मुनव्‍वर राना

प्रसिद्ध शायर मुनव्वर राना से अज़ीज़ अंसारी की बातचीत

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शायरी के शौकीन इंदौर के अवाम क ो मुनव्वर राना की शायरी इतनी पसंद है कि वह मीलों दूर जाकर रात भर जागकर उन्हे ं सुनते हैं। मुनव्वर राना भी अपने इन चाहने वालों से प्यार करते है ं, उन्हें अपने ताज़ ा और नए शेर सुनाते हैं और उनकी फरमाइशों को भी पूरा करते हैं। इंदौर में मुशायरे औ र कवि सम्मेलन होते ही रहते हैं। देश के कोन े- कोने से शायर और कवि यहाँ आते हैं । इंदौरवासियों को इनमें जो सबसे ज़्यादा पसंद ह ै, वह है मुनव्वर रान ा-

* राना साहब आपने इंदौरवासियों पर ऐस ा कौ न- सा जादू कर दिया है कि वह रात भर जाग कर आपके शेर सुनना चाहते है ं?
- जादू वाली तो कोई बात नहीं है। हा ँ, मेरी गज़लों की बातें शायद उनसे और उनकी जिंदगी से जुड़ी होती हैं और फिर मेर ी शायरी की ज़ुबान भी एकदम सरल और आसान होती ह ै, जिससे मैं उनके दिलों को गुदगुदाने मे ं कामयाब हो जाता हूँ ।

* पुरानी शायरी और मौजूदा शायरी मे ं आप क्या फर्क देखते हैं ?
- देखि ए, पुरानी शायरी मे ं ज़्यादातर प्या र- मोहब्ब त, शरा ब, शबाब की बातें हुआ करती थी ं- औरत के बदन के ए क- एक हिस्से का बया न ( नाखू न, अंगुल ी, हथेल ी, हा थ, कम र, पाँ व, बाज ू, सीन ा, आँ ख, ना क, का न, गरद न, भवे ं, पेशान ी, बाल इत्याद ि) किया जाता था। परंतु आज की शायरी इस बकवास से दूर निकल आई है। अब उसने कच्चे गोश् त की इस दुकान को सदा के लिए बंद कर दिया है ।
शायरी के शौकीन इंदौर के अवाम को मुनव्वर राना की शायरी इतनी पसंद है कि वह मीलों दूर जाकर रात भर जागकर उन्हें सुनते हैं। मुनव्वर राना भी अपने इन चाहने वालों से प्यार करते हैं, उन्हें अपने ताज़ा और नए शेर सुनाते हैं और उनकी फरमाइशों को भी पूरा करते हैं।


आज की शायरी में इंसानियत के मुखतलिफ़ जावियों को के विभिन्न कोणो ं को बड़ी सू झ- बूझ के साथ बज्म़ किया जाता है। प्यार-प्रसंगों के साथ ही सआशी पहल ू को भी सामने रखा जाता है। उसे अनदेखा नहीं किया जाता है। इसलिए आज की शायरी लोगों क ो उनकी अपनी शायरी दिखाई देती है। वह उन्हें जु़बानी याद हो जाती है। लोग उससे खुद भी आनंदित होते हैं और दूसरों को सुनाकर उन्हें भी खुश कर देते हैं। शायरी में य ह टर्निंग प्वाइंट आया शायद शाद आरफी और यगाना चंगेजी जैसे शायरों से ।

* शायरी में ज़ुबान का इस्तेमाल और लफ़्जों क े चुनाव के बारे में कुछ बताइए ?
- देखि ए, शायरी के अल्फ़ाज़ हैं आराइश के समान जैसे बिंदिय ा, लिपिस्टि क, कंघ ा, परफ्यू म, पावडर वगैर ा जो किस ी नौजवान खूबसूरत दोशीजा के ड्रेसिंग टेबल पर सजे रहते हैं। शायरी के मज़ामान होते है, उस दोशीजा का लिबास और जे़वर, जिन्हें वह अपनी पसंद, अपने मूड और मौस म के मिज़ाज़ को देखते हुए इनतिखान करती ह ै- शायरी की ज़ुबान और लफ़्जों के इस खूबसूरत इस्तेमाल को बताया और समझाया ह ै, मशहूर शायर नज़ीर अकबराबादी ने।

