अदम के मुनफ़रीद अशआर

Webdunia
शनिवार, 14 जून 2008 (12:38 IST)
हमारी सिम्त से पीर-ए-मुग़ाँ से ये कह दो
छुड़ा के पीछा ग़म-ए-दो जहाँ से आते हैं

निकल आए हैं शाम के आफ़ताब
सहर हो गई है सरे शाम लो

मुझ को यारों न करो राहनुमाओं के सुपुर्द
मुझ को तुम राहगुज़ारों के हवाले कर दो

अमीरों को एज़ाज़-ओ-इक़बाल दो
ग़रीबों को फ़िरदोस पर टाल दो

हुस्न के बेहिसाब मज़हब हैं
इश्क़ की बेशुमार ज़ातें हैं

कितनी पुरनूर थीं क़दीम शबें
कितनी रोशन जदीद रातें हैं

तुम को फ़ुरसत हो अगर सुनने की
करने वाली हज़ार बातें हैं

काश हम आप इस तरह मिलते
जैसे दो वक़्त मिल गए होते

बस ये आखरी ज़हमत हो गी
आ जाना ताखीर न करना

आइए कोई नेक काम करें
आज मौसम बड़ा गुलाबी है

मै गुसारी अगर नहीं जाइज़
आप की आँख क्यों गुलाबी है

वफ़ा, इखलास, रस्म-ओ-राह, हमदर्दी, रवादारी
ये जितनी भी हैं सब ऎ दोस्त अफ़सानों की बातें हैं

है फ़रज़ानों की बातों में भी कुछ-कुछ दिलकशी लेकिन
जो नादानों की बातें हैं, वो नादानों की बातें हैं

रात कटने के मुनतज़िर हो अदम
रात कट भी गई तो क्या होगा

यूँ तो हिलता ही नहीं घर से किसी वक़्त अदम
शाम के वक़्त न मालूम किधर जाता है
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