अतीक़ अहमद अतीक़

अजीज अंसारी
Aziz AnsariWD
मालेगाँव महाराष्ट्र का एक छोटा क़स्बा है। यहाँ की आबादी की बड़ी तादाद का पेशा कपड़ा बुनना है। अज़ादी से क़ब्ल ये कड़ा हाथकरघों पर बुना जाता था। मगर आज़ादी के बाद रफ़्ता-रफ़्ता हाथकरघे ख़त्म हो गए और उनकी जगह बिजली से चलने वाले साँचे आ गए। ये साँचे रात-दिन चलते हैं और अपने शोर से सारे शहर को जगाए रखते हैं।

मालेगाँव सिर्फ़ इसी सिनअत के लिए मशहूर नहीं है, इसकी शोहरत की एक और वजह है और वो है उर्दू। यहाँ के ज़्यादातर लोग न सिर्फ़ उर्दू जानते हैं बल्कि अपने रोज़मर्रा के कामों में भी उर्दू का इस्तेमाल करते हैं। इनमें कुछ बहुत अछे अदीब हैं, कुछ बहुत अच्छे सहाफ़ी हैं तो कुछ बहुत अछे शायर।

आज हम यहाँ मालेगाँव की एक ऐसी शख़्सियत का ज़िक्र करेंगे जिसमें ये तीनों ख़ूबियाँ अपनी तमाम जोलानियों के साथ मौजूद हैं। इस अहम शख़्सियत का नाम है "अतीक़ अहमद अतीक़" । अतीक़ साहब एक अच्छे सहाफ़ी हैं और बरसों से एक उर्दू का मेअयारी रिसाला "तवाज़ुन" शाए करते हैं। ये रिसाला हिन्दुस्तान के अदबी हलक़ों में काफ़ी मक़बूल है। बेरूनी मुमालिक के उर्दूदाँ भी इससे जुड़े हुए हैं और इसका बिलानाग़ा मुतालेआ करते हैं।

  अतीक़ साहब अपनी ज़िन्दगी की आठ दहाइयों से ज़्यादा की बहारें देख चुके हैं। मगर आज भी जवानों की तरह काम करते हैं, रोज़े रखते हैं और सारी नमाज़ें वक़्त पर अदा करते हैं।      
तवाज़ुन का कोई भी शुमारा देखिए उसमें बेरूनी मुमालिक के शोअरा, अदीब और आम उर्दू पढ़्ने वालों के नाम पते इसमें मिल जाएँगे। इस रिसाले में अतीक़ साहब अपनी नस्रनिगारी के जौहर भी दिखाते रहते हैं। अतीक़ साहब की पैदाइश 21 नवम्बर 1924 को मालेगाँव में हुई। यहीं आपने उर्दू, अरबी और फ़ारसी की आला तालीम हासिल की।

अतीक़ साहब अपनी ज़िन्दगी की आठ दहाइयों से ज़्यादा की बहारें देख चुके हैं। मगर आज भी जवानों की तरह काम करते हैं, रोज़े रखते हैं और सारी नमाज़ें वक़्त पर अदा करते हैं। फ़न-ए-शायरी में आपके उस्ताद रहे हैं नामवर शायर जनाब हकीम अंजुम फ़ौक़ी साहब। आप ही ने अतीक़ साहब को 1950 में फ़ारिग़ुल-इसलाह की सनद से नवाज़ा। अतीक़ साहब आज अच्छी शायरी तो कर ही रहे हैं साथ ही दूसरे कई शायरों के कलाम पर इसलाह भी कर रहे हैं।

आपके शागिर्दों की तादाद सौ से ज़्यादा हो चुकी है। इनका ताअल्लुक़ हिन्दुस्तान के मुख़तलिफ़ शहरों से और बेरूनी मुमालिक से भी है। इनसे इसलाह लेने वालों में एक बड़ी तादाद ख़्वातीन की भी है। अतीक़ साहब शायरी की हर सिंफ़ में अपने जौहर दिखाने में माहिर हैं। नज़्म, रुबाई और ग़ज़ल के अलावा आजकल आप दोहे भी खूब कह रहे हैं। आज हम यहाँ अपने पढ़ने वालों की ख़िदमत में उनका कलाम पेश कर रहे हैं।

1. दिल-ओ-निगाह की सारी लताफ़तें भी गईं
बसीरतों की तलब में बसारतें भी गईं

गए दिनों की जहाँ तक अमानतें भी गईं
नई रुतों की महकती बशारतें भी गईं

हरा भरा मुझे रखती थीं जो हरैक रुत में
वो शाख़सार-ए-बदन की हरारतें भी गईं

समाअतों की फ़सीलें तो फांद आई सदा
कभी हिसार-ए-सदा तक समाअतें भी गईं

मेरी कथा जो गई, ता दयार-ए-शीशा-ओ-संग
लहूलोहान दिलों की हिकायतें भी गईं

ग़ज़ल का सदियों पुराना लिबास यूँ बदला
कि फ़िक्र-ओ-फ़न की मोहज़्ज़िब रिवायतें भी गईं

बनाम दर्द मेरे दिल को जो मोयस्सर थीं
' अतीक़' अब तो वो बेनाम राहतें भी गईं

2. ख़ुद अपना ख़ौफ़ रहा दिल में यूँ समाया सा
कि जैसे पास कोई सांप सर-सराया सा

तुम्हारे नाम का पड़ने लगा जो साया सा
तो अपना नाम भी लगने लगा पराया सा

चिराग़-ए-देह्र बला से हो टिम-टिमाया सा
तेरे ख़्याल का सूरज हो जगमगाया सा

ये कौन मुझमें दर आया है अक्स अन्दर अक्स
तमाम शीशा-ए-हस्ती है कसमसाया सा

मैं आसमान से क्यों राबते का दम भरता
मेरा ज़मीन से रिश्ता न था पराया सा

भरा-पुरा है तेरे रूप का समन्दर भी
है चाहतों का जज़ीरा भी लहलहाया सा

खुले हुए हैं जो बाज़ू उन्हें समेट के रख
अभी हवाओं का जंगल है सनसनाया हुआ

वोप बेनियाज़ सही फिर भी कोई है तो 'अतीक़'
मेरे वजूद मेरी शख़्सियत पे छाया सा
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