भी पढ़े होंगे, लेकिन उन्हें इस बात का इल्म नहीं कि आखिर इसमें क्या लिखा है। यदि कोई भी धर्म आपको किसी भी तरह की हिंसा, राजनीति या सामाजिक व्यवस्था में धकेलता है, तो वह धर्म कैसे हो सकता है?
 
 
वर्तमान युग में सोशल मीडिया के माध्यम से सांप्रदायिक विचारधारा का विस्तार तो हो ही रहा है, दूसरी ओर टीवी पर दिनभर उन लोगों के बयान ही दिखाए जाते हैं, जो किसी प्रकार के सांप्रदायिक द्वेष से भरे हैं। इसका मतलब यह कि न्यूज चैनल भी इस तरह की विचारधारा को बढ़ावा देने का कार्य करता है। जिस सांप्रदायिक व्यक्ति का बयान 4 लोग सुनते थे उनको मीडिया 40 लाख लोगों में प्रचारित करके उनका ही सपोर्ट करती है। यहां यह बताना भी जरूरी है किस सेक्युलर सांप्रदायिकता से भी सतर्क रहना जरूरी है, क्योंकि इससे आग में घी डालने का कार्य होता है। सांप्रदायिक सोच को बढ़ावा देने का मतलब है आतंकवाद के लिए कच्ची जमीन तैयार करना। 
 
जब से बाबरी ढांचा ध्वंस हुआ है देश में मुस्लिम सांप्रदायिक विचारधारा और कार्यों को विस्तार मिला है। बाबर के इतिहास को जाने बगैर कुछ मुसलमान जहां बाबरी ढांचे को एक सुर में 'बाबरी मस्जिद की शहादत' कहकर संबोधित करने लगे हैं तो वहीं दूसरी ओर हिन्दू ताकतें मुसलमानों को पड़ोसी मुल्क चले जाने की सलाह देने लगी हैं। दोनों कौमों के लोगों को मुगल और अंग्रेजकाल का इतिहास मालूम है? 
 
सांप्रदायिक सोच को बढ़ावा देने की शुरुआत तो भारत विभाजन से ही शुरू हो गई थी, ऐसा नहीं है। दरअसल, जब 1857 की क्रांति हुई थी तभी से अंग्रेजों को समझ में यह बात आ गई थी कि इस मुल्क पर राज करना है तो हिन्दू और मुसलमानों में नफरत को बढ़ावा देना जरूरी है। बाद में पूरी योजना के तहत भारत का विभाजन कर दोनों मुल्कों को आपस में लड़ाकर वे लोग चले गए ताकि भारतीय लोगों का ध्यान बाद में उन पर नहीं रहे और वे अपनी आंतरिक समस्याओं में ही उलझे रहें।
 
 
क्या भारतवासियों को माउंटबेटन, चर्चिल, मोहम्मद अली जिन्ना, जवाहरलाल नेहरू, महात्मा गांधी और डॉक्टर आंबेडकर ने किस की तरह की राजनीति की थी, इसके संबंध में पूर्ण ज्ञान है? क्या वे जानते हैं उनके उजले और अंधेरे पक्ष को। आज इन पर कुछ भी बोलना अपराध ही माना जाएगा, क्योंकि ये सभी अब किसी पार्टी और समाज का हिस्सा हैं। 
 
अंग्रेजों के चले जाने के बाद भी दोनों ही मुल्कों में सांप्रदायिक सोच और दंगों का पहले राजनीतिज्ञों द्वारा विस्तार किया गया, फिर जब अधिक से अधिक लोग सांप्रदायिक सोच के सांचे में ढल गए तो ऐसे में मोबाइल, इंटरनेट, टीवी और तमाम तरह की तकनीक आ गई जिसने वर्तमान में इस सोच को बम में बदल दिया है।

 
चौथा सवाल : क्या सामाजिक असमानता के कारण आतंकवाद का जन्म होता है?
उत्तर : कश्मीर के अलगाववाद और आतंकवाद सहित देश के अन्य हिस्सों में फैली नक्सलवाद की समस्या सामाजिक-आर्थिक विषमता के चलते पैदा हुई है। यदि हम नक्सलवाद की बात करें तो देश के दूरदराज और पिछड़े इलाकों में जब सरकारी योजनाएं जमीनी स्तर पर नहीं पहुंचीं तो नक्सलवाद पैदा हुआ। जहां सरकार का अस्तित्व नहीं दिखा, उस इलाके की पहचान नक्सलवाद बन गया। छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा, पूर्वोत्तर के कुछ क्षे‍त्र आदि कई ऐसे क्षेत्र हैं, जहां आज भी विकास कोसों दूर है। 

दसवीं और ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजनाओं का ब्योरा पढ़िए, पिछड़े और ग्रामीण इलाकों में विकास करने की बड़ी-बड़ी बातें कही गई हैं, पर असल में देखिए तो कितनी योजनाएं उन इलाकों तक पहुंचीं और लोगों को उसका कितना फायदा मिला?

ऐसा नहीं है कि सरकार नक्सल प्रभावित इलाकों में विकास की बातें नहीं सोचती। इन इलाकों में विकास के लिए करोड़ों रुपए की योजनाएं बनाई जाती हैं, पर आखिर पैसा जाता कहां है? क्या राज्य सरकारें खा जाती हैं या स्थानीय प्रशासन? इस पर कोई जांच नहीं बैठाता। बेचारे गरीब व्यक्ति को तो अपने पेट और परिवार की चिंता ज्यादा रहती है। यदि रात में बेटी या बेटा भूखा सो जाता है तो उसके लिए सबसे बड़ा दर्द और कोई दूसरा नहीं हो सकता। पेट भरने के लिए यदि हथियार उठा लिए जाए, तो इसमें क्या बुराई है?
 