आज की शायरी में मानवता के विभिन्न कोणो ं को बड़ी सूझ-बूझ के साथ चित्रित किया जाता है। प्रेम-प्रसंगों के साथ ही आर्थिक पहल ू को भी सामने रखा जाता है। उसे अनदेखा नहीं किया जाता है। इसलिए आज शायरी लोगों क ो उनकी अपनी शायरी दिखाई देती है। वह उन्हें जुबानी याद हो जाती है। लोग उससे स्वय ं भी आनंदित होते हैं और दूसरों को सुनाकर उन्हें भी खुश कर देते हैं। शायरी में य ह टर्निंग प्वाइंट आया शायद शाद आरफी और यगाना चंगेजी जैसे शायरों से ।

* शायरी में भाषा का उपयोग शब्दों क े चुनाव के बारे में कुछ बताइए ?
- देखि ए, शायरी के शब् द हैं बनाव-श्रृंगार की वस्तुओं के समान जैसे बिंदिय ा, लिप्‍स्टि क, कंघ ा, परफ्यू म, पावड र, इत्याद ि, जो किस ी नौजवान सुंदर स्त्री के ड्रेसिंग टेबल पर सजे रहते हैं। शायरी की विषयवस्तु होत ी ह ै, उस स्त्री के वस्त् र, जिन्हें वह अपनी रुच ि, अपने मूड और मौस म के स्वभाव को देखते हुए चुनती है- शायरी की भाषा और शब्दों के इस सुंदर उपयोग क ो बताया और समझाया ह ै, प्रसिद्ध शायर नज़ीर अकबराबादी ने।

मशहूर शायर मुनव्वर राना से अज़ीज़ अंसारी की बातचीत

शायरी के शौकीन इंदौर के अवाम को मुनव्वर राना की शायरी इतनी पसंद है कि वह मीलों दूर जाकर रात रात भर जागकर उन्हें सुनते हैं। मुनव्वर राना भी अपने इन चाहने वालों से प्यार करते हैं, उन्हें अपने ताज़ा और नए शेर सुनाते हैं और उनकी फरमाइशों को भी पूरा करते हैं। इंदौर में मुशायरे और कवि सम्मेलन होते ही रहते हैं। मुल्क के कोने-कोने से शायर और कवि यहाँ आते हैं। इंदौरवासियों को इनमें जो सबसे अधिक पसंद है, वह है मुनव्वर राना-

- राना साहब आपने इंदौरवासियों पर ऐसा कौन-सा जादू कर दिया है के वह रात रात भर जाग कर आपके शे'र सुनना और उनसे लुत्फ़ अन्दोज़ होना चाहते हैं
- जादू वाली तो कोई बात नहीं है। हाँ, मेरी गज़लों की बातें शायद उनसे और उनकी ज़िन्दगी से जुड़ी होती हैं और फिर मेरी शायरी की ज़ुबान भी एकदम सरल और आसान होती है, जिससे मैं उनके दिलों को गुदगुदाने में कामयाब हो जाता हूँ।

- पुरानी शायरी और मोजूदा दौर की शायरी में आप क्या फ़र्क़ देखते हैं ?
- देखिए, पुरानी शायरी में ज़्यादातर प्यार-मोहब्बत, शराब, शबाब की बातें हुआ करती थीं - औरत के जिस्म के एक-एक हिस्से का बखान (नाखून, अंगुली, हथेली, हाथ, कमर, पाँव, बाजू, सीना, आँख, नाक, कान, गरदन, भवें, पेशानी, बाल वग़ैरा ) किया जाता था मगर आज की शायरी इस बकवास से दूर निकल आई है। अब उसने कच्चे गोश्त की इस दुकान को सदा के लिए बंद कर दिया है।

