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ग़ज़ल : बहादुर शाह ज़फ़र
Webdunia
न किसी की आँख का नूर हूँ, न किसी के दिल का क़रार हूँ
जो किसी के काम न आ सके मैं वो एक मुश्त-ए-ग़ुबार हूँ
मेरा रंग-रूप बिगड़ गया, मेरा यार मुझसे बिछड़ गया
जो चमन खिज़ाँ से उजड़ गया, मैं उसी की फ़स्ल-ए-बहार हूँ
Aziz Ansari
WD
न तो मैं किसी का हबीब हूँ, न तो मैं किसी का रक़ीब हूँ
जो बिगड़ गया वो नसीब हूँ, जो उजड़ गया वो दयार हूँ
पए फ़ातेहा कोई आए क्यों, कोई चार फूल चढ़ाए क्यों
कोई आ के शम्मा जलाए क्यों, मैं वो बेकसी का मज़ार हूँ
मैं नहीं हूँ नग़मा-ए-जाँफ़िज़ा, मुझे सुन के कोई करेगा क्या
मैं बड़े बरोग की हूँ सदा, मैं बड़े दुखी की पुकार हूँ
बहादुर शाह ज़फ़र के मुनफ़रीद अशआ र
ए ज़फ़र अब है तुझी तक इंतिज़ाम-ए-सलतनत
बाद तेरे ने वलीएहदी न नाम-ए-सलतनत
इतना न अपने जामे से बाहर निकल के चल
दुनिया है चल-चलाव का रस्ता संभल के चल
गई यक-बयक जो हवा पलट, नहीं दिल को मेरे क़रार है
करूं इस सितम का मैं क्या बयाँ, मेरा ग़म से सीना फ़िगार है
पस-ए-मर्ग मेरे मज़ार पर कोई फ़ातेहा भी पढ़े कहाँ
वो जो टूटी क़ब्र का था निशाँ, उसे ठोकरों से मिटा दिया
अब न दीजे ज़फ़र किसी को दिल
कि जिसे देखा बेवफ़ा देखा
आज़ाद कब करे हमें सय्याद देखिए
रहती है आँख बाब-ए-क़फ़स पर लगी हुई
शाहों के मक़बरों से अलग दफ़्न कीजिये
हम बेकसों को गोर-ए-ग़रीबाँ पसन्द है
तुम्हारे नक़्श-ए-कफ़-ए-पा के बोसे लेने को
ज़मीं पे साए की मानिन्द आफ़ताब आया
चमन से दूर रहा इस क़दर क़फ़स मेरा
कि पोंहची उड़ के न मुझ तक गुल-ए-चमन की बू
कोई पहचानता भी है मुझको
शाह हूँ या गदा ज़फ़र हूँ कौन
क्यों न तड़पे वो हुमा अब दाम में सय्याद के
बैठना दो-दो पहर अब तख्त पर जाता रहा
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