शाद अज़ीमाबादी

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शाद 8 जनवरी 1846 को अज़ीमाबाद में पैदा हुए। अज़ीमाबाद और इसके आसपास का इलाक़ा, ऐसी सरज़मीन है जहाँ फ़नकार तो पैदा होते हैं लेकिन उनकी क़द्र उसी सरज़मीन पर नहीं होती। शाद के साथ भी ऐसा ही हुआ। उन्हें वो इज़्ज़त-ओ-शोहरत वहाँ नहीं मिली जिसके वो मुश्तहिक़ थे।

Aziz AnsariWD
नक़्क़ादों ने भी उन पर ख़ास तवज्जो नहीं दी। शायद वो यही समझते रहे कि अच्छे शायर और फ़नकार तो दिल्ली, आगरा, लखनऊ और हैदराबाद जैसे शहरों में ही पैदा होते हैं। शाद गौतम-बुद्ध की सरज़मीन में पैदा हुए थे। इस महात्मा के ज़िन्दगी से वो बहुत मुतास्सिर नज़र आते हैं। हिन्दी और फ़ारसी ज़बानों का भी उनकी शायरी पर गहरा असर दिखाई देता है।

रफ़्ता-रफ़्ता शाद और उनकी शायरी पहचानी गई। उन पर मज़ामीन लिखे जाने लगे। उनके फ़न पर कुछ काम हुआ लेकिन अभी बहुत कुछ काम होना बाक़ी है। क़ानक़ाही रंग और वजदानी कैफ़यत के इस दरवेशनुमा शायर का इंतिक़ाल 7 जनवरी 1927 को हुआ। आज हम उनकी दो ग़ज़लें यहाँ पेश कर रहे हैं।

शाद अज़ीमाबादी (8-1-1846--7-1-1927)

तमन्नाओं में उलझाया गया हूँ
खिलौने दे के बहलाया गया हूँ

दिल-ए-मुज़तर से पूछ ए रौनक़-ए-बज़्म
मैं खुद आया नहीं लाया गया हूँ

लहद में क्यों न जाऊँ मुँह छुपाए
भरी महफ़िल से उठवाया गया हूँ

न मै था मक़सद-ए-एजाज़-ए-मय का
बड़ी मुश्किल से मनवाया गया हूँ

हूँ इस कूंचे के हर ज़र्रे से वाक़िफ़
इधर से मुद्दतों आया गया हूँ

सवेरा है बहुत ए शोर-ए-महशर
अभी बेकार उठवाया गया हूँ

सताया आके पहरों आरज़ू ने
जो दम भर आप में पाया गया हूँ

क़दम उठते नहीं क्यों जानिब-ए-दह्र
किसी मस्जिद में बहकाया गया हूँ

अदम में किसने बुलवाया है मुझको
के हाथों हाथ पहुँचाया गया हूँ

कुजा मैं और कुजा ए शाद दुनिया
कहाँ से किस जगह लाया गया हूँ

दिल-ए-मुज़तर--- व्याकुल मन
लहद----- कब्र
मक़सद-ए-एजाज़-ए-मय------शराब की तारीफ करना
शोर-ए-महशर------कयामत का शोर
जानिब-ए-दह्र ----ज़माना-दुनिया की तरफ
अदम----न होना

2.
ढूँढोगे गर मुल्कों मुल्कों, मिलने के नहीं नायाब हैं हम
ताबीर है जिस की हसरत-ओ-ग़म, ऎ हमनफ़सो वो ख्वाब हैं हम

ऎ दर्द बता कुछ तू ही बता, अब तक ये मोअम्मा हल न हुआ
हम में है दिल-ए-बेताब निहाँ, या आप दिल-ए-बेताब हैं हम

मैं हैरत-ओ-हसरत का मारा, खामोश खड़ा हूँ साहिल पर
दरया-ए-मोहब्बत कहता है, आ कुछ भी नहीं पायाब हैं हम

हो जाए बखेड़ा पाक कहीं, पास अपने बुलालें बहतर है
अब दौर-ए-जुदाई से उनके, ऎ आह बहुत बेताब हैं हम

लाखों ही मुसाफ़िर चलते हैं, मंज़िल पे पहुंचते हैं दो एक
ऎ एहल-ए-ज़माना क़द्र करो, नायाब न हों कमयाब हैं हम

मुर्ग़ान-ए-क़फस को फूलों ने, ऎ शाद ये कहला भेजा है
आ जाओ जो तुम को आना है, ऐसे मे अभी शादाब हैं हम

नायाब---नहीं मिलने वाले
हमनफ़सो---साथियों
मोअम्मा---पहेली
निहाँ--- छुपा हुआ
साहिल--- किनारा
पायाब----इतना पानी जिसमें केवल पाँव डूबें
एह्ल-ए-ज़माना= दुनिया वाले
क़द्र=इज़्ज़त
नायाब=कभी न मिलने वाले
कमयाब=कम मिलने वाले
मुर्ग़ान-ए-क़फ़स= पिंजरे के पंछी, क़ैदी
शादाब =खिले हुए, जवान

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