abhinav arora Porsche: हाल ही में, बाल संत के नाम से मशहूर अभिनव अरोरा को लेकर सोशल मीडिया पर एक नया विवाद खड़ा हो गया है। एक वीडियो में वे अपने पिता की करोड़ों की लग्जरी पोर्शे कार में घूमते नजर आए, जिसके बाद उन्हें यूजर्स ने जमकर ट्रोल किया। लोगों ने सवाल उठाया कि एक ओर ये 'तथाकथित संत' माया को त्यागने और सादगी से जीने का उपदेश देते हैं, तो दूसरी ओर उनका जीवन इतनी विलासिता से क्यों भरा है? क्या ये धर्म के प्रचारक हैं या सिर्फ धन कमाने वाले ठग? यह सवाल सिर्फ अभिनव अरोरा तक सीमित नहीं है, बल्कि कई आधुनिक संत और कथावाचक इस प्रश्न के दायरे में आते हैं।
अभिनव अरोरा से जया किशोरी तक: महंगी जीवनशैली का ट्रेंड
अभिनव अरोरा का यह विवाद पहली बार नहीं है। इससे पहले, वह कुंभ मेले में एक विदेशी कंपनी के महंगे बैग के साथ नजर आए थे, जिसे पशु चमड़े से बना बताया गया था। उस समय भी उन्हें अपनी बातों और व्यवहार में विरोधाभास के लिए ट्रोल किया गया था।
इसी तरह, मशहूर कथावाचक जया किशोरी भी अपने महंगे हैंडबैग्स और फोन को लेकर विवादों में रह चुकी हैं। उन्होंने खुद अपनी ज़ुबान से अपने महंगे फोन का शौक बताया था। एक और लोकप्रिय कथावाचक देवी चित्रलेखा ने भी जब अपनी महंगी लग्जरी गाड़ी के साथ अपनी तस्वीर पोस्ट की, तो लोगों ने वही सवाल दोहराया था कि "जो लोग माया को मिथ्या बताते हैं, वे खुद इतने विलासितापूर्ण जीवन का उपभोग कैसे कर रहे हैं?"
जब धर्म बन गया 'उपभोग की वस्तु'
यह एक जटिल समस्या है। एक ओर, ये कथावाचक और संत धर्म, अध्यात्म और जीवन के नैतिक मूल्यों की बात करते हैं। वे कहते हैं कि धन-दौलत और भौतिक सुख-सुविधाएं क्षणभंगुर हैं, लेकिन दूसरी ओर उनकी जीवनशैली उनकी बातों से मेल नहीं खाती। सबसे बड़ा सवाल यह है कि जब इन लोगों ने धर्म को एक व्यापार बना लिया, तो इनके अनुयायी इनके ग्राहक क्यों बन रहे हैं?
आजकल, धर्म एक 'प्रोडक्ट' बन गया है, जिसे पैकेजिंग और मार्केटिंग के साथ बेचा जा रहा है। महंगे प्रवचन, भव्य आश्रम और लग्जरी कारें इस पैकेजिंग का हिस्सा हैं। लोग इन कथावाचकों की कहानियों में सांत्वना और जीवन की समस्याओं का हल ढूंढते हैं, लेकिन साथ ही वे उनकी आलीशान जीवनशैली को भी देखते हैं। यह एक विरोधाभासी चक्र है, जहां धर्म के नाम पर माया का ही प्रदर्शन हो रहा है।
क्या है समाज और अनुयायियों की भूमिका
यह समझना जरूरी है कि इन धर्मगुरुओं के महंगे शौक और लोकप्रियता में समाज की भी भूमिका है। लोग धर्म को सादगी और त्याग के रास्ते पर नहीं, बल्कि सफलता और समृद्धि के संकेत के रूप में देखना चाहते हैं। जब वे अपने गुरुओं को महंगी कारों में देखते हैं, तो वे मानते हैं कि यह उनकी धार्मिक शक्ति और 'ऊर्जा' का परिणाम है। यह एक ऐसी सोच है जो धर्म के मूल सिद्धांतों से भटक चुकी है।
क्या धर्म का सार सादगी और त्याग में नहीं है? क्या धर्म के नाम पर यह विरोधाभास सही है? यह हर व्यक्ति को खुद से पूछना चाहिए क्योंकि हमारे समाज में यदि कोई ढोंगी धर्म के नाम पर भीड़ इकट्ठी कर रहा है और जनता को ठग रहा है तो ये कर्तव्य जनता का है कि अपनी आंखे खोलकर नैतिकता और आचरण की कसौटी पर परखकर ही किसी व्यक्ति को अपनी आस्था का आदर्श मानें।