कैफ़ी आज़मी : एक क्रांतिकारी शायर

-आदिल कुरैशी

Webdunia
वह हमेशा दूसरों से अलग थे, जो एक छोटी बच्ची के रूप में आसानी से मेरे गले नहीं उतरता था। दूसरे इज़्ज़तदार वालिदों की तरह वो दफ्तर भी नहीं जाते थे और न ही पेंट-शर्ट पहनते थे, बल्कि उन्हें 24 घंटे सफ़ेद कुर्ता-पायजामा पहने रहना पसंद था। वो अंग्रेज़ी नहीं बोलते थे और सबसे ख़राब बात यह कि दूसरे बच्चों की तरह मैं उन्हें डैडी नहीं बल्कि एक अजीब सी आवाज़ वाला ‘अब्बा’ कहकर पुकारती थी।

शबाना आज़मी, आज़मीकैफीडॉटकॉम में


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कैफ़ी आज़मीः 14/01/1918 - 10/05/2002



कैफ़ी आज़मी से मुलाकात अब वेबसाइट पर

फिल्म और थिएटर की मशहूर अदाकारा शबाना आज़मी ने अपने वालिद और हमारे वक्‍त के बेहतरीन व अज़ीम शायर कैफ़ी आज़मी की याद में इंटरनेट पर एक वेबसाइट लांच की है। इस वेबसाइट पर कैफ़ी की शायरी, वीडियो और उनके लिखे फिल्मी गीतों को संजोया गया है। अलावा इसके उनकी ज़िंदगी में झांकने का मौक़ा भी वेबसाइट फ़राहम करती है।

इस तरह कैफ़ी शायद ऐसे पहले उर्दू शायर बन गए हैं, जिनके काम और शख़्सियत पर इतनी तवील व बातरतीब वेबसाइट की शुरुआत हुई है।

शबाना ने अपने एक ट्वीट में इस वेबसाइट की लिंक देते हुए इसे देखने की गुज़ारिश की है। 'कैफ़ी आज़मी - ‘ए रिबेलियस पोएट ' उनवान वाली यह ऑडियो-वीडियो साइट फिलहाल अंग्रेज़ी में है। महान शायर की कई अनदेखी तस्वीरों वाली वेबसाइट आप http://www.azmikaifi.com पर देख सकते हैं।

वेबसाइट पर कैफ़ी साहब की बेटी शबाना और बेटे आहमर (बाबा आज़मी) बताते हैं, ‘कैफ़ी साहब एक बहुत ही ज़िम्मेदार बाप थे। बच्चों की हर ख़्वाहिश पूरी करने की वो हमेशा कोशिश करते थे।’ जब शबाना ने फ़िल्म इंस्टिट्यूट में जाने का इरादा अब्बा को बताया, तो कैफ़ी साहब ख़ुद उन्हें लेकर ऑडिशन कराने पुणे गए। बाबा ने जब सिनेमेटोग्राफी में अपनी दिलचस्पी ज़ाहिर की, तो उन्होंने इंतज़ाम किया कि ईशान आर्या से बाबा को कैमरे की बारीकियां सीखने को मिलें।

कैफ़ी आज़मी अपने बच्चों से कहा करते थे कि कोई भी काम छोटा नहीं होता। अगर कल को तुम जूते बनाने का काम करना चाहोगे, तो भी मैं तुम्हारी पूरी रहनुमाई करूंगा, बशर्ते तुम सबसे अच्छा शूमेकर बनने के लिए कड़ी मेहनत करो।

कैफ़ी साहब की शरीक-ए-हयात शौकत कहती हैं, ‘उनके करियर में कैफ़ी साहब की हमेशा पूरी-पूरी मदद रही।’ दामाद जावेद अख्तर को कैफ़ी साहब नए शायरों में सबसे ऊपर मानते थे। बाबा की बीवी तन्वी आज़मी याद करते हुए कहती हैं, ‘कैफ़ी साहब ससुर के बजाए बाप की तरह मोहब्बत करते थे।’

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पहली ग़ज़ल 11 साल की उम्र में

