अपने ही शहर में बेगाने हैं मिर्जा ग़ालिब

भाषा
आगरा। ऐतिहासिक शहर आगरा में जन्मे और अपना प्रारंभिक जीवन यहीं बिताने वाले मशहूर शायर मिर्जा ग़ालिब आज की तारीख में आगरा की भीड़भाड़ तथा आधुनिक चकाचौंध में गुम से हो गए हैं।


आज की पीढ़ी को मिर्जा ग़ालिब के बारे में शायद ही इस हकीकत का पता हो कि शायरी का बेताज बादशाह आगरा की सरजमीं पर जन्मा और पला-बढ़ा था। आगरा में अब ग़ालिब की स्मृतियों के नाम पर केवले दो मोहल्ले छोटा ग़ालिबपुरा और बड़ा ग़ालिबपुरा शेष हैं। यही कारण है कि इस ऐतिहासिक विश्व विरासत वाले शहर आगरा में इस महान शायर की स्मृतियों के कोई अवशेष भी अब सुरक्षित नहीं हैं।

मिर्जा ग़ालिब का जन्म आज से 216 वर्ष पूर्व 27 दिसम्बर 1797 को आगरा के पीपल मंडी क्षेत्र में हुआ था। इनका पूरा नाम असदउल्ला खां गालिब था। जीवन की प्रारम्भिक शिक्षा भी इन्होंने यहीं से पूरी की।

इस संबंध में मिर्जा ने खुद एक जगह जिक्र किया है कि हमारी बड़ी हवेली वह है जो लखीचंद सेठ ने खरीद ली है। उसी के दरवाजे की संगीन बारादरी पर मेरी नशिस्त थी और पास उसके एक खटिया वाली हवेली और शलीम शॉल के तकिए के पास एक दूसरी हवेली और काला महल से लगी हुई एक और हवेली और उसके आगे बढ़कर एक कटरा जो गड़रिया वालों के नाम से मशहूर था। एक और कटरा जो कश्मीरन वाला कहलाता था, इस कटरे के एक कोने पर मैं पतंग उड़ाता था और राजा बलवान सिंह से पतंग लड़ाया करता था।

ग़ालिब ने जिस बड़ी हवेली का जिक्र किया है वह आज भी पीपल मंडी आगरा में है। इसी क्षेत्र का नाम काला महल है। किसी जमाने में यह राजा गज्ज सिंह की हवेली कहलाती थी, जो जोधपुर के राजा सूरज सिंह के बेटे थे और जहांगीर के जमाने से यहां रहते थे।

 

अगले पन्ने पर, इस तरह मिर्जा ग़ालिब बन गए मिर्जा...


मात्र 10 वर्ष की उम्र में ही बेमिसाल शायरी करने वाले मिर्जा ने अपने शायराना सफर को अशद उपनाम से शुरू किया, जिसे बाद में सारी दुनिया ने मिर्जा ग़ालिब के नाम से पुकारा।

13 वर्ष की उम्र होते-होते वे आगरा छोड़ दिल्ली चले गए, जहां उनकी शादी नौ अगस्त 1810 को दिल्ली के प्रसिद्ध शायर इलाही बख्श खां मारूफ की बेटी उमराव बेगम से हुई इसलिए दिल्ली वाले उन्हें मिर्जा नौशा भी कहते थे।

मिर्जा को मुगल शहंशाह बहादुर शाह जफर की ओर से नजमुद्दौला, दबीरुलमुल्क, निजाम जंग की उपाधियां भी मिली थीं, लेकिन बहादुर शाह जफर के पतन के साथ ही मुगल सल्तनत धीरे-धीरे समाप्त हो गई, जिससे मिर्जा साहब की तकलीफें बढ़ती गईं।

वर्ष 1857 की क्रांति के बाद अंग्रेज हुकूमत ने मिर्जा साहब की पेंशन तक बंद कर दी। अपने आखिरी दिनों की तकलीफ मिर्जा साहब ने अपने शेरों में बयां की है।

उन्होंने लिखा कि दमें वापिस व सरे राह है, अजीजो अब अल्लाह ही अल्लाह है। मिर्जा कभी भी सही बात कहने में नहीं चूके। यही कारण है कि दुनिया के प्रति अपने व्यावहारिक दृष्टिकोण से मिर्जा ने जन्नत की हकीकत को भी बादशाह से बयान करने में गुरेज नहीं किया। उन्होंने कहा, हमको मालूम है जन्नत की हकीकत, लेकिन दिल बहलाने को ग़ालिब यह भी ख्याल अच्छा है।

अगले पन्ने पर...आखिर इस दर्द की दवा क्या है...


हालांकि मिर्जा ग़ालिब ने अपनी आखिरी सांस दिल्ली में ही ली, लेकिन आगरा में जन्म लेने के कारण वे आगरावासी ही रहे लेकिन आज उनकी स्मृतियां आधुनिक चकाचौंध में खत्म होती नजर आ रही हैं।

तिलस्मी खजाने के मानिंद शायरी करने वाले ग़ालिब की शायरी वर्षों गुजर जाने के बाद भी खत्म न होने वाला पैगाम देती है। ग़ालिब को उर्दू का पहला दानीश्वर शायर कहा जाता है। उनका लिखा, 'दीवाने ग़ालिब' आज साहित्य प्रेमियों के लिए एक पवित्र ग्रंथ का स्थान ले चुका है।

आगरा की सरजमीं के ग़ालिब आज अपने ही शहर में बेगाने से हो गए हैं। आगरा द्वारा बेगानापन दिखाए जाने पर मिर्जा का शेर- 'दिले नादान तुझे हुआ क्या है, आखिर इस दर्द की दवा क्या है' और 'हमको उनसे है वफा की उम्मीद जो नहीं जानते वफा क्या है' आज बिलकुल सटीक बैठता है। (भाषा)
Show comments

ग्लोइंग स्किन के लिए चेहरे पर लगाएं चंदन और मुल्तानी मिट्टी का उबटन

वर्ल्ड लाफ्टर डे पर पढ़ें विद्वानों के 10 अनमोल कथन

गर्मियों की शानदार रेसिपी: कैसे बनाएं कैरी का खट्‍टा-मीठा पना, जानें 5 सेहत फायदे

वर्कआउट करते समय क्यों पीते रहना चाहिए पानी? जानें इसके फायदे

सिर्फ स्वाद ही नहीं सेहत के लिए बहुत फायदेमंद है खाने में तड़का, आयुर्वेद में भी जानें इसका महत्व

इन विटामिन की कमी के कारण होती है पिज़्ज़ा पास्ता खाने की क्रेविंग

The 90's: मन की बगिया महकाने वाला यादों का सुनहरा सफर

सेहत के लिए बहुत फायदेमंद है नारियल की मलाई, ऐसे करें डाइट में शामिल

गर्मियों में ये 2 तरह के रायते आपको रखेंगे सेहतमंद, जानें विधि

क्या आपका बच्चा भी चूसता है अंगूठा तो हो सकती है ये 3 समस्याएं