उत्तरप्रदेश चुनाव में पश्चिम के बाद अब सत्ता के प्रवेश द्वार पूर्वांचल पर सबकी नजर
पू्र्वांचल की 156 सीटें से तय होता है कि उत्तर प्रदेश की सत्ता पर कौन काबिज होगा
पश्चिमी उत्तरप्रदेश में दो चरणों की वोटिंग के बाद अब उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव की सियासी लड़ाई में पूर्वांचल पर आकर टिक गई है। उत्तरप्रदेश की सियासत में पूर्वांचल को सत्ता का प्रवेश द्वार माना जाता है। उत्तप्रदेश में कुल 403 विधानसभा सीटों में से करीब 30 फीसदी यानी 156 सीटें पूर्वांचल से ही आती हैं। अगर लखनऊ की सत्ता पर काबिज होना है तो पूर्वांचल में जीत का परचम फहराना जरूरी होता है।
उत्तरप्रदेश में पहले दो चरणों में पश्चिमी उत्तर प्रदेश की 113 सीटों पर मतदान हो चुका है और मतदान के बाद जो रिपोर्ट आ रही है वह कांटे के मुकाबले की ओर इशारा कर रही है। सत्तारूढ़ दल के पक्ष में नहीं जा रही है। ऐसे में जब सत्ताधारी दल को पश्चिम उत्तरप्रदेश में सफलता की उम्मीद कम हो तो अब उसकी नजर पूर्वांचल पर ही रहेगी।
2014 का लोकसभा हो या फिर 2017 का विधानसभा चुनाव रहा। फिर 2019 चुनाव हो पूर्वांचल में भाजपा को अच्छी सफलता मिली है और भाजपा 2022 के चुनाव में इसको बनाए रखने के लिए पूरी ताकत लगा रही है।
पूर्वांचल में सत्ता की कुंजी- उत्तरप्रदेश का सियासी इतिहास बताता है कि पूर्वांचल में जिस भी पार्टी ने जीत हासिल की है, राज्य में उसकी सरकार बनी है। 2017 में बीजेपी ने 26 जिलों की 156 विधानसभा सीटों में से 106 पर जीत हासिल की थी और उत्तरप्रदेश में भाजपा पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनी थी। वहीं, सपा को 18, बसपा को 12, अपना दल को 8, सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी को 4, कांग्रेस को 4 और निषाद पार्टी को 1 सीट पर जीत मिली थी, जबकि 3 निर्दलीय उम्मीदवारों ने जीत दर्ज की थी।
इससे पहले भी 2012 में सपा को 85 सीटें मिली थीं जबकि 2007 में बसपा को भी पूर्वांचल से 70 से ज्यादा सीटें मिली थीं। अगर 2017 के विधानसभा चुनाव में आजमगढ़ और उसके आसपास के जिलों मऊ और बलिया में भाजपा को अपेक्षित सफलता नहीं मिली थी जबकि शेष पूर्वांचल में भाजपा ने बड़ी जीत हासिल की थी। 2022 के चुनाव में भाजपा के सामने सबसे बड़ी चुनौती इस सफलता को दोहराना करना है।
पूर्वांचल मेंं दांव पर प्रतिष्ठा?- उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव में पूर्वांचल की अहमियत को इससे ही समझा जा सकता है कि मौजूदा मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार अखिलेश यादव दोनों यहीं से आते है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ गोरखपुर से पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव आजमगढ़ का प्रतिनिधित्व करते है। इसके साथ ही भाजपा और सपा दोनों ही पार्टी के कई शीर्ष नेता पूर्वांचल का ही प्रतिनिधित्व करते है।
जातिगत सियासी लड़ाई का केंद्र- इसके साथ उत्तर प्रदेश की जातिगत राजनीति में सबसे ज्यादा लड़ाई पूर्वांचल में ही है। पूर्वांचल की जातिगत वोटों को देखे तो यहां निषाद, राजभर, मौर्य और कुशवाह यहां पर एक ताकत के रुप में है। पूर्वांचल में जो पार्टी जातिगत समीकरण को साध लेगी उसको चुनाव में सीधा फायदा होगा।
इसके साथ खास बात यह है कि पूर्वांचल में 2017 से पहले या कहे की मोदी लहर से पहले पूर्वांचल में सपा और बसपा को यहां बड़ी सफलता मिलती रही है। मंडल कमीशन के बाद उत्तरप्रदेश की राजनीति में जो दलित और ओबीसी राजनीति का उभार हुआ उसमें भाजपा को बहुत नुकसान होता था। ऐसे में अब 2022 के चुनाव में सपा को एक बार फिर जीत की उम्मीद जग रही है और सपा ने जातिगत वोटरों को साधने के लिए कास्ट पर आधरित पार्टियों से गठबंधन किया है। ऐसे उत्तर प्रदेश चुनाव में बैटल फील्ड पूर्वांचल बना हुआ है।
उत्तरप्रदेश की राजनीति को करीब से देखने वाले वरिष्ठ पत्रकार नागेंद्र वेबदुनिया से बातचीत में कहते हैं कि पूर्वांचल भाजपा के लिए पहले से ही चुनौती था लेकिन पश्चिम में भाजपा के कमजोर होने के कारण अब यह चुनौती और बढ़ गई है।
वह आगे कहते हैं कि उत्तरप्रदेश में पहले दो चरणों की वोटिंग के बाद अब पूर्वांचल में भाजपा की चुनौती ज्यादा बढ़ गई है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जैसी संभावना थी भाजपा ने उससे अधिक खराब प्रदर्शन किया है वहीं अलायंस ज्यादा बेहतर प्रदर्शन करते हुए दिख रहा है।
वह आगे कहते हैं कि पश्चिम में कांटे की टक्कर के बाद अब पूर्वांचल में निर्णायक दौर होगा। चुनावी मुद्दों को लेकर वह कहते हैं कि पूर्वांचल में लगता नहीं है कि धार्मिक कार्ड काम करेगा। पूर्वांचल में असली मुद्दा गरीबी और मुफ्त राशन का है। मैंने खुद पूर्वांचल के अपने दौरे में देखा है कि मुफ्त अनाज के चलते लोग भाजपा के साथ खड़े है।