ग़ालिब : व्यक्तित्व और कृतित्व

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नूरनबी अब्बासी/डॉ. नूरुलहसन नक़वी

मिर्जा़ की लोकप्रियत ा

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मिर्जा़ उन बिरले कवियों में से हैं जिनको चाहे अभीष्ट प्रशंसा उनके जीवन में न मिली हो किंतु उनकी योग्यता और विद्वत्ता की धाक सभी पर जमी हुई थी। हिंदुस्तान के विभिन्न प्रदेशों में उनके शिष्य थे जिनमें उस समय के नवाब, सामंत, सरकारी पदाधिकारी सभी शामिल थे। नवाब रामपुर के और कुछ दिनों के लिए बहादुरशाह 'जफ़र' के भी वे उस्ताद थे, लेकिन उनके अतिरिक्त बंगाल में मैसूर के राजवंशके सदस्य राजकुमार बशीरउद्दीन और ख़ान बहादुर अब्दुल गफूर 'नस्साख़', सूरत में मीर गुलाम बाबा खाँ, लोहारू के सुपुत्र मिर्जा़ अलाउद्दीन और उनके भाई नवाब ज़ियाउद्दीन मिर्जा़ के शिष्य थे।

बड़ौदा-नरेश नवाब इब्राहीम अली ख़ाँ अपनी ग़ज़लें संशोधन के लिए भेजते थे और अलवर के महाराजा मिर्जा़ के प्रशंसक थे। इलाहाबाद में यद्यपि ख़ान बहादुर मुंशी गुलाम गौस 'बेखबर' 'क़ात-ए-बुरहान' के विवाद में मिर्जा़ से सहमत न थे, लेकिन उनके महान् काव्य की प्रशंसा भी करते थे। इसी प्रकार पंजाब में उनकी 'दस्तंबू' बहुत लो‍कप्रिय हुई और वहाँ उनके उर्दू पत्रों की भी भारी माँग थी।

हैदराबाद के समृद्ध लोगों ने उनका उतना मान नहीं किया जितना उन्हें अपेक्षित था और यद्यपि उन्होंने वहाँ के शासक नवाब मुख्तार-उल-मुल्क की प्रशंसा में जो सुंदर क़सीदा 1861 में लिखकर भेजा था उसका उन्हें कोई समुचित प्रतिफल नहीं मिला था किंतु वहाँ के अलावा, शेष हिंदुस्तान में उनके प्रशंसकों और सम्मान करने वालों की कमी नहीं थी। उनकी ख्‍याति इतनी फैल गई थी और लोग उनकी शायरी से इतने प्रभावित थे कि उनसे मिलने और दर्शन करने के लिए दूर-दूर से दिल्ली आते थे।

हिंदुस्तान के बड़े-बड़े सूफियों में उस युग के एक स्वतंत्र विचारक, वयोवृद्ध शाह ग़ौस कलंदर का स्थान अनन्य है। उनके तज़किरे, 'तज़किर-ए-ग़ौसिया' में उनकी सूक्तियाँ और उपदेश संग्रहीत हैं। शाह साहब मिर्जा़ के जीवन से भली प्रकार परिचित थे और इसीलिए वे भी उनसे मिलने गए थे। दोनों का स्वभाव एक-सा होने के कारण उनमें शीघ्र ही दोस्ती हो गई और मिर्जा़ और शाह साहब की मुलाकातों का जिक्र शाह साहब ने 'तज़किर-ए-ग़ौसिया' में इन शब्दों में किया है :

' एक रोज़ हम मिर्जा़ नौशा के मकान पर गए, निहायत हुस्न-ए-अख़लाक़ से मिले, लब-ए-फर्श़, तक आकर ले गए और हमारा हाल दरियाफ़्त किया। हमने कहा, 'मिर्जा़ साहब, हमको आपकी एक ग़ज़ल बहुत ही पसंद है, खुसूसन यह शेर :

तू न क़ातिल हो कोई और ही हो
तेरे कूचे की शहादत ही सही'

कहा, 'साहब, यह शेर तो मेरा नहीं किसी उस्ताद का है। फ़िल हक़ीक़त निहायत ही अच्छा है।' उस दिन से मिर्जा़ साहब ने यह दस्तूर कर लिया कि दूसरे-तीसरे दिन ज़नत-उल-मसाजिद में हमसे मिलने को आते और एक ख़्वान खाने को साथ लाते।

