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अब रोए कि तब रोए) अब सोचा कि माणिक दादा से भोपाल मोबाइल पर बात करके उनका फोटो तुरंत मेल (इंटरनेट) से मंगवा लेता हूं। उनसे बात की, तो लगा ही नहीं कि इतने बड़े कवि से बात हो रही है। अव्वल तो उन्होंने 'ओम' के बिना हिन्दी कवि सम्मेलनों का एक साल बेहद सूना गुज़रने की बात कही। मुझे भी बहुत अपनेपन से हर बार 'बेटे' कह कर ही संबोधित किया। बात-बात में इतने जज़्बाती हो गए, ऐसा लगा कि अब रोए कि तब रोए। और भी तमाम बातें हुईं। माणिक वर्मा जी की सादगी समझने के लिए नज़र स्व.'ओम' को लेकर दिए उनके वक्तव्य पर नज़र डालना भी ज़रूरी है। उन्होंने कहा था कि-
' ओम को गए यूं तो एक साल गुज़र गया लेकिन उसका छोड़ा हुआ सूनापन आज तक नहीं भर पाया। हमने देश-दुनिया के बेहिसाब मंच साथ पढ़े। वो किसी भी मंच की ज़ीनत हुआ करता था। 'ओम' के साथ ओमप्रकाश 'आदित्य', शैल चतुर्वेदी, नीरज पुरी, अल्हड़ बीकानेरी, श्याम 'ज्वालामुखी' के रूप में हास्य-व्यंग्य की एक श्रृंखला ही चली गई। इनका जाना महज़ मानसिक कष्ट नहीं बल्िक यातनापूर्ण है।'
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ऐसे में क्या फोटो लगाओगे भईया) बहरहाल, मैंने उनका फोटो मेल से भेजने की बात कही तो बड़ी सादगी से बोले कि 'अब ऐसे में क्या फोटो लगाओगे भईया।' उनका आशय इस दुख भरे वाकए से था। मैंने कहा कि 'दादा' ज़रूरी है, तुरंत मेल से भिजवा दीजिए, तो डिस्पैच के साथ लग भी जाएगा और कल अख़बार में प्रकाशित हो जाएगा। मैं नहीं चाहता कि इतना महत्वपूर्ण डिस्पैच किसी के फोटो के बिना जाए। मेल और इंटरनेट का नाम सुनकर तो जैसे वो अवाक् रह गए। उनकी आवाज़ से ऐसा लगा जैसे हम छठी शताब्दी में रह रहे हों और मैंने उनसे 21वीं सदी की बात कर ली हो। बोले कि 'बेटे, ये इंटरनेट-विंटरनेट के चक्कर में मत फंसाओ यार।
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इंटरनेट वाले के पास नहीं होगा अपना फोटो) मैंने निराशापूर्ण लहजे में कहा कि दादा, ये तो हद हो गई। इंटरनेट पर ज़माने भर के फोटो हैं, बस्स आपका ही फोटो नहीं मिला। ये तो ग़लत बात है। इस पर भी वो मुस्कुराए और बोले कि भईया इंटरनेट पर तो बड़े-बड़े लोगों के फोटो होते होंगे शायद, अपन तो ज़मीन से जुड़े हुए छोटे लोग हैं यार। इस पर मैंने कहा कि दादा ऐसी कोई बात नहीं है। तो बोले कि इंटरनेट के फोटोग्राफर के पास हमारा कोई फोटो होगा नहीं इसलिए नहीं मिला होगा आपको, अगर उसके पास हमारा फोटो होता तो वो लगाता क्यूं नहीं।