जाति-धर्म से आगे विकास की भी उम्मीद पर होगा मतदान

उमेश चतुर्वेदी
सोमवार, 27 फ़रवरी 2017 (14:43 IST)
वाराणसी शहर से काशी का हवाई अड्डा बाबतपुर खासा दूर है। दूसरे शहरों की भांति यहां  एयरपोर्ट तक शहर नहीं है, भविष्य में बन जाए तो अलग बात है। रास्ते में एक जगह मिठाई  खाने के लिए गांव की चट्टीनुमा दुकान पर हम रुकते हैं। मिठाई खरीदते वक्त मैं दुकानदार से  सवाल करता हूं कि नोटबंदी का क्या असर रहा? 
दुकानदार बनारसी भोजपुरी में जवाब देता है कि भईया नोटबंदी से ऊ लोग परेसान हउअन,  जेकरा पाले पईसा बा' (नोटबंदी से वे लोग परेशान रहे हैं, जिनके पास अकूत पैसा है।) तो क्या  चुनाव में नोटबंदी का कोई असर नहीं है? वहां मिठाई-समोसा खा रहे लोगों का समवेत स्वर है,  गांव में क्या असर होगा? घर का चावल, घर की दाल, घर की तरकारी और तो और गुड़ और  तेल भी घर का। जेब में सौ ठो रुपया आ गया तो काम चल गया।
 
राष्ट्रीय कहे जाने वाले मीडिया ने एक माहौल बना रखा है कि नोटबंदी से लोग त्राहि-त्राहि कर  रहे हैं लेकिन पूर्वी उत्तरप्रदेश में नोटबंदी का नकारात्मक असर नजर नहीं आ रहा है। दिल्ली में  रहने वाले सुभाष तिवारी गाजीपुर में अपने एक रिश्तेदार की शादी में आए हैं। उनका भी विचार  था कि नोटबंदी का असर नजर नहीं आ रहा। लोग परेशान नहीं हैं। 
 
बलिया में राजभर जाति के एक सज्जन अपना नाम तो नहीं बताते, लेकिन उनका भी मानना  है कि नोटबंदी से वे लोग परेशान हैं जिनके पास नोट हैं। हमारे पास न पहले था और न अब  है इसलिए हमें चिंता नहीं। तो क्या नोटबंदी से भारतीय जनता पार्टी को होने वाली परेशानी की  राष्ट्रीय खबर हकीकत में कुछ और है? 
 
'वेबदुनिया' को तो पूर्वी उत्तरप्रदेश की सड़क यात्राओं में ऐसा ही नजर आया। इस संवाददाता की  आदत है कि चुनावी रिपोर्टिंग में बिना पत्रकारीय परिचय दिए गांव-चौराहों की चट्टी पर सवाल  पूछता है और उसके बाद लोगों की सहज स्वाभाविक प्रतिक्रिया सामने आती है। अपना अनुभव  तो यही है कि मीडिया के सामने आते ही वोटर और आम आदमी भी पॉलिटिकली करेक्टनेस के  हिसाब से जवाब देने लगते हैं। 
 
लेकिन सहज सवालों के स्फूर्त जवाब दरअसल जन मानसकिता को ही उजागर करते हैं। इसका  अतीत में दो बार अनुभव हो चुका है। 2002 के दिसंबर महीने में हरियाणा की यात्रा के दौरान  रोहतक, हिसार, फतेहाबाद, मेहम और बहादुरगढ़ में इन पंक्तियों के लेखक ने चाय की दुकानों  पर तत्कालीन मुख्यमंत्री ओमप्रकाश चौटाला की सरकार की जमकर तारीफ की थी। 
 
