जोर से बाज़ आए पर बाज़ आएँ क्या

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ग़ालिब की ग़ज़ल और अशआर का मतलब

जोर से बाज़ आए पर बाज़ आएँ क्या
कहते हो हम तुझको मुँह दिखलाएँ क्य ा

Aziz AnsariWD
कहते हैं अब हम आप पर ज़ुल्म नहीं करेंगे, लेकिन क्या ऐसा हो सकता है? वो सिर्फ़ कहते हैं। अब उन्होंने ज़ुल्म करने का नया बहाना तलाश कर लिया है। कहते हैं हमने आप पर इतने ज़ुल्म किए हैं के हम आपको मुँह दिखाने के क़ाबिल नहीं हैं। इसलिए आपके सामने नहीं आ रहे हैं। सामने नहीं आना, मिलना-जुलना बन्द कर देना यही तो ज़ुल्म है। जो वो बराबर कर रहे हैं।

रात दिन गरदिश में हैं सात आसमाँ
हो रहेगा कुछ न कुछ घबराएँ क्या

कहते हैं सारी बलाएँ, सारी मुसीबतें आसमान से ही आती हैं। सातों आसमान रात-दिन गरदिश कर रहे हैं यानी मुसीबतें बरसा रहे हैं इसलिए इन से क्या घबराना। जो कुछ होना है हो जाएगा।

लाग हो तो उसको हम समझें लगाव
जब न हो कुछ भी तो धोका खाएँ क्या

हमसे उन्होंने किसी तरह का कोई तअल्लुक़ नहीं रखा है। न दोस्ती का और न दुश्मनी का। किसी तरह का भी कोई रिश्ता होता तो हम उसे मोहब्बत समझते। लेकिन जब कोई रिश्ता है ही नहीं तो फिर अब धोका क्यों खाएँ।

हो लिए क्यों नामाबर के साथ साथ
यारब अपने ख़त को हम पहुँचाएँ क्या

नामाबर यानी ख़त ले जाने वाला। हमने उसे उन तक पहुँचाने के लिए ख़त दिया। और ये क्या उसके साथ-साथ हम भी चलने लगे। यारब ऐसा क्यों हो रहा है। क्या ख़त पहुँचाने हम ख़ुद जा रहे हैं। ये तो कोई अच्छी बात नहीं।

मौज-ए-ख़ूँ सर से गुज़र ही क्यों न जाए
आसतान-ए-यार से उठ जाएँ क्या

एक जगह दाग़ ने कहा था 'हज़रत-ए-दाग़ जहाँ बैठ गए, बैठ गए'। बस यही तेवर इस शे'र में ग़ालिब साहब के भी हैं। कहते हैं अब ख़ून के दरिया ही क्यों न बह जाएँ, हम तो अब उनके दर से नहीं उठेंगे।

उम्र भर देखा किए मरने की राह
मर गए पर देखिए दिखलाएँ क्या

हमारे साथ उनका बरताव इतना सख़्त था के हम हमेशा अपनी मौत का इंतिज़ार करते रहे और हमें मौत आ भी गई। अब हमारे मरने के बाद हम पर वो क्या ज़ुल्म करते हैं, यही देखना है।

पूछते हैं वो के ग़ालिब कौन है
कोई बतलाओ के हम बतलाएँ क्या

तमाम उम्र हम उनके इश्क़ में मुबतिला रहे। लेकिन आज भी वो यही कह रहे हैं के ये ग़ालिब कौन है? यहाँ तक के वो मुझसे ही पूछते हैं के मैं कौन हूँ? अब मैं उन्हें क्या जवाब दूँ। काश कोई उन्हें मेरे बारे में बता दे के मैं कब से उनका दीवाना हूँ।

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