 
पूर्वोत्तर राज्य सहित कश्मीर, केरल और पश्चिम बंगाल में पिछले 60 वर्षों में किसी भी तरह का विकास नहीं हुआ। क्यों? इस 'क्यों' को पूछा जाना चाहिए कश्मीर और पश्चिम बंगाल की सरकार से। आपके हाथ में सत्ता थी और करोड़ों रुपए थे, तो आपने क्या किया? लेकिन 30 साल शासन करने के बाद भी पश्‍चिम बंगाल की कम्युनिस्ट सरकार से ये कोई नहीं पूछता।
 
पांचवां : क्या विरोधी विचारधारा होने के कारण आतंकवाद का जन्म होता है?
उत्तर : घर में भी जब एक दूसरे के मत नहीं मिलते या विचारों में भिन्नता होती है तो गृहकलह होने लगता है। दो भाइयों या पिता-पुत्र के विचार भिन्न होते हैं, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि पिता अपने पुत्र की जान ही लेले या पुत्र अपने पिता को घर से निकाल दें। बहुत कम ही लोग हैं जो आपसी सहमति और भाईचारे की भावना से काम करते हैं। यही बात किसी समाज या देश भी भी लागू हो सकती है।
 
 
सचमुच आज इराक और सीरिया में आईएस और आईएसआईएल क्या कर रहा है। वह तमाम तरह की विरोधी या अलग तरह की विचारधारा का खात्मा करने में लगा है। यजीदी, यहूदी, ईसाई, शिया और अन्य समुदाय के लोगों का जिस तरह से कत्लेआम किया जा रहा है वह इस बात कि सूचना देता है कि वैचारिक भिन्नता किस हद तक क्रूरता का प्रदर्शन कर सकती है।
 
 
लेकिन, ऐसा नहीं है कि विरोधी और भिन्न विचारधारा के लोग साथ-साथ नहीं रहते। दुनिया के पॉश इलाकों में सभी अमीर लोग सम्मिलित रूप से रहते हैं और उनके बीच धर्म या देश किसी भी प्रकार का मुद्दा नहीं है। वे आपस में रोटी-बेटी का संबंध भी बनाते हैं और सभी तरह के पर्व या उत्सव सम्मलित मिलकर मनाते हैं। लेकिन मध्यम वर्ग और गरीब लोगों के बीच धर्म, संप्रदाय और वैचारिक भिन्नता सबसे बड़ा मुद्दा है।
 
 
बहुत से देशों के शहरों में समुदाय विशेष की कालोनियां या मुहल्ले बन गए हैं, जहां समान विचारधारा के लोग रहते हैं और जहां दूसरी विचारधारा के लोग रह नहीं सकते। इस तरह धीरे धीरे वे कालोनियां दूसरी विचारधारा के लोगों के निशाने पर होती है। भारत में जब मुगल नहीं आए थे तब देश राज्यों और कुछ जातियों में बंटा था। जब मुगल आ गए तब मुसलमान और हिन्दू नाम में भारतीय बंट गए। फिर जब अंग्रेज आए तो एक और बंटवारा हुए। हिन्दुओं में से ही कुछ लोग ईसाई बनते गए। इस तरह तीन तरह के बंटवारे हुए। फिर बाबा अंम्बेडकर, नेहरू, गांधी की विचारधारा के चलते भी कई स्तर पर विचाधारों में फर्क पैदा हुआ।
 
 
आज भारत में कई समाजों और धर्मों की लाखों कालोनियां निर्मित है। इसका कारण सिर्फ धर्म या राजनीति नहीं रहा। इसके कई और भी कारण रहे। जैसे कि शाकाहार और मांसाहारी समाज का विभाजन, ऊंची और नीची जातियों का विभाजन आदि। 
 
छठा सवाल : क्या उपरोक्त सभी तरह की विचारधारा से आतंकवाद का जन्म होता है?
उत्तर : अब यह आपको तय करना है कि ऐसी कौन सी विचारधारा है जिससे आतंक का जन्म होता है।
 

सम्बंधित जानकारी

Show comments

जरूर पढ़ें

पूर्व प्रधानमंत्री का पोता बलात्कार मामले में दोषी, कोर्ट में रो पड़ा प्रज्वल, अब सजा का इंतजार

निमिषा प्रिया की फांसी रद्द होने की खबरों का सच, विदेश मंत्रालय ने बताई हकीकत

'रमी' खेलने वाले मंत्री कोकाटे को मिला नया विभाग

किससे है गंगा के ग्रीष्मकालीन प्रवाह का संबंध, IIT रुड़की के रिसर्च में हुआ खुलासा

राहुल गांधी बोले, वोट चोरी करवा रहा है चुनाव आयोग, हमारे पास सबूत

सभी देखें

नवीनतम

जम्मू कश्मीर के कुलगाम में सुरक्षाबलों के साथ मुठभेड़ में 2 आतंकवादी ढेर

राजनाथ की राहुल को चुनौती, फोड़ दो सबूतों का एटम बम

रेप का आरोपी प्रज्वल रेवन्ना अदालत में रो पड़ा, न्यायाधीश से की कम सजा देने की अपील

खरगे का बड़ा आरोप, निर्वाचन आयोग पीएम मोदी के हाथों की कठपुतली

देर रात पार्टी में न जाएं, हो सकता है रेप, पोस्टर पर मचा बवाल