शायरी के शौकीन इंदौर के लोगों को मुनव्वर राना की शायरी इतनी पसंद है कि वह मीलों दूर जाकर रात रात भर जागकर उन्हें सुनते हैं। मुनव्वर राना भी अपने इन चाहने वालों से प्यार करते हैं, उन्हें अपने ताज़ा और नए शेर सुनाते हैं और उनकी फरमाइशों को भी पूरा करते हैं।

आज की शायरी में इनसानियत के मुख्नतलिफ़ ज़ावियों को बड़ी सूझ-बूझ के साथ नज़्म किया जाता है। प्यार- मोह्ब्बत की बातों के साथ ही मआशी पहलू को भी सामने रखा जाता है। उसे अनदेखा नहीं किया जाता है। इसलिए आज शायरी लोगों को उनकी अपनी शायरी दिखाई देती है। वह उन्हें ज़ुबानी याद हो जाती है। लोग उससे ख्नुद भी लुत्फ़अन्दोज़ होते हैं और दूसरों को सुनाकर उन्हें भी खुश कर देते हैं। शायरी में यह टर्निंग प्वाइंट आया शायद शाद आरफ़ी और यगाना चंगेज़ी जैसे शायरों से।

- शायरी में ज़ुबान का इस्तेमाल और लफ़्ज़ों के चुनाव के बारे में कुछ बताइए?
- देखिए, शायरी के लफ़्ज़ हैं बनाव-श्रृंगार के समान जैसे बिंदिया, लिप्‍स्टिक, कंघा, परफ्यूम, पावडर, इत्यादि, जो किसी नौजवान ख्नूबसूरत दोशीज़ा के ड्रेसिंग टेबल पर सजे रहते हैं। शायरी का ख्न्याल होता है, उस दोशीज़ा का लिबास जिसे वह अपनी मरज़ी , अपने मूड और मौसम के मिज़ाज को देखते हुए चुनती है- शायरी के ख्न्याल और लफ़्ज़ों के इस ख्नूबसूरत इसतेमाल को बताया और समझाया है, मशहूर शायर नज़ीर अकबराबादी ने।

उन्होंने अपनी शायरी की ज़ुबान को इतना आसान और सरल बनाया के लोग उन्हें हिन्दवी शायर कहने लगे। धीरे-धीरे उनकी मक़बूलियत इतनी बढ़ी कि दूसरे शायरों ने भी उनकी तर्ज़ को अपनाना शुरू कर दिया। मुशकिल ज़ुबान और बड़े-बड़े वज़नी लफ़्ज़ों ने हमेशा ही ज़ुबान ओ अदब को नुक़सान पहुंचाया है। आज यह समझा जाने लगा है कि अच्छा शेर वही है, जिसकी ज़ुबान इतनी आसान हो के उसका तरजुमा ही न किया जा सके। शायरी में ज़ुबान की यह सादगी भारत से ही होती हुई पाकिस्तान तक पहुँच गई है। दो शेर देखिए, एक हिदुस्तानी शायर का है और दूसरा पाकिस्तानी शायर का-

कृष्ण होते तो ज़रूर इनको ज़ुबाँ दे देते
मेरे आँसू है सुदामा के सवालों की तरह।
- वसी सीतापुरीं

क्यूँ हवा आके उड़ा देती है आँचल मेरा
यूँ सताने की तो आदत मेरे घनश्याम की थी।
- परवीन शाकिर (पाकिस्तान)

