'अज़ीज़ अंसारी की ग़ज़ल'

Webdunia
मज़मून निगार : सुल्तान सुबहानी

Aziz AnsariWD
' बोले मेरी ग़ज़ल' के अशआर ने जब मुझसे बोलना शुरू किया तो मुझे ऐसा लगा जैसे मेरे एक शाने पर बहार ने हाथ रख दिया हो और दूसरे शाने पर ख़िज़ाँ ने, और यूँ महसूस हुआ के आसपास दुनिया के बहुत सारे मनाज़िर यक बयक रोशन होकर क़तारों मे खड़े हो गए हों।

इन मनाज़िर में कहीं आग लगी हुई है। कहीं किसी मस्जिद को शहीद किया जा रहा है। कहीं जेल की पुख़ता दीवारें हैं। कहीं तितलियों के रंगीन पर। कहीं उठता हुआ धुआँ। कहीं ओई डूबता हुआ जहाज़। कहीं फ़ौजी जवान और किसान। कहीं चाँद और कहकशाँ। कहीं हाथ में कोई ख़ूबसूरत फूल और कहीं माँ की दुआओं का शामियाना। मेरे कमरे का माहौल ही तबदील हो गया और जब मैं ने मनज़रों के ज़हूर पर ग़ौर किया तो एक आवाज़ आई।

मैं अक्सर चाँद पर जाता हूँ शाइर आदमी हूँ
पलट कर फिर यहीं आता हूँ आख़िर आदमी हूँ

ये आवाज़ अज़ीज़ अंसारी की है। इस आवाज़ ने मेरे गिर्द एक ऐसा ख़ते-हिसार खींच दिया के मैं शायद इससे बाहर नहीं जा सकता क्योंकि मैं भी आख़िर एक आदमी ही हूँ और 'बोले मेरी गज़ल' के अशआर ने जो नज़ारे मेरी आँखों में चमकाअ दिए हैं उनमें हक़ीक़त भी है, तिलिस्म भी और दुनिया शनासी भी। शायद इसी बाइस इस किताब के अशआर दिल में तेहनशीं हो गए हैं।

ग़ज़ल एक ऐसी सिंफ़े-सुख़न है जो किसी मख़सूस असलूब की पाबंद नहीं है। इसकी तर्ज़े-अदा सितारों की तरह नाक़ाबिले-शुमार है। अगरचे इस के हैय्यती फ़ार्म में (आज़ाद ग़ज़ल से क़ता नज़र) कोई तबदीली अमल में नहीं आई है, इसके बावजूद ये हर दौर में ज़्यादा से ज़्यादा नई होती रही है। अज़ीज़ अंसारी नेजो तर्ज़े-सुख़न इख़्तियार किया है उससे ग़ज़ल के दायरे में कुछ नये इमकानात रोशन होते हैं।

वो हर क़िस्म के जज़्बात-ओ-मेहसूसात और मज़ामीन को ग़ज़ल में समोने की कोशिश करते हैं। उनका लेहजा कहीं सादा, कहीं शगुफ्ता,कहीं तेज़ और कहीं गरजदार होता है। वो खुरदुरे और आम बोलचाल की ज़ुबान को भी अपने पेरायाऎ-इज़हार में जगह देते हैं और अलामत-ओ-तमसील के तेहदार रम्ज़िया और शाहाना अन्दाज़े-कजकलाही को भी। यानी ज़ोए अंसारी की ज़ुबान में उन्होंने काफ़ी 'माल' जमा कर रखा है।

अज़ीज़ अंसारी की देवनागरी र्स्मुलख़त में शाए शुदा साबेक़ा तसनीफ़ 'कुछ ग़ज़लें-कुछ गीत' के तबसिरे में एक जगह मैंने तक़रीबन इन्हीं नुकात को यूँ उजागर किया था। 'अज़ीज़ अंसारी के लेहजे में कैफ़ियात का मद-ओ-जज़र मुख़तलिफ़ ज़ाएक़ों का एहसास फ़राहम करता है।

