ग़ालिब की ग़ज़लें

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Aziz AnsariWD
1. कहते हो न देंगे हम, दिल अगर पड़ा पाया
दिल कहाँ कि गुम कीजे, हमने मुद्दुआ पाया

इश्क़ से तबीय़त ने, ज़ीस्त का मज़ा पाया
दर्द की दवा पाई, दर्द-ए-बेदवा पाया

दोस्तार-ए-दुश्मन है, एतिमाद-ए-दिल मालूम
आह बेअसर देखी, नाला नारसा पाया

सादगी-ओ-पुरकारी, बेखुदी-ओ-हुश्यारी
हुस्न को तग़ाफ़ुल में, जुरअत आज़मा पाया

ग़ुंचा फिर लगा खिलने, आज हमने अपना दिल
खूँ किया हुआ देखा, गुम किया हुआ पाया

हाल-ए-दिल नहीं मालूम, लेकिन इस क़दर यानी
हमने बारहा ढूंडा, तुमने बारहा पाया

शोर-ए-पिन्द-ए-नासेह ने, ज़ख्म पर नमक छिड़का
आप से कोई पूछे, तुमने क्या मज़ा पाया

2. शौक़ हर रंग, रक़ीब-ए-सर-ओ-सामाँ निकला
क़ैस तस्वीर के परदे में भी उरयाँ निकला

जख्म ने दाद न दी, तंगि-ए-दिल की यारब
तीर भी सीना-ए-बिस्मिल से पुरअफ़शाँ निकला

बू-ए-गुल, नाला-ए-दिल, दूद-ए-चिराग़-ए-महफ़िल
जो तेरी बज़्म से निकला सो परीशाँ निकला

दिल-ए-हसरत ज़दा था, मायदा-ए-लज़्ज़त-ए-दर्द
काम यारों का, बक़द्र-ए-लब-ओ-दन्दाँ निकला

थी नौ आमोज़-ए-फ़ना, हिम्मत-ए-दुश्वार पसन्द
सख्त मुश्किल है कि ये काम भी आसाँ निकला

दिल में फिर गिरिये ने इक शोर उठाया ग़ालिब
आह जो क़तरा न निकला था सो तूफ़ाँ निकला

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