खुमार बाराबंकवी के मुनफ़रीद अशआर

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प्रस्तुति : अज़ीज़ अंसारी

* सहरा को बहुत नाज़ है वीरानी पे अपनी
वाक़िफ़ नहीं शायद मेरे उजड़े हुए घर से

* चिराग़ो के बदले मकाँ जल रहे हैं
नया है ज़माना, नई रोशनी है

* अगर हज़ार नशेमन जलें तो फ़िक्र न कर
ये फ़िक्र कर कि गुलिस्ताँ पे आँच आन सके

* मुस्कुराना किसे अज़ीज़ नहीं
डरते हैं ग़म के इंतिक़ाम से हम

* हटाए थे जो राह से ओस्तों की
वो पत्थर मेरे में आने लगे हैं

* मेरे राहबर मुझ को गुमराह करदे
सुना है कि मंज़िल क़रीब आ गई है

* ये वफ़ा की सख्त राहें, ये तुम्हारे पा-ए-नाज़ुक
न लो इंतिक़ाम मुझ से मेरे साथ-साथ चल के

* डूबा हो जब अंधेरे में हमसाए का मकान
अपने मकाँ में शम्मा जलाना गुनाह है

* सूरज जहाँ बी आग उगलता दिखाई दे
भीगी हुई सी कोई वहाँ रात ले चलो

* दुश्मनों से परेशान होना पड़ा
दोस्तों का खुलूस आज़माने के बाद

* कहने को ज़िन्दगी थी बहुत मुख्तसर मगर
कुछ यूँ बसर हुई कि खुदा याद आ गया

* मुद्दत से किसी दर्द का तोहफ़ा नहीं आया
क्या हादिसे भी मेरा पता भूल गए हैं

* रात बाक़ी थी जब वो बिछड़े थे
कट गई उम्र रात बाक़ी है

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