कहीं मोसीक़ी की तरह पुरसुकून और ख़्वाबनाक लगता है। कहीं गुफ़्तगू की तरह शीरीं और शाइस्ता और कहीं इतना शदीद के जैसे कोई झंझोड़ा जा रहा हो। उनके लेहजे की ये कैफ़ियात उन्हें कई तरफ़ से वार करने और क़्क़रईन को कई तरफ़ से मोतास्सिर करने के वस्फ़ पर मुकमाल इख़्तियार रखती हैं। इन तीनों कैफ़ियात के अशआर यूँ हैं।

1. शबनम के सामने जो खड़ी हो गई है धूप
लगता है मोतियों की लड़ी हो गई है धूप

2. तुम हो क्या, ये तुम्हें मालूम नहीं है शायद
तुम बदलते हो तो मौसम भी बदल जाते हैं

3. हमारे क़त्ल को मीठी ज़ुबान है काफ़ी
अजीब शख़्स है ख़ंजर तलाश करता है

अज़ीज़ अंसारी ने अपनी ग़ज़ल को क्लासिकी रिवायत से जोड़ने के साथ साथ तरक़्क़ी पसन्दी और जदीदियत के इम्तियाज़ से भी मुनव्वर किया है। वो अपनी ग़ज़ल में तहज़ीबों के उतार चढ़ाव में गुमशुदा इंसान को तलाश करते हुए और अख़लाक़ी क़दरों की शिकस्त-ओ-रेख़्त के अलमिये में ज़मीर को निहायत फ़नकाराना अन्दाज़ से ताजदार करते हुए नज़र आते हैं।

झूट का लेके सहारा जो उभर जाऊँगा
मौत आने से नहीं शरम से मर जाऊँगा

उन्होंने ग़ज़ल को सिर्फ़ इज़हारे-जज़्बात का आईना ही नहीं बनाया है बल्कि उसके हाथ में हक़गोई और अद्ल की मीज़ान भी दे दी है। वो शेरियत और लफ़ज़ियात की निगाराई ज़्यादा मज़मून आफ़्रीनी को एहमियत देते हैं।

जो जैसा है उसको वैसा बोले मेरी ग़ज़ल
आँख पे पट्टी बाँधके सबको तोले मेरी ग़ज़ल

अज़ीज़ अंसारी ने अपनी ग़ज़ल को निहायत ख़ुद ऐतमादी के साथ नए असरी एहसासात से आश्ना करने की कोशिश की है। अगर वो एक तरफ़ खुरदुरे मोज़ूआत को अपने अशआर में जलवानुमा करते हैं

ऊँची पुख़ता दीवारें हैं क़ैदी कैसे भागेगा
जेल के अन्दर से रस्ता हो, ये भी तो हो सकता है

तो दूसरी तरफ़ इज़हार के सलीक़े से लतीफ़ जज़्बात-ओ-एहसासात के तारों को भी झनझनाने पर मजबूर करते हैं।

रात गए जब लफ़्ज़ों की बरसात हुई
एक मुरस्सा नज़्म हमारी ज़ात हुई

फूल जो दिल की रेहगुज़ार में है
जाने किस के वो इंतिज़ार में है

दुनिया भर की रंगीनी
तितली के इक पर में है

सर्द हवा में उसके बदन पर आँचल उड़ते देखा है
पानी वाला बादल जैसे सैर करे गुलज़ारों पर

अज़ीज़ अंसारी के कलाम का सबसे अहम पहलू वो है जिसमें उन्होंने शहरों, देहातों, और गलियों की माहौल निगारी की है। वो इंसान के बहुत अन्दर तक उतर जाते हैं। उसकी नफ़सियात, उसके तर्ज़े-अमल और उसकी ख़्वाहिशों का जायज़ा लेते हैं। उन्हें ये एहसास होता है के मआशरती, समाजी और तबक़ाई कशमकश में उलझे हुए इंसान के अन्दर की दुनिया बहुत तबदील होती जा रही है। उस की कुछ ख़ुसूसियात गुम हो गई है। वो शायद ग़ैर इंसानी रवय्यों की तरफ़ बढ़ रहा है। इन एहसासात के पेशे-नज़र उनका लेहजा कहीं फूल जैसा और कहीं काँटों की तरह नोंकदार हो जाता है।

