नज़्म : ख़ाक-ए-हिन्द

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शायर - चकबस्त

ऎ ख़ाक-ए-हिन्द तेरी अज़मत में क्या गुमाँ है
दरिया-ए-फ़ैज़-ए-क़ुदरत तेरे लिए रवाँ है
तेरी जबीं से नूर-ए-हुस्न-ए-अज़ल अयाँ है
अल्लाहरे ज़ेबोज़ीनत क्या ओज-ए-इज़-ओ-शाँ है
हर सुबहा है ये ख़िदमत ख़ुर्शीद-ए-पुरज़िया की
किरनों से गूंधता है चोटी हिमालिया की

इस ख़ाक-ए-दिलनशीं से चश्मे हुए वो जारी
चीन-ओ-अरब में जिनसे होती थी आबयारी
सारे जहाँ पे जब था वहशत का अब्र तारी
चश्म-ओ-चिराग़-ए-आलम थी सरज़मीं हमारी
शम्मेअदब न थी जब यूनाँ की अंजुमन में
ताबाँ था महर-ए-दानिश इस वादी-ए-कोहन में

गोतम ने आबरू दी इस मोबद-ए-कोहन को
सरमद ने इस ज़मीं पर सदक़े किया वतन को
अकबर ने जाम-ए-उलफ़त बख़्शा इस अंजुमन को
सींचा लहू से अपने राना ने इस चमन को
सब सूरबीर अपने इस ख़ाक में निहाँ हैं
टूटे हुए खंडहर हैं या उनकी हड्डियाँ हैं

दीवार-ओ-दर से अब तक उनका असर अयाँ है
अपनी रगों में अबतक उनका लहू रवाँ है
अब तक असर में डूबी नाक़ूस की फ़ुग़ाँ है
फ़िरदोस गोश अब तक कैफ़ियत-ए-अज़ाँ है
कश्मीर से अयाँ है जन्नत का रंग अब तक
शौकत से बेह रहा है दरिया-ए-गंग अब तक

अगली सी ताज़गी है फूलों में और फलों में
करते हैं रक़्स अब तक ताऊस जंगलों में
अब तक वही कड़क है बिजली की बादलों में
पस्ती सी आ गई है पर दिल के हौसलों में
गुल शम्मे अंजुमन है गो अंजुमन वही है
हुब्बे वतन वही है ख़ाक-ए-वतन वही है

शैदा-ए-बोस्ताँ को सर्व-ओ-सुमन मुबारक
रंगीं तबीयतों को रंग-ए-सुख़न मुबारक
बुलबुल को गुल मुबारक, गुल को चमन मुबारक
हम बेकसों को अपना प्यारा वतन मुबारक
ग़ुंचे हमारे दिल के इस बाग़ में खिलेंगे
इस ख़ाक से उठे हैं, इस ख़ाक में मिलेंगे

है जू-ए-शीर हम को नूर-ए-सहर वतन का
आँखों की रोशनी है जलवा इस अंजुमन का
है रश्क-ए-मेह्र ज़र्रा इस मंज़िल-ए-कोहन का
तुल्ता है बर्ग-ए-गुल से कांटा भी इस चमन का
गर्द-ओ-ग़ुबार याँ का ख़िलअत है अपने तन को
मर कर भी चाहते हैं ख़ाक-ए-वतन कफ़न को

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