- आप मुशायरों के कामयाबतरीन शायर हैं। मुशायरे के स्टेज पर तो कई शायर होते हैं, उन दूसरे शायरों के चुनाव और उनके मेयार के बारे में कुछ बताएँ।
- देखिए, अब मुशायरे सिर्फ़ शौक के लिए नहीं पढ़े जाते। अब इसमें ग्लैमर, दौलत, शोहरत वग़ैरा बातें भी शामिल हो गई हैं। दौलत कमाने के लिए और जल्दी से शोहरत हासिल करने के लिए कई ग़ैर शायर इसमें शामिल हो गए हैं। किसी ने अपनी सुरीली और मीठी आवाज़ का सहारा लिया है। किसी ने उस्तादों और बुज़ुर्ग शायरों को पैसे देकर ग़ज़ल लिखवाकर मुशायरों में शामिल होने का रास्ता खोज निकाला है। यह बीमारी इतनी बढ़ गई है के पांच फ़ीसद भी अच्छे और सच्चे शायर मुशायरों में शामिल नहीं होते।

पचास फ़ीसद ऐसे शायर होते हैं, जो शायरी समझते ही नहीं। अब सिर्फ़ टेबलेट से इस बीमारी को दूर नहीं किया जा सकता। अब तो ऑपरेशन ही इस बीमारी को दूर कर सकता है। यह ऑपरेशन कर सकते हैं मुशायरों को मुनअक़िद करने वाले, बुज़ुर्ग और उस्ताद शायर वह अपनी गजलों को बेचना बंद कर दें। मुशायरा, जो हमारी तज़ीब का एक मज़बूत सुतून है, उसे मुशायरा माफियाओं से बचाएँ।

- अब हम बात करना चाहेंगे आपकी शायरी की। ऐसा कहा जाता है कि आप 'माँ' के शायर हैं। आपकी ग़ज़लों में कहीं न कहीं माँ ज़रूर होती है।
- यह सच है कि मेरी ग़ज़लों में माँ अक्सर मिल जाती है या यह कहिए कि शायरी में मेरी महबूबा मेरी माँ है। देखिए, ग़ज़ल का मतलब होता है, महबूब से बातें करना। शायर तो ऐसी औरतों को भी अपना महबूब बना लेते हैं, जिनका कोई मेयार नहीं होता। कोठे पर बैठने वाली, मुजरा करने वाली जब महबूबा बन सकती है तो 'माँ' क्यूँ नहीं? 'माँ' तो खुदा की पार्टनर होती है। खुदा को भी इंसान की पेदाइश के लिए माँ का सहारा लेना पड़ता है। इसलिए 'माँ' की दुआओं में असर होता है। जब माँ इतनी पाक और अज़ीम है तो उसे महबूबा बनाने में क्या बुराई है। मैं तो शान से कहता हूँ के हाँ, मेरी महबूबा मेरी 'माँ' है।

सिरफिरे लोग हमें दुश्मने जाँ कहते हैं
हम जो इस मुल्क की मिट्टी को भी माँ कहते हैं

मुझे बस इसलिए अच्छी बहार लगती है
कि ये भी माँ की तरह खुशग्वार लगती है

मैंने रोते हुए पोंछे थे किसी दिन आँसू
मुद्दतों माँ ने नहीं धोया दुपट्टा अपना

लबों पे उसके कभी बद्दुआ नहीं होती
बस एक माँ है जो मुझसे ख़फ़ा नहीं होती

किसी को घर मिला हिस्से में या दुकाँ आई
मैं घर में सबसे छोटा था मेरे हिस्से में माँ आई

इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है
माँ बहुत गुस्से में होती है तो रो देती

ये ऐसा कर्ज़ है जो मैं अदा कर ही नहीं सकता
मैं जब तक घर न लौटू मेरी माँ सजदे में रहती है

खाने की चीज़ें माँ ने जो भेजी थीं गाँव से
बासी भी हो गई हैं तो लज्जत वही रही

बरबाद कर दिया हमें परदेस ने मगर
माँ सबसे कह रही है बेटा मज़े में है

लिपट जाता हूँ माँ से और मौसी मुस्कुराती है
मैं उर्दू में ग़ज़ल कहता हूँ हिन्दी मुस्कुराती है