हरियाणा के आक्रामक लोगों ने सिर्फ तंज कसकर ही छोड़ दिया था। हिसार और रोहतक के  बीच के किसी चौराहे की चाय की दुकान पर बैठे लोगों ने पूछ लिया था, तू दिल्ली से आ रया  क्या? उस दिन इन पंक्तियों के लेखक ने चश्मा भी पहन रखा था। जब जवाब में 'हां' कहा तो  वहां के लोगों का जवाब था, जे कहे कि तुमारे आंख पर दिल्ली का चश्मा चढ़ा है। कहना न  होगा कि अगले चुनाव में चौटाला की करारी हार हुई थी और उसके बाद से उनका परिवार सत्ता  से बाहर ही है। 2012 के हिमाचल विधानसभा चुनावों में भी यही नुस्खा चुनावी नतीजे के  आकलन में कारगर रहा था।
 
शिमला के माल रोड स्थित लिफ्ट के पास मौजूद ड्राइवरों के सामने इन पंक्तियों के लेखक ने  एक धूपभरी दोपहर को कह दिया कि धूमल सरकार ने ड्राइवरों और सड़कों के लिए अच्छा काम  किया है तो वहां मौजूद ड्राइवरों का झुंड इन पंक्तियों के लेखक पर टूट पड़ा था। बस, गालियां  ही नहीं दी थीं लेकिन लगे हाथों सुझाव भी दे डाला था, सर आप दिल्ली से आए हो तो वहीं की  बात करो, हिमाचल की मत करो। पूरे राज्य में सड़कें खराब हैं और लगातार दुर्घटनाएं हो रही  हैं। जाहिर है कि उन्होंने धूमल सरकार के खिलाफ गुस्सा निकाला था। ऐसे कई अनुभव कांगड़ा,  सोलन आदि में भी हुए। नतीजे धूमल सरकार के खिलाफ आए।
 
ये पुराने अनुभव तो यही बता रहे हैं कि उत्तरप्रदेश के पूर्वी इलाके में भी कोई अपने आकलन  में कोई गड़बड़ी होने जा रही। जाति और धर्म पर केंद्रित रही उत्तरप्रदेश की राजनीति इस बार  एक हद तक बदलती नजर आ रही है। पूर्वी उत्तरप्रदेश अपने अति राजनीतिकरण के चलते  विकास की दौड़ में पिछड़ा है। बेशक, अब भी जनता का एक बड़ा हिस्सा जाति और धर्म के  इर्द-गिर्द घूम रहा है लेकिन एक बड़े हिस्से को मलाल नजर आ रहा है कि इस हिस्से का  विकास नहीं हुआ।
 
फेफना-वाराणसी सिटी पैसेंजर ट्रेन में बगल की सीट पर सपरिवार यात्रा कर रहे एक सज्जन का  कहना है कि विकास का मुद्दा बनाए बिना पूर्वांचल का विकास होने से रहा। वे सज्जन वाराणसी  में नौकरी कर रहे हैं। उनकी हां में हां उनका बेटा भी मिलाता है। स्थानीय लोग भी अब केंद्र  और राज्य की राजनीति को समझने लगे हैं। उन्हें समझ में आने लगा है कि इस राजनीति में  विकास और बिजली का उनका हक मारा जा रहा है।
 
वाराणसी में टैक्सी ड्राइवर का काम करने वाले धनंजय का कहना है कि मोदी सरकार ने  वाराणसी के लिए पैसे तो खूब दिए, लेकिन राजनीति के चलते वाराणसी की कई योजनाओं को  समाजवादी पार्टी की सरकार ने पूरा नहीं किया। तो क्या इस वजह से लोग मोदी से नाराज हैं  या अखिलेश से? धनंजय का जवाब है कि लोग अखिलेश से ज्यादा नाराज हैं।
 
ऐसे माहौल में वोट किसे मिलेगा? यूपी में दो राजकुमारों- राष्ट्रीय राजकुमार राहुल और राज्य  के राजकुमार अखिलेश की जोड़ी आगे आएगी या बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो माया का  लोग साथ देंगे या फिर मोदी पर ही लोगों का भरोसा बना हुआ है, इसका अंदाजा आप लगाएं।  इस संवाददाता ने भविष्य के सारे स्रोत खोलकर रख दिए हैं। 
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