कैफ़ी आज़मी ने अपनी पहली ग़ज़ल तब लिख दी थी, जब उनकी उम्र सिर्फ 11 साल की थी। इस ग़ज़ल का मिसरा था- ‘इतना तो ज़िंदगी में किसी की ख़लल पड़े’। कैफ़ी का असली नाम अतहर हुसैन रिज़वी था। उप्र में आज़मगढ़ जिले के गांव मिजवान में कैफ़ी का जन्म एक ज़मीदार ख़ानदान में हुआ। उनकी उम्र जब 19 बरस थी, तब वे कम्युनिस्ट पार्टी में शरीक हो गए। उन्होंने पार्टी के अख़बार ‘क़ौमी जंग’ के लिए लिखना शुरू किया और अपनी सलाहियतों के लिए एक बड़े कैनवास की तलाश में मुंबई पहुंच गए।

40 रुपए महीना

देशभर के मुशायरों में जब एक नौजवान शायर के तौर पर कैफ़ी के नाम की धूम मच रही थी, उस वक्त वे कम्यूनिस्ट पार्टी मेंबर के रूप में मज़दूर और किसानों के हक़ की आवाज़ बुलंद कर रहे थे। पार्टी की तरफ से उन्हें 40 रुपए महीने का वज़ीफ़ा चुकाया जाता था। कैफ़ी इंडियन पीपुल थिएटर एसोसिएशन (इप्टा) के अखिल भारतीय अध्यक्ष और प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन (पीडब्ल्यूए) के एक्टिव मेंबर भी रहे।

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यूं जुड़े फ़िल्मों से

उर्दू की मशहूर राइटर इस्मत चुग़ताई प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन के अहम सदस्यों में से एक थीं। उन्हें जब पता चला कि कैफ़ी साहब की बीवी शौकत उम्मीद से हैं, तो उन्होंने सोचा कि परिवार को कुछ ज़्यादा आमदनी की ज़रूरत है।

इस्मत के शौहर शाहिद लतीफ उन दिनों बुज़दिल फ़िल्म बना रहे थे। इस्मत ने अपने शौहर से सिफ़ारिश की कि कैफ़ी से गीत लिखवाएं। शाहिद लतीफ कैफ़ी को गीत लिखने का मौका देने के लिए तो तैयार हो गए, मगर उन्होंने शर्त रखी कि इसका मेहनताना वे सीधे शौकत को देंगे। इस तरह कैफ़ी ने फ़िल्म के लिए पहला गीत लिखा- ‘रोते-रोते गुज़र गई रात’। और शौकत ने जिस सेहतमंद व ज़हीन बच्ची को जन्म दिया, वो बड़ी होकर शबाना आज़मी बनी।

कैफ़ी आज़मी के गीतों वाली कुछ फ़िल्में

शमा, काग़ज़ के फूल, शोला और शबनम, अनुपमा, आख़िरी ख़त, हक़ीक़त, हंसते ज़ख़्म, अर्थ वगैरह। ख़य्याम, जगजीतसिंह, रूपकुमार राठौर और चिंटू सिंह ने कई नज़्मों-ग़ज़लों को सुरों से सजाया है।

कैफ़ी के सदाबहार फ़िल्मी गीत


1. वक्त ने किया क्या हसीं सितम - काग़ज़ के फूल
2. जाने क्या ढूंढती रहती हैं ये आंखें मुझमें - शोला और शबनम
3. जीत ही लेंगे बाज़ी हम तुम, खेल अधूरा छूटे न - शोला और शबनम
4. मैं ये सोचकर उसके दर से उठा था - हक़ीक़त
5. कर चले हम फ़िदा जान-ओ तन साथियों -हक़ीक़त
6. तुम जो मिल गए हो तो ये लगता है -हंसते ज़ख़्म
7. ये दुनिया ये महफ़िल मेरे काम की नहीं - हीर-रांझा
8. मिलो न तुम तो हम घबराएं - हीर रांझा
9. तुम इतना जो मुस्करा रहे हो - अर्थ
10. कोई ये कैसे बताए कि वो तन्हा क्यों है - अर्थ

