बेख़ुदी में रेत के कितने समंदर पी गया,
प्यास भी क्या शय है, मैं घबराके पत्थर पी गया
अब तुम्हें क्या दे सकूँगा, दोस्तों, चारागरों,
जिस्म का सारा लहू मेरा मुक़द्दर पी गया
मैकदे में किसने कितनी पी ख़ुदा जाने मगर,
मैकदा तो मेरी बस्ती के कई घर पी गया ।
मेराज ने बारहा अपनी रूह को कुरेदा। अगले पन्ने पर।
मेरे थके हुए शानों से बोझ उतर तो गया,
बहुत तवील था ये दिन मगर गुज़र तो गया
लगा कर दाँव पे साँसों की आख़िरी पूँजी,
वो मुत्मइन है, चलो हारने का डर तो गया
ये और बात के काँधों पर ले गए हैं उसे,
किसी बहाने से दीवाना आज घर तो गया।
कौन मेराज फैज़ाबादी? अगले पन्ने पर।
तेरे बारे में जब सोचा नहीं था,
मैं तन्हा था मगर, इतना नहीं था
तेरी तस्वीर से करता था बातें,
मेरे कमरे में आईना नहीं था
समंदर ने मुझे प्यासा ही रक्खा,
मैं जब सहरा में था, प्यासा नहीं था
मनाने-रूठने के खेल में हम,
बिछड़ जाएँगे ये सोचा नहीं था
सुना है बंद कर ली उस ने आँखें,
कई रातों से वो सोया नहीं था।