कहा, 'साहब, यह शेर तो मेरा नहीं किसी उस्ताद का है। फ़िल हक़ीक़त निहायत ही अच्छा है।' उस दिन से मिर्जा़ साहब ने यह दस्तूर कर लिया कि दूसरे-तीसरे दिन ज़नत-उल-मसाजिद में हमसे मिलने को आते और एक ख़्वान खाने को साथ लाते।
हरचंद हमने उजर किया कि यह तकलीफ़ न कीजिए, मगर वह कब मानते थे। हमने खाने के लिए कहा तो कहने लगे कि 'मैं इस क़ाबिल नहीं हूँ मैख़्वार, रूसियाह, गुनहगार। मुझको आपके साथ खाते हुए शर्म आती है।' हमने बहुत इसरार किया तो अलग तश्तरी में लेकर खाया। उनके मिज़ाज़ में कस्त्र-ए-नफ़सी और फ़िरोतनी (नम्रता) थी।

' एक रोज़ का ज़िक्र है कि मिर्जा़ रज़ब अली बेग 'सुरूर', मसुन्निफ़ 'फ़साना-ए- अजायब' लखनऊ से आए, मिर्जा़ ‍नौशा से मिले। अस्ना-ए-गुफ़्तगू में पूछा कि 'मिर्जा़ साहब, उर्दू ज़बान किस किताब की उम्दा है' कहा, 'चार दरवेश की।' मियाँ रजब अली बोले, 'और 'फ़साना-ए-अजायब' की कैसी है?' मिर्जा़ बेसाख़्ता सहसा कह उठे, 'अजी लाहौल वलाकूवत। उसमें लुत्फ़-ए-ज़ुबान कहाँ?

एक तुकबंदी और भटियारख़ाना जमा है।' उस वक्त तक मिर्जा़ नौशा को यह ख़बर न थी कि यही मियाँ 'सुरूर' हैं। जब चले गए तो हाल मालूम हुआ, बहुत अफ़सोस किया और कहा कि 'हज़रत, यह अम्र मुझसे नादानिस्तगी (अनजाने) में हो गया है, आइए, आज उसके मकान पर चलें और कला की मुकाफ़ात (प्रत्यपकार) कर आएँ।' हम उनके हमराह हो लिए और मियाँ 'सुरूर' की फ़िरोदगाह (अस्थायी निवास) पर पहुँचे।

मिज़ाजपुर्सी के बाद मिर्जा़ साहब ने इबादत-आराई का ज़िक्र छेड़ा और हमारी तरफ मुख़ातिब होकर बोले कि 'जनाब मौलवी सहब, रात मैंने 'फ़साना-ए-अजायब' को बग़ौर देखा तो उसकी ख़बि-ए-इबारत और रंगीनी का क्या बयान करूँ। निहायत ही फसीह और बलीग़ (मुहावरेदार और अलंकारपूर्ण) इबारत है। मेरे क़यास में तो ऐसी उम्दा नस्र न पहले हुई, न आगे होगी। और क्यूँकर हो उसका मुसन्निफ़ अपना जवाब नहीं रखता।'

ग़रज़ इस किस्म की बहुत-सी बातें बनाईं। अपनी खाकसारी और उनकी तारीफ करके मियाँ 'सुरूर' को निहायत मसरूर किया। दूसरे दिन दावत की और हमको भी बुलाया। उस वक्त भी मियाँ 'सुरूर' की बहुत तारीफ़ की। मिर्जा़ साहब का मज़हब यह था कि दिलआज़ारी (दिल दुखाना) बड़ा गुनाह है।

एक दिन हमने मिर्जा़ ग़ालिब से पूछा कि 'तुमको किसी से मुहब्बत भी है?' कहा कि, 'हाँ हज़रत अली मुर्तज़ा से।' फिर हमसे पूछा कि 'आपको?' हमने कहा, 'वाह साहब, आप तो मुग़ल बच्चा होकर अली मुर्तुज़ा का दम भरें और हम उनकी औलाद कहलाएँ और मुहब्बत न रखें क्या यह बात आपके क़यास (अनुमान) में आ सकती है?'

