उभरता हुआ शायर 'मोअज़्ज़म अली बहादुर फ़रियाद'

Webdunia
शुक्रवार, 23 मई 2008 (10:55 IST)
- राहत इन्दौरी

एम.ए. बहादुर की शायरी में दो आवाज़ें बहुत वाज़ेह तौर पर सुनाई देती हैं। पहली मौजूदा सियासी निज़ाम के खिलाफ़ है, जो इक चीख बन जाती है और दूसरी अफ़लास ज़दा, ज़िन्दगियों का मरसिया है, जो फ़रयाद की तरह सुनाई देता है। मैं यहाँ दो तरह के चन्द अशआर नक़्ल करता हूँ, जिससे आपकी मुलाक़ात एक जिस्म में रहने वाले दो इंसानों से हो सके और आप एक ज़हन से उठने वाली दो आवाज़ों को महसूस कर सकें।

WDWD
होंट सी लेने से हालात नहीं बदलेंगे
इंक़लाब आ नहीं सकता है बग़ावत के बग़ैर

इंसानियत के जश्न मनाए गए बहुत
चेहरों पे सब के फिर भी तअस्सुब अयाँ रहा

दैर-ओ-हरम को रक्खा सियासत के साथ भी
मक्कारियाँ लगाईं इबादत के साथ भी

इल्म की फ़सलें न काटी जा सकीं
इन को आवारा मवेशी चर गए

आए जोहैं चलाने को सरकार देखना
लटकी है उन के सर पे भी तलवार देखना

कुछ शर पसन्द लोग यही पूछते रहे
इस क़ाफ़िले का क़ाफ़िला सालार कौन है

तू कह रहा है कि अम्न-ओ-सुकून बांटूंगा
न जाने कितनी सदाक़त तेरे बयान में है

फ़िज़ा में ज़हर का बढ़ता दबाव बंद करो
ये नफ़रतों के सुलगते अलाव बंद करो

ये तो एक आवाज़ है जो जो मोअज़्ज़म की ग़ज़लों में चीख बन कर उभरती है और वो एक बाग़याना तेवर के साथ सियासी हालात पर तनक़ीद करता है, चूंकि कहीं न कहीं पहुंच कर उसका शिजरा-ए-नसब उन लोगों से जा मिलता है जो अपने वक़्त के हुक्काम थे, इस वजह से वो सियासी टूट-फूट को बहुत दुखी मन से देखता है और इस निज़ाम को बदलने के लिए अपनी आवाज बुलन्द करता है। इसकी शायरी का दूसरा पहलू भी मिलाहेज़ा हो। जहाँ वो राजमहलों से निकल कर ग़ुरबतज़दा ज़िन्दगियों में झांकने की कोशिश करता है और अपने आप को उसी का एक हिस्सा बना लेता है।

स्कूल की भी फ़ीस चुकानी थी इसलिए
मैं अपने लाडलों के खिलौने न ला सका

ऎ ज़रपरस्त लोगों ये कैसा ग़ुरूर है
मुफ़लिस की बेटियों से जो रिशता नहीं किया

फ़लसफ़ा भूक का आ जाता समझ में शायद
पेट पे बांध के हमने कभी पत्थर देखा?

फ़ाक़ों में भी अदा किया मैंने खुदा का शुक्र
ग़ुरबत में जी रहा था मैं चेहरे पे नूर था

जुस्तुजू उसकी नहीं बैठने देती हमको
भूक है, पांव में छाले हैं मगर चलते हैं

मुफ़लिस को जो तस्वीर में हंसते हुए देखा
उस खुशनसीब लम्हे को अरमान लिख दिया

अंजान लोग भी मुझे कहने लगे ग़रीब
चेहरे पे मुफ़लिसी का कोई इशतिहार है

मोअज़्ज़म एक ज़हीन फ़नकार है उसे पूरा पूरा हक़ है कि वो दुनिया से अपनी तखलीक़ात और अपनी काविशों की दाद तलब करे, जिस का वो मिस्तहक़ है, उसने जो अब तक लिखा है वो नवाब बांदा खानदान की अदबी रवायत का एक्स्टेंशन है, लेकिन अभी मोअज़्ज़्म को मुतमइन नहीं होना चाहिए उसे अभी खूब लिखना है और खूब लिखने के लिए खूब पढ़ना ज़रूरी है। मेरी दुआ है कि वो खूब नाम कमाए, खूब शोहरतें बटोरे।

Show comments

क्या दर्शाती है ‘लापता लेडीज’ की ऑस्कर में एंट्री, जानिए क्या है फिल्म की सबसे बड़ी USP

ऑयली बालों के चिपचिपेपन से हैं परेशान? जानें इस Festive Season में घर बैठे कैसे पाएं Oil Free Hairs

नवरात्रि में चेहरे की चमक को बनाए रखेंगी ये 5 गजब की Festive Skincare Tips

नहीं सूझ रहा बेटे के लिए बढ़िया सा नाम, तो ये हैं कुछ नए और यूनीक आइडिया

Navratri Food 2024: नवरात्रि में फलाहार के 5 खास आइटम

और समृद्ध होगा फलों के राजा आम का कुनबा

Festive Season पर कुछ यूं करें अपने nails को स्टाइल, अपनाएं ये Royal Look वाले डिजाइन

घर में मजूद इस एक चीज़ से त्योहारों के मौके पर पाएं दमकता निखार

पार्टनर से मैसेज पर भूलकर भी न करें ये 5 बातें, रिश्ते में घुल सकती है कड़वाहट

क्या है कांजीवरम साड़ी की कहानी, दक्षिण भारत की बुनाई में घुलती सोने-चांदी की चमक