इसी तरह के अनेक शेर माँ के लिए मैंने लिखे हैं। परंतु इसका यह मतलब नहीं कि मैंने दूसरे रिश्तों पर कुछ नहीं लिखा। मेरी शायरी में आपको बेटी, बहन, भौजाई और बचपन भी मिलेगा।

इस तरह मेरे गुनाहों को व ो ध ो देत ी ह ै
माँ बहुत गुस्से में होती है त ो र ो देत ी
ये ऐसा कर्ज़ है जो मैं अदा कर ह ी नही ं सकत ा
मैं जब तक घर न लौटू मेरी माँ सजद े मे ं रहती ह ै
खाने की चीज़ें माँ ने जो भेजी थी ं गाँ व स े
बासी भी हो गई हैं तो लज्ज त वह ी रह ी
बरबाद कर दिया हमें परदे स न े मग
माँ सबसे कह रही है के बेटा मज़ े मे ं है
लिपट जाता हूँ माँ से औ र मौस ी मुस्कुरात ी है
मैं उर्दू में ग़ज़ल कहता हू ँ हिन्द ी मुस्कुरात ी ह ै
इसी तरह के अनेक शेर माँ के लि ए मैंन े लिखे हैं। परंतु इसका यह अर्थ नहीं कि मैंने दूसरे रिश्तो ं पर कुछ नहीं लिखा। मेर ी शायरी में आपको बेट ी, बह न, भौजाई और बचपन भ ी मिलेगा ।

उछलते-खेलते बचपन में बेट ा ढूँढ़त ी होगी
तभी तो देख के पोते को दाद ी मुस्कुराती ह ै
ओढ़े हुए बदन पे गरीबी चल े ग
बहनों को रोता छोड़ के भा ई चल े ग
इन्हें फ़िकरापरस्ती मत सिखा देना क े य े बच्च े
ज़मीं से चूम कर तितली के टूटे प र उठात े है ं
कसम देता है बच्चों की बहाने स े बुलात ा है
धुआँ चिमनी का हमको कारख़ाने स े बुलात ा ह ै
कम से कम बच्चों के होंठों की हँस ी क ी खाति
ऐसी मिट्टी में मिलाना के खिलौन ा ह ो जाऊँ
मुझे इस शहर की सब लड़कियाँ आदा ब करत ी है ं
मैं बच्चों की कलाई के लिए राख ी बनात ा हू ँ
ग़ज़ल वो सिनफ़े नाजुक है जिसे अपन ी रफ़ाक़त स े
वो मेहबूबा बना लेता है बैं बेट ी बनात ा हूँ
हम सायादार पेड़ जमाने क े का म आ
जब सूखने लगे तो जलाने क े का म आ
कोयल बोले या गौरैया अच्छ ा लगत ा ह ै
अपने गाँव में सब कुछ भैय्य ा अच्छ ा लगता ह ै
नए कमरों में अब चीज़ें पुरानी कौ न रखता ह ै
परिन्दों के लिए शहरों में पान ी कौ न रखता ह ै
ये चिड़िया मेरी बेटी से कितन ी मिलत ी जुलती ह ै
कहीं भी शाखे गुलदेखे ये झूला डा ल देत ी ह ै
तो फिर जाकर कहीं बाप को कुछ चै न पड़त ा है
कि जब ससुराल के घर आ क े बेट ी मुस्कुराती ह ै
खुदा मेहफूज़ रक्खे मुल्क क ो गंद ी सियासत स े
शराबी देवरों के बीच में भोजा ई रहत ी ह ै
हमारे और उसके बीच/इक धागे क ा रिश्त ा ह ै
हमें लेकिन हमेशा वो सगा भा ई समझत ी है
ये देखकर पतंगे भी हैरान ह ो ग
अब छतें भी हिन्दू मुसलमा न ह ो गईं