जब मिर्जा़ का निधन हुआ, शाह साहब ज़िंदा थे। किसी ने आकर यह खबर सुनाई, शाह साहब ने बड़ा अफ़सोस किया। कई हसरत भरे शेर पढ़े और मिर्जा़ के बारे में कहा, 'निहायत खूब आदमी थे। इज्ज़-ओ-इंकसार (विनम्रता) बहुत थी, फक़ीर दोस्त बदर्ज-ए-ग़ायन (अत्यधिक) और ख़लीक़ अज़हद थे।'

धार्मिक विश्वास
जहाँ तक मिर्जा़ के धार्मिक विश्वास का संबंध है यह बात आज भी संदिग्ध बनी हुई है कि वे शिया थे या सुन्नी। इस संबंध में हमारी जानकारी का आधार उनकी अपनी रचनाएँ हैं जिनमें स्वयं इतना अंतर्विरोध है कि उससे हम कोई निष्कर्ष नहीं निकाल सकते। बहुत-सी बातें ऐसी हैं कि जिनके पीछे कोई आस्था या विश्वास नहीं है बल्कि वे उन्होंने दूसरों की दिलजोई और उनकी सह‍मति के लिए कह दी है। इसना अशरी मित्रों को पत्र लिखे हैं तो उनमें अपने आपको शिया और इसना अशरी प्रकट किया है। मिर्जा़ हातिब अली 'मेहर' को एक पत्र में लिखते हैं :

' साहब बंदा इसना अशरी हूँ। हर मतलब के ख़ात्मे पर 12 का हिंदसा करता हूँ। ख़ुदा करे कि मेरा ख़ात्मा इसी अक़ीदे पर हो।' इस पत्र में हर वाक्य के बाद 12 का अंक लिखा है, लेकिन यही बात उनके अन्य पत्रों में नहीं मिलती।

नवाब अलाउद्दीन ख़ाँ सुन्नी थे। अपने धार्मिक विश्वास के बारे में उन्हें जो पत्र लिखा है उसमें लिखते हैं :

' मैं मुवाहिद-ए-ख़ालिस और मोमिन-ए-कामिल हूँ। ज़बान से लाइलाहा इल्लल्लाह कहता हूँ और दिल में लामौजूद इल्लल्लाह ला मुवस्सिर फ़िल वजूद अल्लाह समझे हुए हूँ। मुहम्मद अलैहिस्स लाम पर नबूवत ख़त्म हुई। ये ख़त्म-उल-मुर्सलीन और रहमत-उल-आलमीन हैं। मक़्ता नबूवत का मतला इमारत, इमामत न इजमाई बल्कि मिन अल्ला है। और इमाम मिनअल्ला अली अलैहिस्सलाम हैं। सुम्माहसन, सुम्मा हुसैन। इसी तरह तो मेहदी-ए-मौऊद अलैहिस्सलाम बरीं ज़ीस्तम हम बरीं बुग-ज़रम।'

इन दोनों उद्‍धरणों से उनका शिया होना सिद्ध हो जाता है लेकिन ऐसे साक्ष्य भी हैं जिनसे इनका खंडन हो जाता है। एक बार बहादुरशाह ने पूछा, मिर्जा़, हमने सुना है कि तुम राफ़जी हो?' मिर्जा़ ने इसका खंडन करते हुए तत्काल एक रुबाई कह दी?

रखते हैं जो मुझसे अदावत गहरी
कहते हैं मुझे शीई और दहरी
शीई क्योंकर हो जो कि होवे सूफ़ी
राफ़्ज़ी क्योंकर हो मावरा उन्नहरी

इसी प्रकार उनकी मसनवी 'दमग़-उल-बातिल' में शियत का खंडन किया गया है लेकिन जब उसके बारे में मुज्तहिद-उल-अस्‍त्र ने लखनऊ से पूछा तो उन्होंने लिख भेजा कि 'अलफ़ाज़ मेरे हैं और मज़मून बहादुरशाह का'। इस प्रकार के परस्पर-विरोधी कथनों ने इस समस्या को बहुत उलझा दिया है। जो लोग उन्हें सुन्नी समझते हैं वे अपने मत की पुष्टि में यह प्रमाण प्रस्तुत करते हैं कि मिर्जा़ वहदत-उल-वुजूद के दर्शन को मानने वाले हैं और उन्होंने मौलाना फ़खरुद्दीन के परिवार के एक सदस्य काले साहब के हाथ पर बैत भी की थी। किंतु हमें यह बात स्मरण रखनी चाहिए कि वे बँधे-टके सिद्धांतों का अंधानुकरण करने वालों में नहीं थे। वे अपना मार्ग स्वयं प्रशस्त करना जानते थे।

