ग़ालिब के अशआर और उनके माअनी

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नक़्श फ़रयादी है किस की शोख़िए तहरीर का,
कागज़ी है पैरहन हर पैकर-ए-तस्वीर का ।

ख़ुदा की बनाई हुई हर चीज़ फ़ना होने वाली है। हर चीज़, हर तस्वीर का लिबास काग़ज़ का है जो कभी भी जल सकता है, गल सकता है, फ़ना हो सकता है।

कावे कावे सख़्त जानी हाय तन्हाई न पूछ,
सुबह करना शाम का, लाना है जू-ए-शीर का।

मैं जिन मुश्किलों और मुसीबतों से अपने अकेलेपन को, अपनी तन्हाई को गुज़ार रहा हूँ वो किसी को क्या बताऊँ? ये काम इतना मुश्किल है जैसे पहाड़ खोद कर दूध की नहर निकाल कर लाना।

जज़बा-ए-बेइख़्तियार-ए-शौक़ देखा चाहिए,
सीना-ए-शम्शीर से बाहर है दम शम्शीर का।

मुझे शहीद होने का, क़त्ल होने का इतना ज़बरदस्त शौक़ है के क़ातिल की तलवार भी बेक़ाबू हो गई है और उसका दम बाहर निकला आ रहा है, के कब इसे क़त्ल कर डालूँ।

बस के हूँ ग़ालिब! असीरी में भी आतिश ज़ेर-ए-पा
मू-ए-आतिश दीदा है हलक़ा मेरी ज़ंजीर का।

मैं क़ैद में हूँ और बेचैनी की आग में ऐसा जल रहा हूँ के मेरे पैरों की ज़ंजीर का हर बल एक जले हुए बाल की तरह हो गया है।
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