* अदब के ज़रिये यक जेहती औ र भाईचारे का पैगाम क्या सरहदों से बाहर जाकर भी दिया ज ा सकता है?
- जरूर दिया जा सकता है और दिया जा रह ा है । आ प देख नहीं रहे हैं कि पड़ोसी मुल्कों के फ़नकार भारत आते हैं और कितनी इज़्जत पात े हैं। इसी तरह जब हम सरहद पार जाते हैं तो हमें भी सर-आँखों प र बिठाया जात ा है।

मगर एक कड़वा सच यह है क ि ए क शायर के लिए भी सरहद पार जाना आसान नहीं है। वीज़ ा बड़ी मुश्किल से मिलत ा ह ै, जबकि शायर को अदबा प्रोग्रामों में हिस्सा लेने क े लि ए वीज़ा इतनी देर में मिल जाना चाहि ए, जितनी देर मे ं गर्म चाय ठंडी होत ी है।

फ़नकारों में एकता और भाईचार ा हमेश ा से रहा है और आज भी है। हम लोग विदेशों में जाकर इसी ज़जबे को फैलात े हैं। नफ़रत की दीवारें तो राजनेताओं द्वारा खड़ी की जात ी हैं। फ़नकार बरनी ममालिक से सिर्फ फ़नकार नहीं होता। वह अपने मुल्क का नुमाइंदा होत ा ह ै, ज ो बाहर जाकर एम्बेसेडर (राजदूत) का काम करता है।

सियासत नफरतों का जख्म भरने ह ी नही ं देती
जहाँ भरने पे आता है तो मक्खी बै ठ जात ी है

जख्म को न भरने देने वाली यह मक्ख ी ह ै सियास
लेकिन हमने भी नफरत को मोहब्ब त स े मिटाने का हुनर सीख लिया है

जो मुझको साँप कहता है उससे मे ं इ क रो
जाकर लिपट गय ा, उसे चंद न बन ा दिय ा

परिंदों ने कभी रोका नही ं रस्त ा परिंदों का
खुदा दुनिया को चिड़ियाघर बना देत ा त ो अच्छा थ ा

हज़ारों सरहदों की बेड़ियाँ लिपट ी है ं पैरों से
हमारे गाँव को भी पर बना देता त ो अच्छ ा थ ा

- भारत और पाकिस्तान मे ं कु छ अच्छी शायरी करने वाले युवा शायरों के नाम बताने की तकलीफ ़ करे ं
- पाकिस्तान में - इफ़्तिख़ार आरि फ़, अहमद फ़रा ज़ ( नौजवा न नहीं हैं), नसीर तुराब ी, शहजा द अहम द, असलम कोलसर ी, अजीम बे़हजा द अच्छा लिख रह े हैं। इसी तरह भारत में नौशाद- मोमि न, तारि क़ क़म र, मोइन शादा ब, शाहिद अंजु म, खुरशी द अकब र अच्छा लिख रहे हैं। औरतों में पाकिस्तान की रेहा न रूह ी, क़म र, फ़हमीदा, रियाज औ र किश्वर नाहीद अच्छा लिख रही हैं। अदब मे ं शायर के मेयार का अंदाजा उसकी शायरी स े लगाया जाना चाहिए। दीगर मुआलिक में मुशायर ा पढ़ने से नहीं। ऐसा सोचा गया तो मीर, ग़ालि ब तो कभी बाहर गए नहीं। दौरे हाजि़र में मुशायर े उर्दू अदब को नुकसान पहुँचा रहे हैं । मुशायरों में पुरानी तहजी़ब और ‍िरवायतों क ो का़यम किया जाना चाहिए ।

- भारत में उर्दू के भविष्य क े बार े में आप क्या सोचते हैं ?
- भारत में उर्दू को बचाना है त ो सबस े पहले उर्दू अकादमियों को ख़त्म कर देना चाहिए। इनस े सरकारी रुपया बर्बाद हो रहा है । दावतें उड़ाई जा रही हैं। हवाई जहाजों से सफ़र किए जा रहे हैं और उनमें बैठक र अँग्रेजी़ के अखबार पढ़े जा रहे हैं। मैंने अकादमी के किस ी अफ़सर के पास कभी उर्द ू का अख़बार नहीं देखा ।