उनसे यह अपेक्षा भी है कि सूफी होने के बावजूद वे शिया मत की ओर प्रवृत्त हो रहे हों। यह तो बिल्कुल स्पष्ट है कि हज़रत अली के प्रति उनकी अपार श्रद्धा थी, लेकिन इससे उनका शिया होना साबित नहीं होता।

अलबत्ता उनके पत्रों में ऐसे संकेत मिल जाते हैं जिनसे शिया होना सिद्ध हो जाता है। उदाहरण के लिए वे उन लोगों को अच्‍छी नजर से नहीं देखते जो हज़रत अली पर नौमुसलिमों (हज़रत अब बक्र, हज़रत उमर और हज़रत उस्मान) को तरजीह देते हैं। एक पत्र में उन्होंने लिखा है कि पैग़ंबर-ए-इस्लाम के निधन के बाद ख़िलअत अबू बक्र, उमर और उस्मान के बाद हज़रत अली तक पहुँची। (और यह ऐतिहासिक तथ्‍य है।) लेकिन इमाम हजरत मुहम्मद के बाद हज़रत अली के हिस्से में आई। एक पत्र में यह भी लिखा है कि इमामत के मसले ने मुझे अपने पूर्वजों के धर्म से विचलित कर दिया। इन सब बातों से उनका शिया होना साबित हो जाता है। उनका 'मावराउन्नहरी' होना ठीक है और उनेक पूर्वजों का सुन्नी होना भी मान्य है, लेकिन मिर्जा़ की आस्था और उनके पूर्वजों की आस्था में अंतर था।

यह तो एक सैद्धांतिक समस्या थी। वैसे मिर्जा़ धर्म के मामले में कट्‍टर नहीं थे। आस्था और आराधना दो भिन्न बातें हैं। यह अकसर देखा गया है कि किसी व्यक्ति का धर्म में पक्का विश्वास तो है किंतु वह उस पर अमल कभी नहीं करता।

जानता हूँ सवाब-ए-ताअत-ओ-ज़ोहद
पर तबीयत इधर नहीं आती

और इस संबंध में उनकी अपनी रचनाएँ साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत की जा सकती हैं। कहते हैं, 'ज़िंदगी में एक दिन शराब न पी हो या नमाज़ पढ़ी हो तो काफ़िर।' यह तो हुई आराधना की बात, लेकिन आस्था की बात ऐसी नहीं जिससे कोई व्यक्ति खुल्लमखुल्ला छेड़छाड़ करने का दुस्साहस करे, किंतु मिर्जा़ की रचनाओं में ऐसे शेर जगह-जगह मिल जाते हैं जिनमें उन्होंने खुदा, जन्नत, दोज़ख़, हूरों और फरिश्तों के साथ मज़ाक़ किया है :

क्या वो नमरूद की ख़ुदाई थी
बंदगी में मिरा भला न हुआ

हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन
दिल के खुश रखने को ग़ालिब यह ख़याल अच्छा है

पकड़े जाते हैं फ़रिश्तों के लिखे पर नाहक़
आदमी कोई हमारा दम-ए-तहरीर भी था

क्यों न फ़िरदौस को दोज़ख़ में मिला लें यारब
सैर के वास्ते थोड़ी-सी फ़ज़ा और सही

इन अंतर्साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि मिर्जा़ एक उदारमना व्यक्ति थे और जैसा कि उन्होंने अपने एक पत्र में लिखा है कि वे हिंदू, मुसलमान, नसरानी सभी को अपना भाई समझते थे। रूढ़ि-परिपाटी के वे विरोधी थे और कैसी ही परिस्थिति हो आशावादिता नहीं छोड़ते थे।

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