ग़ालिब की ग़ज़ल (अशआर के मतलब के साथ)

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Aziz AnsariWD
मिलती है ख़ू-ए-यार से नार इल्तेहाब में
काफ़िर हूँ गर न मिलती हो राहत अज़ाब में

यार की आदत, दोज़ख़ की दहकती हुई आग की तरह है। मुझे यार की इस गर्म-मिज़ाजी में ही राहत मिलती है। और चूंके दोज़ख़ की आग भी उसके गर्म मिज़ाज की तरह है इसलिए मुझे उसमें भी राहत मिलेगी। इस सच्चाई से अगर मैं इनकार करूँ तो सज़ा काफ़िर की वो मेरी।

कब से हूँ क्या बताऊँ जहान-ए-ख़राब में
शब हाए हिज्र को भी रखूँगा हिसाब में

मैं अपनी इस बरबाद दुनिया में कब से मुक़ीम हूँ अगर इसमें यार से जुदाई की रातों का भी शुमार करलूँ तो ये बताना और मुश्किल हो जाएगा।

ता फिर न इंतिज़ार में नींद आए उम्र भर
आने का वादा कर गए आए जो ख़्वाब में

महबूब मुझे चैन से सोने भी नहीं देता। ज़रा आँख लगती है तो ख़्वाब में आ जाता है और मिलने का वादा करता है। ज़ाहिर है जब मिलने का वादा हो जाएगा तो फिर मुझे नीं कैसे आ सकेगी, क्योंके मैं उसका इंतज़ार करना शुरू कर दूँगा और इसी इंतिज़ार में मेरी सारी ज़िन्दगी गुज़र जाएगी।

क़ासिद के आते आते ख़त एक और लिख रखूँ
मैं जानता हूँ वो जो लिखेंगे जवाब में

मैंने क़ासिद को उसके पास अपना ख़त देकर भेजा है। जब तक वो उसका जवाब लेकर वापस आए मुझे चाहिए के एक ख़त और लिख डालूँ। क्योंकि मुझे तो पता ही है के वो क्या जवाब अपने ख़त में लिखेंगे।

मुझ तक कब उनकी बज़्म में आता था दौर-ए-जाम
साक़ी ने कुछ मिला न दिया हो शराब में

उनकी महफ़िल में जाम के दौर चलते रहते हैं। सब के हाथों में शराब से लबरेज़ जाम होते हैं सिवाए मेरे। लेकिन आज तो मेरे हाथों में भी जाम आ गया है, कहीं ऐसा तो नहीं के इस जाम में साक़ी ने कोई नागवार चीज़ मिला दी हो ताके इसे पीते ही मेरा काम तमाम हो जाए।

लाखों लगाव एक चुराना निगाह का
लाखों बनाव एक बिगड़ना इताब में

महबूब का निकाह चुराना ऐसा है जैसे उसका हमसे बहुत गहरा लगाव है। इसी तरह उसका ग़ुस्सा करना भी ऐसा है जैसे उसने लाखों तरह के बनाव सिंगार कर रखे हों, और वो हमें अपनी तरफ़ मुतवज्जा करना चाहता है।

ग़ालिब छुती शराब पर अब भी कभी कभी
पीता हूँ रोज़-ए-अब्र-ओ-शब-ए-माहताब में

ग़ालिब कहते हैं अब उन्होंने शराब पीना छोड़ दिया है। लेकिन कभी कभी जब आसमान में बादल छा जाते हैं या जिस रात चाँद अपने पूरे शबाब पर होता है तो पी लिया करता हूँ।

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