हर एक जिले में उर्दू इंसपेक्ट र होना चाहि ए, जो सीधा कलेक्ट र के हुक्म से काम करे ।

- इंदौर और यहाँ के बाशिंदों के बार े मे ं आपका क्या ख़्याल है
- इंदौर बहुत अच्छा शहर है। इस े दे श क ी साहित्यिक राजधानी कहा जाना चाहिए। मुखतालिक ज़ुबानों का संगम यहाँ है औ र सबक ो इज्जत मिलती है। उर्दू-हिन्दी में तो यहाँ कोई फर्क ही दिखा ई नहीं देता। मेर ा प्या र, मेरा दि ल, मेरा तआवु न, मेरी दुआए ँ हमेशा इंदौरवासियों के साथ हैं।

उछलते-खेलते बचपन में बेटा ढूँढ़ती होगी
तभी तो देख के पोते को दादी मुस्कुराती है

ओढ़े हुए बदन पे गरीबी चले गए
बहनों को रोता छोड़ के भाई चले गए

इन्हें फ़िकरापरस्ती मत सिखा देना के ये बच्चे
ज़मीं से चूम कर तितली के टूटे पर उठाते हैं

कसम देता है बच्चों की बहाने से बुलाता है
धुआँ चिमनी का हमको कारख़ाने से बुलाता है

कम से कम बच्चों के होंठों की हँसी की खातिर
ऐसी मिट्टी में मिलाना के खिलौना हो जाऊँ

मुझे इस शहर की सब लड़कियाँ आदाब करती हैं
मैं बच्चों की कलाई के लिए राखी बनाता हूँ

ग़ज़ल वो सिनफ़े नाजुक है जिसे अपनी रफ़ाक़त से
वो मेहबूबा बना लेता है बैं बेटी बनाता हूँ

हम सायादार पेड़ जमाने के काम आए
जब सूखने लगे तो जलाने के काम आए

कोयल बोले या गौरैया अच्छा लगता है
अपने गाँव में सब कुछ भैय्या अच्छा लगता है

नए कमरों में अब चीज़ें पुरानी कौन रखता है
परिन्दों के लिए शहरों में पानी कौन रखता है

ये चिड़िया मेरी बेटी से कितनी मिलती जुलती है
कहीं भी शाखे गुलदेखे ये झूला डाल देती है

तो फिर जाकर कहीं बाप को कुछ चैन पड़ता है
कि जब ससुराल के घर आ के बेटी मुस्कुराती है

खुदा मेहफूज़ रक्खे मुल्क को गंदी सियासत से
शराबी देवरों के बीच भोजाई रहती है

हमारे और उसके बीच/इक धागे का रिश्ता है
हमें लेकिन हमेशा वो सगा भाई समझती है

ये देखकर पतंगें भी हैरान हो गई
अब तो छतें भी हिन्दू मुसलमान हो गईं।

अदब के ज़र्रिये यकजेहती और भाईचारे का पैग़ाम क्या सरहदों से बाहर जाकर भी दिया जा सकता है।
ज़रूर दिया जा सकता है और दिया जा रहा है। आप देख नहीं रहे हैं के पड़ोसी मुल्कों के फ़नकार भारत आते हैं और कितनी इज़्ज़त पाते हैं। इसी तरह जब हम सरहद पार जाते हैं तो हमें भी सर-आँखों पर बिठाया जाता है।

मगर एक कड़वा सच यह है के एक फ़नकार के लिए भी सरहद पार जाना आसान नहीं है। वीज़ा बड़ी मुश्किल से मिलता है, जब के फ़नकार को अदबी मेहफ़िलोंस् में हिस्सा लेने के लिए वीज़ा इतनी देर में मिल जाना चाहिए, जितनी देर में गर्म चाय ठंडी होती है।