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कब्र खोदने के बाद खोजो मुर्दा

शुरू-शुरू में कैफ़ी साहब को फ़िल्मों में गीत लिखने का कारोबार बड़ा अजीब लगा। वह इसलिए कि अक्सर गीतों की धुन पहले तैयार हो जाती है और उस पर बोल बाद में फिट करना पड़ते हैं। एक इंटरव्यू में एक बार कैफ़ी ने कहा- ‘ये ठीक वैसा ही है, मानो कब्र खोद दी गई है और अब इसके नाप का मुर्दा खोजना है। इसलिए कभी-कभी सर बाहर रह जाता है तो कभी पैर बाहर निकल आते हैं। हालांकि डायरेक्टर का मुझ पर भरोसा रहता है कि ये गीतकार मुर्दे को सही तरीके से दफ़्ना देगा।’

अनलकी कैफ़ी

कैफ़ी आज़मी के गीतों वाली कुछ फ़िल्में बॉक्स ऑफ़िस पर नाकाम रहीं। उनके लिखे गीत तो हिट हो गए मगर फिल्म उम्मीद के मुताबिक नहीं चल सकीं। तभी कुछ लोगों ने यह बात फैला दी कि कैफ़ी अनलकी हैं। वो जो फ़िल्म लिखते हैं वह नहीं चलती, उनके गीत चल जाते हैं। इसी बीच अचानक कैफ़ी के दोस्त, चेतन आनंद उनके घर ‘जानकी कुटिर’ पर आए। उन्होंने बताया, ‘कुछ सालों तक ख़ामोशी के बाद अब वह एक फिल्म डायरेक्ट करने जा रहे हैं। इसमें गीत आपको लिखना हैं।’ तब कैफी ने कहा था- ‘चेतन साहब, मैं अच्छे गीत लिखता हूं, मगर मेरे सितारे मेरा साथ नहीं देते।’

चेतन आनंद ने कहा -‘लोग मेरे बारे में भी यही बात कहते हैं। हो सकता है, दो निगेटिव मिलकर एक पॉज़ीटिव बन जाएं।’ इसके बाद कैफ़ी, मदन मोहन और चेतन की तिकड़ी ने हमें - ‘तुम जो मिल गए हो’- गीत दिया। फिर हीर-रांझा में कैफ़ी ने गीत व शायरी में डॉयलॉग लिखकर अपने हुनर को लोहा मनवाया।

मगर हीर-रांझा में कैफ़ी को इतनी मेहनत करना पड़ी कि वे बीमार पड़ गए। 1972 में वे ब्रेन हेमरेज का शिकार हुए और उनके जिस्म के एक हिस्से ने काम करना बंद कर दिया। ‘चांद ग्रहन’ नाम की फ़िल्म के लिए 1997 में उन्होंने आखि़री गीत लिखा, जो रिलीज़ नहीं हो सकी थी। इसके बाद कैफ़ी साहब ने ज़्यादातर वक्त मिजवान में गुज़ारा।

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पूरी फिल्म शायरी में

चेतन आनंद की फ़िल्म ‘हीर रांझा’ के पूरे डायलॉग कैफ़ी साहब ने शायरी में लिखे और भारत की फ़िल्म इंडस्ट्री में इस तरह के डायलॉग लिखने की तवारीख रची। एमएस सथ्यू की फि़ल्म ‘गरम हवा’ के लिए कैफ़ी को बेस्ट स्क्रीनप्ले और डायलॉग के नेशनल के साथ फ़िल्म फेयर अवार्ड से नवाज़ा गया।

समाज में बदलाव लाए शायरी

कैफ़ी का मानना था कि शायरी और कविता का इस्तेमाल समाज में बदलाव लाने वाले एक हथियार के रूप में होना चाहिए। सांप्रदायिकता, धार्मिक कट्टरता के खिलाफ और औरत के अधिकारों के समर्थन में उन्होंने कई नज़्में व ग़ज़लें लिखीं। इस सिलसिले में उनके कुछ मशहूर कलाम हैं - औरत, मकान, दायरा, सांप, बहुरूपनी वगैरह।

