गालिब के कलाम में ज़राफ़त और शोख़ी

Webdunia
- अज़ीज़ अंसार ी

WD
शायरी में ग़ालिब को सबसे ऊँचा और अहम मक़ाम हासिल है। उनकी शायरी में फ़लसफ़ा, गहराई, नुदरत और मुश्किल ख्याली अक्सर दिखाई देती है। लफ़्ज़ों का इस्तेमाल कुछ इस सलीक़े से होता है कि उसे समझने के लिए शे'र को बार-बार पढ़ना पड़ता है और जब सब कुछ समझ में आ जाता है तो शे'र एकदम सरल और आसान लगने लगता है- ग़ालिब को दोस्तों और खैरख्वाहों ने बार-बार समझाया कि अपने कलाम को आसान करें ताकि सबकी समझ में आ सके। मशवरों का ग़ालिब पर असर हुआ, रफ़्ता-रफ़्ता ग़ालिब आसान हुए जैसे

कोई उम्मीद बर नहीं आती
कोई सूरत नज़र नहीं आती

दिल ए नादाँ तुझे हुआ क्या है
आखिर इस दर्द की दवा क्या है

ऐसा कहने में ज़रा शक नहीं कि ऐसे ही अशआर ने ग़ालिब को ग़ालिब बनाया- यहाँ तक तो सब ठीक था। मगर आसान होते -होते कुछ अशआर ग़ालिब ने ऐसे भी कह दिए कि उनके शैदाइयों को यह सोचने पर मजबूर होना पड़ा के क्या वाक़ई ये ग़ालिब के अशआर हैं? उस दौर के तमाम मशाहीर शायरों के कलाम में ऐसे अशआर अक्सर मिल जाते हैं। इससे ज़ाहिर होता है कि उस ज़माने में ऐसे अशआर कहना बुरा नहीं समझा जाता था। लेकिन हम और हम जैसे हज़ारों-लाखों ग़ालिब के परस्तार हैं जिन्हें उनकी क़लम से निकले ऐसे अशआर जिनमें छेड़छाड़ और बहुत सतही प्यार-मोहब्बत की बातें हैं, अच्छे नहीं लगते।
  लफ़्ज़ों का इस्तेमाल कुछ इस सलीक़े से होता है कि उसे समझने के लिए शे'र को बार-बार पढ़ना पड़ता है और जब सब कुछ समझ में आ जाता है तो शे'र एकदम सरल और आसान लगने लगता है- ग़ालिब को दोस्तों और खैरख्वाहों ने बार-बार समझाया कि अपने कलाम को आसान करें।      


ले तो लूँ सोते में उसके पाँव का बोसा मगर
ऐसी बातों से वो काफ़िर बदगुमाँ हो जाएगा

है क्या के कस के बाँधिए, मेरी बला डरे
क्या जानता नहीं हूँ तुम्हारी कमर को मैं

बगल में गैर की आप सोते हैं कहीं वरना
सबब क्या ख्वाब में आकर तबस्सुम हाय पिन्हाँ का

हम से खुल जाओ बवक़्ते मैपरस्ती एक दिन
वरना हम छेड़ेंगे रख के उज्र ए मस्ती एक दिन

बोसा देते नहीं और दिल पे है हर लहज़ा निगाह
जी में कहते हैं मुफ़्त हाथ आए तो माल अच्छा है

मैं उन्हें छेड़ूँ और कुछ न कहें
चल निकलते जो मय पिये होते।

मेहबूब के पासबाँ को लेकर भी कुछ इसी तरह के अशआर कहे गए हैं - जैसे

दर पे रुकने को कहा और कह के कैसा फिर गया
जितने अरसे में मेरा लिपटा हुआ बिस्तर खुला

गदा समझ के वो चुप था, मेरी जो शामत आई
उठा और उठ के क़दम मैंने पासबाँ के लिए

और अब जो अशआर यहाँ रकम किए जा रहे हैं, उन्हें पढ़कर हँसी के साथ-साथ अफ़सोस भी होता है के ये ग़ालिब के अशआर हैं - जैसे

धोलधप्पा उस सरापा नाज़ का शेवा न था
हम ही कर बैठे थे ग़ालिब पेशदस्ती एक दिन

असद खुशी से मेरे हाथ-पाँव फूल गए
कहा जब उसने ज़रा मेरे पाँव दाब तो दे

गालिब से आसान होने की गुज़ारिश की गई थी, लेकिन अपना मेयार खो देने की नहीं- खुदा का शुक्र है कि उनके दीवान में ऐसे अशआर कम हैं, इसलिए तनक़ीद निगार इन्हें नज़र अंदाज़ कर देते हैं और ग़ालिब के मेयार को किसी तरह की ठेस नहीं पहुँचती।

यार से छेड़ चली जाए असद
गर नहीं वस्ल तो हसरत ही सह ी
Show comments

क्या दर्शाती है ‘लापता लेडीज’ की ऑस्कर में एंट्री, जानिए क्या है फिल्म की सबसे बड़ी USP

ऑयली बालों के चिपचिपेपन से हैं परेशान? जानें इस Festive Season में घर बैठे कैसे पाएं Oil Free Hairs

नवरात्रि में चेहरे की चमक को बनाए रखेंगी ये 5 गजब की Festive Skincare Tips

नहीं सूझ रहा बेटे के लिए बढ़िया सा नाम, तो ये हैं कुछ नए और यूनीक आइडिया

Navratri Food 2024: नवरात्रि में फलाहार के 5 खास आइटम

और समृद्ध होगा फलों के राजा आम का कुनबा

Festive Season पर कुछ यूं करें अपने nails को स्टाइल, अपनाएं ये Royal Look वाले डिजाइन

घर में मजूद इस एक चीज़ से त्योहारों के मौके पर पाएं दमकता निखार

पार्टनर से मैसेज पर भूलकर भी न करें ये 5 बातें, रिश्ते में घुल सकती है कड़वाहट

क्या है कांजीवरम साड़ी की कहानी, दक्षिण भारत की बुनाई में घुलती सोने-चांदी की चमक