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द कश्मीर फाइल्स ने सिर्फ जख्म कुरेदे हैं

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सुरेश एस डुग्गर

द कश्मीर फाइल्स। एक सप्ताह से यही चर्चा का विषय है सारे विश्व में। आखिर हो भी क्यों न। इसने उन कश्मीरी पंडित परिवारों के जख्मों को फिर से कुरेदा है जो आतंकवाद की शुरूआत में 19 जनवरी 1990 को अपनी मातृभूमि को त्यागने पर विवश हुए थे। यह चर्चा का विषय अलग है कि उन्होंने कश्मीर को त्यागा था या मजबूर किए गए थे या फिर किसी राजनीतिक साजिश के शिकार हुए थे। यह भी चर्चा का विषय अलग है कि कितने कश्मीरी हिन्दुओं के परिवारों को कश्मीर को डर और दहशत के बीच रातों रात त्याग देना पड़ा था। पर यह सच है कि कश्मीर फाइल्स ने उनके उस दर्द को फिर से उजागर किया है जिसे शायद ही कश्मीरी पंडित परिवार पीढ़ियों तक भूला पाएंगें।

वर्ष 1990 के जनवरी महीने की 20-21 तारीख थी जब जम्मू के गीता भवन में कश्मीरी पंडितों के परिवारों का पहला जत्था शरण लेने पहुंचा था। आंखों में डर, दहशत और चेहरे पर मायूसी के साथ ही भविष्य की चिंता को उनके चेहरों पर तब मैने भी महसूस किया था जब मैं डेढ़ साल की पत्रकारिता के काल में उन्हें कवर करने पहुंचा था।

तब उनकी कथाएं पत्रकारों के लिए किसी बढ़िया बिकाऊ आइटम से ज्यादा नहीं थीं। पर आज तक कोई उनके दर्द को नहीं बांट पाया। इतना जरूर था कि जम्मू के खुले और बड़े दिल वाले लोगों ने उनकी हद से ज्यादा सेवा भी की, शरण भी दी और जो संभव हो सकता था उन्होंने किया।

पर अब जबकि 32 सालों के आतंकवाद के चक्र के बाद उनके दर्द को बड़े पर्दे पर उकेरा गया है वह उन कश्मीरी पंडित परिवारों के उन सदस्यों को फिर से वे डरावने दृश्य याद करने पर मजबूर कर गया है जिनके साथ यह सब गुजरा था और जो उनका शिकार हुए थे।

कोई अब इसे कश्मीरी पंडितों का नरसंहार का नाम देता है तो कोई सोची समझी साजिश। लेकिन इतना जरूर सत्य था कि कश्मीर में इन 32 सालों में पाक परस्त आतंकियों के अत्याचारों के शिकार होने वाले सिर्फ कश्मीरी पंडित ही नहीं थे। एक बात बता देना बेहतर होगा कि कश्मीर वादी में रहने वाले हिन्दुओं को दरअसल कश्मीरी पंडित कहा जाता है वे चाहे जिस भी जाति-पात के हों और जम्मू संभाग के हिन्दुओं को डोगरा हिन्दू के नाम से पुकारा जाता है।

और एक बानगी उन आंकड़ों पर भी नजर डालें तो सबका दर्द बराबर लगता है। जम्मू कश्मीर में इन 32 सालों में 109 नरसंहारों को आतंकियों ने अंजाम दिया है अभी तक। जिसमें 1007 मासूम मारे गए। यह सभी एक ही समुदाय से नहीं थे। इनमें अगर 856 हिन्दू थे तो 151 मुस्लिम भी थे। यह भी तथ्य है कि सामूहिक 109 नरसंहारों में से आतंकियों ने 90 को जम्मू संभाग में अंजाम दिया था और बाकी 19 को कश्मीर संभाग में। आतंकियों ने नरसंहारों के दौरान धर्म का कोई भेदभाव नहीं किया था। कश्मीर में हुए पांच नरसंहारों में उन्होंने 60 कश्मीरी पंडितों को मार डाला था। तो 4 में 52 सिखों को। दस नरसंहार तो प्रवासी श्रमिकों व अमरनाथ यात्रियों के भी थे जिन्हें भूला नहीं जा सकता।

चर्चा आंकड़ों की नहीं, कश्मीर फाइल्स के नाम की है। इसे दरअसल जम्मू कश्मीर फाइल्स होना चाहिए था क्योंकि आतंकियो ंने जम्मू संभाग में जिन 68 नरसंहारों में 610 हिन्दुओं को मौत के घाट उतारा उन सभी को गोलियों से नहीं भूना गया था। कईयों को फांसी पर लटका कर, कईयों का गला रेत कर या पेट्रोल डाल कर जलाया गया था। सैंकड़ों युवतियां और औरतें उन विदेशी आतंकियों की वासना का शिकार हुई थी ंजिन्हें पाकिस्तान ने करीब 27 देशों से एकत्र कर कश्मीर में इसी लालच में भिजवाया था कि उन्हें जम्मू कश्मीर में पैसा और भोगने के लिए खूबसूरत औरतें मिलेगीं। और उन सैंकड़ों औरतों में मुस्लिम औरतों की संख्या सबसे टाप पर है। इसे जिन्दा पकड़े जाने वाले कई विदेशी आतंकियों ने खुद स्वीकार किया था।