लफ्जों को ढाला हक़ीक़त में

कैफ़ी आज़मी वो शख्सियत नहीं थे, जो सिर्फ अपनी शायरी में ही लोगों को हिदायत देते रहें। समाज में जो सुधार वो देखना चाहते थे, मौक़ा मिलने पर ख़ुद उन्होंने समाज में कर के दिखाया। ज़िदगी के आखिरी 20 साल का ज़्यादातर वक्त उन्होंने अपने पुश्तैनी गांव मिजवान में ही ग़ुज़ारा और वहां मिजवान वेलफेअर सोसायटी के ज़रिए लड़कियों के लिए हायर सेकेंडरी स्कूल, इंटर कॉलेज, कम्प्यूटर ट्रेनिंग सेंटर और एम्ब्रॉयडरी व सिलाई सेंटर कायम कर समाजी ख़िदमत की ज़िंदा मिसाल पेश की। मिजवान को कैफ़ी ने अकेले एक आदर्श गांव में तब्दील कर दिया। मिजवान वेलफ़ेयर सोसायटी का काम आजकल शबाना आज़मी देखती हैं।

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किताबों में कैफ़ी

1. झंकार 2. आवारा सजदे 3. सरमाया, 4. कैफ़ियात 5. दूसरा बनवास 6. चुनी हुई शायरी 7. पवन वर्मा ने चुनिंदा कलाम का अंग्रेज़ी में तर्जुमा किया 8. उर्दू ब्लिट्ज़ में लिखे गए कॉलम की दो किताबें 9. मेरी आवाज़ सुनो (चुनिंदा फ़िल्मी नग़्मे) 10. वाणी प्रकाशन ने देवनागरी में शाया की फ़िल्म हीर-रांझा की स्क्रिप्ट 11. नज़्में, ग़ज़लें और गीत (राजपाल एंड संस)।

कैफी को नवाज़ा गया इन एजाजों से

पद्मश्री, साहित्य अकादमी फेलौशिप, साहित्य अकादमी अवार्ड, महाराष्ट्र गौरव अवार्ड -महाराष्ट्र सरकार, दिल्ली सरकार राज्य अवार्ड, सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड, अफ्रो-एशियन राइटर्स लोटस अवार्ड, यश भारतीय अवार्ड उप्र सरकार, पूर्वांचल विश्वविद्यालय, आगरा यूनिवर्सिटी और शांति निकेतन की विश्वभारती वगैरह से डॉक्टरेट।

साथ ही उनके गांव मिजवान जाने वाली सड़क का नाम कैफ़ी आज़मी रोड, सुल्तानपुर-फूलपुर हाईवे का नाम कैफ़ी आज़मी हाई-वे, दिल्ली से आज़मगढ़ ट्रेन का नाम कैफ़ियत एक्सप्रेस, मुंबई के जुहू में कैफ़ी आज़मी पार्क, दिल्ली में आरके पुरम के पास कैफ़ी आज़मी रोड।

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कैफ़ी आज़मी की एक ग़ज़ल

कभी जुमूद कभी सिर्फ इंतिशार सा है
जहां को अपनी तबाही का इंतिज़ार सा है।

मैं किसको अपने ग़रीबान के चाक दिखलाऊं
कि आज दामन-ए- यज़दां भी तार-तार सा है।
सजा-संवार के जिसको हज़ार नाज़ किए
उसी पर ख़ालिक़-ए- कौनेन शर्म-सार सा है।

सब अपने पांव पे रख-रख के पांव चलते हैं
ख़ुद अपने कांधे पर हर आदमी सवार सा है।
जिसे पुकारिए मिलता है खंडहर से जवाब
जिसे भी देखिए माज़ी के इश्तेहार सा है।

हुई तो कैसे बयाबां में आ के शाम हुई
कि जो मज़ार यहां है, मेरा मज़ार सा है।
कोई तो सूद चुकाए, कोई तो ज़िम्मा ले
उस इंकिलाब का, जो आज तक उधार सा है।

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