dipawali

न जाने किस-किस से रिश्‍ता होता है अदीब का

Webdunia
बुधवार, 7 अगस्त 2013 (18:05 IST)
- दिनेश 'दर्द'
एक अदीब या साहित्‍यकार का अनजाने में ही न जाने किस-किस से रिश्‍ता होता है। कभी किसी की आँख में आँसू देख ले तो उसके ग़म में टूटकर, उसी क़तरे में डूब जाए। कहीं किसी के लबों पर मुस्‍कान तैरती मिले तो साहिल पर बैठा दीवानावार न जाने कब तक उसी मुस्‍कान को तकता रहे।

किसी अजनबी राहगीर के पैरों में छाले देख ले तो ज़ख्‍़म अपने दिल पर महसूस करे। और दीवानगी इस हद तक कि अपनी तसल्‍ली के लिए उस मुसाफिर के ज़ख्‍़मों पर अपनी पलकें भी रख दे। जिस गली से भी गुज़रे, दरवेश की मानिंद दुआओं की लोबान महकाता चले।

इसके बरअक्‍स नाराज़गी की शिद्दत भी ऐसी कि दुनिया बनाने वाले से ही ख़फ़ा हो जाए। भूख लगे तो ख़ुदा से चाँद-सूरज को रोटी बना देने की ज़िद कर बैठे। और मासूमियत की इंतिहा यह कि अपने ही क़ातिल के हाथ चूमकर उसे दुआओं से नवाज़ दे।

44 वें भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्‍कार से नवाज़े गए मशहूर शायर कुँवर अख्‍़लाक़ मोहम्‍मद खाँ उर्फ शहरयार (अब मरहूम) की शायरी भी बारहा ऐसी ही मंज़रकशी करती है। एक जगह किस मासूमियत से शिकायत करते हैं, देखिए-

वो बेवफ़ा है हमेशा ही दिल दुखाता है,

मगर हमें तो वही एक शख्‍़स भाता है

जगह जो दिल में नहीं है मेरे लिए न सही,

मगर ये क्‍या कि भरी बज्‍़म से उठाता है


इसी सिलसिले में मक़बूल शायर डॉ. बशीर बद्र का ज़िक्र भी लाज़िम होगा। मेरा यक़ीन है, उनके कलाम किसी भी शख्‍़स को कम-अज़-कम कुछ देर के लिए तो शायरी की सिफ़त अता कर ही देते हैं। कैसे भूलूँ उनकी सादगी, जब रात के क़रीब साढ़े तीन या चार बजे मुशायरा ख़त्‍म होने के बाद मुझसे नाआश्‍ना होने के बावजूद मेरी गुज़ारिश पर गुफ़्तगू के लिए कुछ देर वहीं अंधेरे में ज़मीन पर ही बैठ गए थे वो। बहरहाल ! जादू सा करता उनका ये शेर पढ़िए-

न जी भर के देखा न कुछ बात की,

बड़ी आरज़ू थी मुलाक़ात की

मैं चुप था तो चलती नदी रुक गई,

ज़ुबाँ सब समझते हैं जज्‍़बात की।


शायरी के साथ-साथ सादगी के क्रम में निदा फ़ाज़ली साहब भी क़ाबिले ग़ौर हैं। एक मर्तबा, इक प्रोग्राम के सिलेसिले में 13 फरवरी को उनका उज्‍जैन आना हुआ। प्रोग्राम ख़त्‍म होते-होते 14 तारीख़ (वेलेंटाइन डे) लग गई। इसी दिन से मुतअस्‍सिर होकर मैंने चूमने के मक़्सद से चलते-चलते ही झिझकते हुए उनका हाथ माँग लिया। यक़ीन कीजिए उन्‍होंने मुस्‍कुराते हुए उसी पल अपनी हथेली मुझे सौंप दी। मौजूद लोग मेरी हिम्‍मत और क़िस्‍मत के साथ निदा साहब की सादा मिज़ाजी पर भी हैरान थे। क्‍या ख़ूब कहा है उन्‍होंने-

सफ़र में धूप तो होगी, जो चल सको तो चलो,

सभी हैं भीड़ में तुम भी निकल सको तो चलो

यहाँ किसी को कोई रास्‍ता नहीं देता,

मुझे गिरा के अगर तुम सँभल सको तो चलो।


कोई भी रचना तब तक प्रभावी नहीं हो सकती, जब तक रचनाकार उसमें अपने प्राण न फूँक दे। और इस समर्पण के लिए लेखक का ख़ुद के प्रति ईमानदार होना बहुत ज़रूरी है। ईमानदारी से आशय है कि आप भीतर से जैसे हैं, ख़ुद को ज़ाहिर भी वैसा ही करें। तभी कोई ऐसी रचना जन्‍म लेती है, जो कभी नहीं मरती।
Show comments
सभी देखें

जरुर पढ़ें

Bhai Dooj essay: बहन-भाई के प्रेम का पर्व भाई दूज, पढ़ें सुंदर, भावनात्मक हिन्दी निबंध

Diwali 2025: धनतेरस से लेकर दिवाली तक, जानें हर दिन के लिए 5 खास वास्तु टिप्स

Zoho mail vs Gmail: Zoho Mail के 10 शानदार फीचर जो बढ़ा रहे हैं इसका क्रेज, जानिए Gmail से कैसे है अलग

Mrs Universe 2025: मिसेज यूनिवर्स 2025 का ताज पहन शेरी सिंह ने रचा इतिहास, भारत को पहली बार मिला यह प्रतिष्ठित खिताब

Sanskriti Jain IAS: कौन हैं शाही फेयरवेल पाने वाली IAS अधिकारी, सहकर्मियों ने पालकी में बैठा कर बेटी की तरह किया विदा

सभी देखें

नवीनतम

जिन्न बनाम एआई! कौन है असली बॉस

घोर नाइंसाफी, शांति के नोबल पुरस्कार के असली हकदार तो ट्रंप ही थे

कई साफ संकेत दे रहे हैं बिहार के चुनाव

भारत ने वायु सेना शक्ति में चीन को पछाड़ा, चौथी महाशक्ति बनने की ओर है अग्रसर

Bhai Dooj essay: बहन-भाई के प्रेम का पर्व भाई दूज, पढ़ें सुंदर, भावनात्मक हिन्दी निबंध