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ग़ालिब की ग़ज़लें
Webdunia
मंगलवार, 8 जुलाई 2008 (10:51 IST)
1. शौक़ हर रंग रक़ीब-ए-सर-ओ-सामाँ निकला
क़ैस तस्वीर के परदे में भी उअरयाँ निकला
ज़ख्म ने दाद न दी तंगि-ए-दिल की यारब
तीर भी सीना-ए-बिस्मिल से पुरअफ़शाँ निकला
Aziz Ansari
WD
बू-ए-गुल, नाला-ए-दिल, दूद-ए-चिराग-ए-मेहफ़िल
जो तेरी बज़्म से निकला सो परेशाँ निकला
दिल में फिर गिरये ने इक शोर उठाया 'ग़ालिब'
आह जो क़तरा न निकला था सो तूफ़ाँ निकला
2. दर्द मिन्नत कश-ए-दवा न हुआ
मैं न अच्छा हुआ बुरा न हुआ
जमअ करते हो क्यों रक़ीबों को
इक तमाशा हुआ गिला न हुआ
थी खबर गर्म कि 'ग़ालिब' के उड़ेंगे पुरज़े देखने हम भी गए थे, पर तमाशा न हुआ
है खबर गर्म उनके अने की
आज ही घर में बोरिया न हुआ
क्या वो नमरूद की खुदाई थी
बन्दगी में मेरा भला न हुआ
हम कहाँ क़िस्मत आज़माने जाएँ
तू ही जब खंजर आज़माँ न हुआ
कितने शीरीं हैं तेरे लब के रक़ीब
गालियाँ खा के बेमज़ा न हुआ
जान दी, दी हुई उसी की थी
हक़ तो ये है कि हक़ अदा न हुआ
थी खबर गर्म कि 'ग़ालिब' के उड़ेंगे पुरज़े
देखने हम भी गए थे, प तमाशा न हुआ
3. ये न थी हमारी क़िस्मत, कि विसाल-ए-यार होता
अगर और जीते रहते, यही इंतिज़ार होता
तेरे वादे पे जिए हम, तो ये जान झूठ जाना
कि खुशी से मर न जाते, अगर ऐतबार होता
तेरी नाज़ुकी से जाना, कि बंधा था एह्द-ए-बूदा
कभी तू न तोड़ सकता, अगर उस्तवार होता
कोई मेरे दिल से पूछे, तेरे तीर-ए-नीम कश को
ये खलिश अहा से होती, जो जिगर के पार होता
ये अहाँ की दोस्ती है, कि बने हैं दोस्त नासेह
कोई चारा साज़ होता कोई ग़म गुसार होता
रग-ए-संग से टपकता, वो लहू कि फिर न थमता
जिसे ग़म समझ रहे हो, ये अगर शरार होता
ग़म अगरचे जाँ गुसल है, प बचें कहाँ कि दिल है
ग़म-ए-इश्क़ गर होता, ग़म-ए-रोज़गार होता
कहूँ किससे मैं कि क्या है, शब-ए-ग़म बुरी बला है
मुझे क्या बुरा था मरना, अगर एक बार होता
हुए मर के हम जो रुसवा, हुए क्यों न ग़र्क़-ए-दरिया
न कभी जनाज़ा उठता, न कहीं मज़ार होता
उसे कौन देख सकता, कि यगाना है वो यकता
जो दुई की बू भी होती, यो कहीं दो-चार होता
ये मसाइल-ए-तसव्वुफ़, ये तेरा बयान 'ग़ालिब'
तुझे हम वली समझते जो न बादा ख्वार
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