दरास्ल हक़ीक़त निगारी का फ़न मुख़तलिफ़ पेरायाए-इज़हार चाहता है और वो इसमें कामयाब हैं।

बूए-ख़ुलूस, ख़ूऐ-इताअत नहीं रही
बच्चों में बात सुनने की आदत नहीं रही

यक़ीं ज़रा भी नहीं अपने ज़ोर-ए-बाज़ू पर
हथेलियों में मुक़द्दर तलाश करता है

पेड़ अपना है तो साया भी हो अपने सेहन में
इसलिए हमसाए शाख़ें मुख़्तसर करने लगे

अब मैं शायद नज़्रे-तूफ़ाँ हो गया
लोग साहिल पर नज़र आते नहीं

रहने वाले यहाँ, लोग ही लोग हैं
दिल का ख़ाली मकाँ, लोग ही लोग हैं

अज़ीज़ अंसारी ने अपनी ग़ज़ल में अदब, मज़हब और सियासत के दरवाज़ों पर भी दस्तक दी है। वो रिवायत के तहफ़्फ़ुज़ के लिए भी कोशाँ हैं और ग़ज़ल को नए तसव्वुरात से आश्ना करने की कोशिश में भी सरगरदाँ हैं। उनके इस क़िस्म के अशआर का इनतिख़ाब चूँकि काफ़ी तवील है इसलिए मिसाल के तौर पर कुछ ही अशआर पेश कर रहा हूँ।

सिर्फ़ ज़र्रा हूँ अगर देखिए मेरी जानिब
सारी दुनिया में मगर रोशनी कर जाऊँगा

उसके करम की बात न पूछो, साथ वो सबके होले है
इक दरवाज़ा बन्द अगर हो, सौ दरवाज़े खोले हैं

सरों पे माँ की दुआओं का आशियाना है
हमारे पास तो अनमोल ये ख़ज़ाना है

बहुत दिनों से थमा हुआ है बीच समन्दर एक जहाज़
धीरे धीरे डूब रहा हो ये भी तो हो सकता है

जैसा मौक़ा देखे वैसी होले मेरी ग़ज़ल
वो बातें जो मैं नहीं बोलूँ बोले मेरी ग़ज़ल

तमाम सेह्न-ए-चमन बिजलियों की ज़द में है
मगर हमें तो यहीं आशियाँ बनाना है

इन अशआर से अन्दाज़ा होता है के अज़ीज़ अंसारी की ग़ज़ल रिवायत और नये तसव्वुरात दोनों को अपनी गिरफ़्त में लिए हुए है। 'बोले मेरी ग़ज़ल' के अशआर से नुकते का भी इज़हार होता है के अज़ीज़ अंसारी किसी मख़सूस शेरी असलूब या रुजहान पर अमल पैरा नहीं हैं। अगर्चे उनकी गज़ल बहार और ख़िज़ाँ दोनों के बीच में से गुज़र रही है। लेकिन नज़रें नीची किए हुए नशीं बलके सर उठाए हुए और आसपास के तमाम मनाज़िर पर तवज्जा मबज़ूल किए हुए। यानी उनकी ग़ज़ल देखती भी है।

यक़ीन है अज़ीज़ अंसारी के इस मुनफ़रिद शे'री सरमाए को क़ारेईन क़द्र की निगाह से देखेंगे और 'बोले मेरी ग़ज़ल' के अशआर अदबी दुनिया से हमेशा मेहव-ए-गुफ़्तगू रहेंगे और कभी ख़ामोश न हो सकेंगे। क्योंके अज़ीज़ अंसारी ने अपने तख़लीक़ी सफ़र में ख़ला नवरदी या मेहताब नवरदी के बावजूद ज़मीन से अपना रिश्ता बहुत मुस-तहकम रखा है। ये फ़नकाराना दानिशवरी भी है और सच्चा इज़हार भी।

मैं अक्सर चाँद पर जाता हूँ शाइर आदमी हूँ
पलट कर फिर यहीं आता हूँ आख़िर आदमी हूँ

ये शे'र उनके पूरे शे'री सफ़र का अहाता किए हुए हैं और उनका ये सफ़र हर लिहाज़ से क़ाबिल-ए-ऎतबार है।
सुल्तान
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