फ़नकारों में एकता और भाईचारा हमेशा से रहा है और आज भी है। हम लोग ग़ैरमुमालिक में जाकर इसी प्यार, मोहब्बत को फैलाते हैं। नफ़रत की दीवारें तो लीडरों के ज़रीये खड़ी की जाती हैं। फ़नकार दूसरे मुलकों में सिर्फ़ फ़नकार नहीं होता। वह अपने मुल्क का नुमाइंदा होता है, जो के एक एम्बेसेडर (राजदूत) की तरह होता है।

सियासत नफ़रतों का ज़ख्न्म भरने ही नहीं देती
जहाँ भरने पे आता है तो मक्खी बैठ जाती है।

ज़ख्न्म को न भरने देने वाली यह मक्खी है सियासत
लेकिन हमने भी नफ़रत को मोहब्बत से मिटाने का हुनर सीख लिया है।

जो मुझको साँप कहता है उससे में इक रोज़
जाकर लिपट गया, उसे चंदन बना दिया

परिंदों ने कभी रोका नहीं रस्ता परिंदों का
ख्नुदा दुनिया को चिड़ियाघर बना देता तो अच्छा था

हज़ारों सरहदों की बेड़ियाँ लिपटी हैं पैरों से
हमारे पांव को भी पर बना देता तो अच्छा था

भारत और पाकिस्तान में कुछ अच्छी शायरी करने वाले नौजवान शायरों के नाम बतायें-
- पाकिस्तान में - इफ़्तिख़ार आरिफ़, अहमद फ़राज़ (जवान नहीं हैं) नसीर तुराबी, शहजाद अहमद, असलम कोलसरी, अजीम बे़हजाद अच्छा लिख रहे हैं। इसी तरह भारत में नौशाद, मोमिन, तारिक़ क़मर, मोइन शादाब, शाहिद अंजुम, खुरशीद अकबर अच्छा लिख रहे हैं। औरतों में पाकिस्तान की रेहानरूही क़मर, फ़हमीदा रियाज़ और किश्वर नाहीद अच्छा लिख रही हैं। अदब में शायर के मेयार का अन्दाज़ा उसकी शायरी से लगाया जाना चाहिए। देश-विदेश में मुशायरा पढ़ने से नहीं। ऐसा सोचा गया तो मीर गालिब तो कभी हिन्दुस्तान से बाहर गए नहीं। दौरे हाज़िर में मुशायरे उर्दू अदब को नुक़सान पहुँचा रहे हैं। मुशायरों में पुरानी तेहज़ीब और रिवायतों को क़ायम किया जाना चाहिए।

हिन्दुस्तान में उर्दू के मुसतक़बिल के बारे में आप क्या सोचते हैं ?
हिन्दुस्तान में उर्दू को बचाना है तो सबसे पहले उर्दू अकादमियों को ख्नत्म कर देना चाहिए। इनसे सरकारी रक़म बरबाद हो रही है। दावतें उड़ाई जा रही हैं। हवाई जहाजों से साफ़र किये जा रहे हैं और उनमें बैठकर अँग्रेज़ी के अख्नबार पढ़े जा रहे हैं। मैंने अकादमी के किसी अफ़सर के पास कभी उर्दू का अख़बार नहीं देखा।

हर ऎक ज़िले में उर्दू इंसपेक्टर का तक़र्रुर होना चाहिए, जो सीधा कलेक्टर की रेहनुमाई में काम करे।

- इंदौर और इंदौर के बाशिन्दों के बारे में आपका क्या ख़्याल है।
- इंदौर बहुत अच्छा शहर है। इसे मुल्क की अदबी और सक़ाफ़यी राजधानी कहा जाना चाहिए। मुख्नतलिफ़ ज़ुबानों का संगम यहाँ है और सबको इज़्ज़त मिलती है। उर्दू-हिन्दी में तो यहाँ फ़र्क़ ही दिखाई नहीं देता। मेरा प्यार, मेरा दिल, मेरा तआवुन , मेरी दुआएँ हमेशा इन्दौर के बाशिन्दों के साथ हैं।
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