तेरी निगाह भी इस दौर की ज़कात हुई

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तेरी निगाह भी इस दौर की ज़कात हुई
जो मुस्तहिक़ है उसी तक नहीं पहुँचती है

मुस्लिम धनवान हर साल अपने धन का कुछ हिस्सा ग़रीबों, नादारों में तक़सीम करते हैं जिसे ज़कात कहते हैं। वो धन जो ग़रीबों के लिए होता है उसे ग़रीबों तक पहुँचना चाहिए। लेकिन ऎसा होता नहीं है। वो धन ग़रीबों में तक़सीम न होकर कहीं और बँट जाता है।

यही हाल उसकी निगाह का भी हो गया है। जिस पर उसकी मेहरबानी की नज़र होना चाहिए उस पर तो होती नहीं वो किसी और पर अपनी मेहरबानियाँ लुटाता रहता है, बिलकुल उसी तरह जिस तरह ज़कात ग़रीबों में न बँट कर कहीं और ख़र्च हो जाती है।
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