32 सालों के आतंकवाद के दौर में कश्मीर मंे आतंकियों की दहशत और जुल्म सहन करने वाले आज भी मुस्लिम ही हैं। मौत का चक्र आज भी जारी है। सरकारी आंकड़ा कहता है कि कश्मीर में आज तक तकरीबन 20 हजार को आतंकियों ने मौत के घाट उतारा है। इनमें 90 परसेंट मुस्लिम थे। गैर सरकारी आंकड़ा मरने वालों का एक लाख का है। और अगर संसद में पेश किए गए आंकड़ों पर विश्वास करें तो 219 कश्मीरी पंडितों को इस अरसे में आतंकियों ने मार डाला था। हालांकि द कश्मीर फाइल्स के डायरेक्टर द्वारा संकलित आंकड़े यह संख्या 4 हजार के लगभग बताते हैं।

ऐसा ही विवाद कश्मीर से विस्थाति होने वाले कश्मीरी पंडितों परिवारों की संख्या के प्रति है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 64827 कश्मीरी पंडित परिवारों ने पलायन किया। जिसमें से 44837 ने जम्मू में, 19338 ने दिल्ली में तथा बाकी 1995 ने देश के अन्य हिस्सों में अपने आपको पंजीकृत करवाया। पर कश्मीरी पंडितों के नेता इन आंकड़ों से सहमत नहीं हैं। उनके दावानुसार, एक लाख परिवारों के 5 लाख सदस्यों ने कश्मीर को छोड़ा था। हालांकि वे इसे जरूर मानते हैं कि आज भी कश्मीर में 3 से 4 हजार के बीच कश्मीरी पंडित परिवार टिके हुए हैं जिन्होंने कश्मीर का त्याग नहीं किया क्योंकि उनके पड़ौसियों ने उनकी रक्षा का वचन दिया था, जिसे आज तक निभाया जा रहा है। इनमें कश्मीरी सिखों की संख्या शामिल नहीं है। कश्मीर से सिर्फ कश्मीरी पंडितों ने ही घरों को नहीं त्यागा था। कश्मीरी मुसलमान भी हिंसा का शिकार हुए हैं। गैर सरकारी तौर पर दो लाख से अधिक कश्मीरी मुस्लिम आज देश के अन्य हिस्सों में रह रहे हैं। जिनमें से कुछेक हजार ने ही अपने आपको डर के मारे पंजीकृत किया। वे भी वापस नहीं लौट पाए हैं। दरअसल कश्मीर में अत्याचारों, हत्याओं आदि का जो अमानवीय सिलसिला 1989 के अंत में शुरू हुआ था वह आज भी जारी हे। फांसी पर लटका देना, जुल्म ढहाते हुए मार देना, शरीर को टुकड़ों में बांट देना सब जारी है। फर्क सिर्फ इतना है कि अब इसे कश्मीरी मुसलमान भोग रहे हैं।

द कश्मीर फाइल्स के कारण सिर्फ कश्मीरी पंडितों के ही जख्म ताजा नहीं हुए हैं, डोडा, पुंछ, किश्तवाड़ आदि के उन इलाकों के नागरिकों को भी फिर से वे यादें डराने लगी हैं जिस दौर से वे इतने सालों के दौरान गुजरे हैं। इस दर्द को बड़े परदे पर लाए जाने के बाद अगर कश्मीरी पंडितो की दर्दभरी दास्तानंे गुंजने लगी हैं तो भ्रामक प्रचार भी अपनी तेजी से चलने लगा है। कई ऐसी वीडियो व्हाट्सएप यूर्निवर्सिटी पर धूम मचाने लगी हैं जो प्रत्येक कश्मीरी को कश्मीरी पंडितों तथा हिन्दुस्तानियों का दुश्मन करार देती हैं जबकि आज भी कई कश्मीरी पंडित परिवार अपने मुस्लिम पड़ौसियों का शुक्राना अदा करते हैं जिन्होंने वक्त रहते उन्हें कश्मीर से बाहर निकलने में मदद की थी।

वह दिन मुझे आज भी नहीं भूलता जब वर्ष 2005 में, कश्मीरी पंडितों के पलायन के मात्र 10 सालों के उपरांत जब मुट्ठी, मिश्रीवाला और दोमाना की टेंटों की बस्तियों में रह रहे परिवारों से मुलाकात हुई तो जम्मू में जन्मे कश्मीरी पंडितों के बच्चे कश्मीर के प्रति सवाल करते हुए सामने दिखने वाले पहाड़ों की ओर इशारा करते हुए कहते थे उस पार उनका कश्मीर है। और अब जब पलायन की त्रासदी के 32 सालों के उपरांत द कश्मीर फाइल्स से जो दर्द फिर से छलका है वह ऐसे मंें कश्मीर को कहां लेकर जाएगा कोई नहीं जानता क्योंकि उनकी वापसी फिलहाल राजनीति में गुम है। यह राजनीति कितनी है इसी से अंदाजा लगाया जा सकता था कि 32 सालों से कश्मीर छोड़ देश के अन्य हिस्सों में रहने वाले कश्मीरी पंडित आज भी कश्मीर के ही मतदाता गिने जाते हैं और वहीं चुनाव मैदान में उतरने वालों के लिए वोट डालते हैं कश्मीर जाकर नहीं बल्कि जम्मू और देश के अन्य भागों में ।
 
 

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