नज़्म : कैफ़ी आज़मी

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तुम परेशाँ न हो, बाब-ए-करम वा न करो
और कुछ देर पुकारूँगा, चला जाऊँगा
इसी कूंचे में जहाँ चाँद उगा करते हैं
शब-ए-तारीक गुजारूँगा चला जाऊँगा

रास्ता भूल गया या यही मंज़िल है मेरी
कोई लाया है कि ख़ुद आया हूँ मालूम नहीं
कहते हैं हुस्न की नज़रें भी हसीं होती हैं
मैं भी कुछ लाया हूँ, क्या लाया हूँ मालूम नहीं

यूँ तो जो कुछ था मेरे पास मैं सब बेच आया
कहीं इनाम मिला और कहीं क़ीमत भी नहीं
कुछ तुम्हारे लिए आँखों में छुपा रक्खा है
देख लो और न देखो तो शिकायत भी नहीं

एक तो इतनी हसीं, दूसरे ये आराइश
जो नज़र पड़ती है चेहरे पे ठहर जाती है
मुस्कुरा देती हो रस्मन भी अगर मेहफ़िल में
इक धनक टूट के सीनों में बिखर जाती है

गर्म बोसों से तराशा हुआ नाज़ुक पैकर
जिसकी इक आंच से हर रूह पिघल जाती है
मैंने सोचा है तो सब सोचते होंगे शायद
प्यास इस तरहा भी क्या सांचे में ढल जाती है
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