ग़ज़लें : नवाब मिर्ज़ा ख़ाँ दाग़ देहलवी

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(1831-1905)
1.
Aziz AnsariWD
ले चला जान मेरी, रूठ के जाना तेरा
ऐसे आने से तो बेहतर था न आना तेर ा

अपने दिल को भी बताऊँ न ठिकाना तेरा
सब ने जाना जो पता एक ने जाना तेर ा

तू जो ऐ ज़ुल्फ़ परेशान रहा करती है
किसके उजड़े हुए दिल में है ठिकाना तेर ा

आरज़ू ही न रही सुबहे वतन की मुझको
शामे ग़ुरबत है अजब वक़्त सुहाना तेर ा

ये समझकर तुझे ऐ मौत लगा रक्खा है
काम आता है बुरे वक़्त में आना तेर ा

ऐ दिले शेफ़्ता में आग लगाने वाले
रंग लाया है ये लाखे का जमाना तेर ा

तू ख़ुदा तो नहीं ऐ नासहे नादाँ मेरा
क्या ख़ता की जो कहा मैंने न माना तेर ा

रंज क्या वस्ले अदू का जो तअल्लुक़ ही नहीं
मुझको वल्लाह हँसाता है रुलाना तेर ा

काबा ओ देर में या चश्म ओ दिलेआशिक़ में
इन्हीं तीन-चार घरों में है ठिकाना तेर ा

तर्के आदत से मुझे नींद नहीं आने की
कहीं नीचा न हो ऐ गौर सिरहाना तेर ा

मैं जो कहता हूँ उठाए हैं बहुत रंजेफ़िराक़
वो ये कहते हैं बड़ा दिल है तवाना तेर ा

बज़्मे दुश्मन से तुझे कौन उठा सकता है
इक क़यामत का उठाना है उठाना तेर ा

अपनी आँखों में अभी कून्द गई बिजली सी
हम न समझे के ये आना है या जाना तेर ा

यूँ वो क्या आएगा फ़र्ते नज़ाकत से यहाँ
सख्त दुश्वार है धोके में भी आना तेरा

दाग़ को यूँ वो मिटाते हैं, ये फ़रमाते हैं
तू बदल डाल, हुआ नाम पुराना तेरा

2.
उज़्र आने में भी है और बुलाते भी नहीं
बाइसे तर्के मुलाक़ात बताते भी नही ं

मुंतज़िर हैं दमे रुख़सत के ये मर जाए तो जाएँ
फिर ये एहसान के हम छोड़ के जाते भी नही ं

सर उठाओ तो सही, आँख मिलाओ तो सही
नश्शाए मैं भी नहीं, नींद के माते भी नही ं

क्या कहा फिर तो कहो; हम नहीं सुनते तेरी
नहीं सुनते तो हम ऐसों को सुनाते भी नही ं

ख़ूब परदा है के चिलमन से लगे बैठे हैं
साफ़ छुपते भी नहीं सामने आते भी नही ं

मुझसे लाग़िर तेरी आँखों में खटकते तो रहे
तुझसे नाज़ुक मेरी आँखों में समाते भी नहीं
देखते ही मुझे महफ़िल में ये इरशाद हुआ
कौन बैठा है इसे लोग उठाते भी नही ं

हो चुका तर्के तअल्लुक़ तो जफ़ाएँ क्यूँ हों
जिनको मतलब नहीं रहता वो सताते भी नहीं

ज़ीस्त से तंग हो ऐ दाग़ तो जीते क्यूँ हो
जान प्यारी भी नहीं जान से जाते भी नहीं
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3.
ख़ातिर से या लिहाज़ से मैं मान तो गया
झूठी क़सम से आपका ईमान तो गया

दिल लेके मुफ़्त कहते हैं कुछ काम का नहीं
उलटी शिकायतें हुईं एहसान तो गय ा

डरता हूँ देखकर दिले बेआरज़ू को मैं
सुनसान घर ये क्यूँ न हो मेहमान तो गय ा

अफ़शा ए राज़ ए इश्क़ में गो ज़िल्लतें हुईं
उसको मगर जता तो दिया जान तो गय ा

गो नामाबर से ख़ुश न हुआ पर हज़ार शुक्र
मुझको वो मेरे नाम से पहचान तो गय ा

बज़्म ए अदु में सूरते परवाना दिल मेरा
गो रश्क से जला, तेरे क़ुरबान तो गया

होशो-हवाश ताबो तवाँ दाग़ जा चुके
अब हम भी जाने वाले हैं सामान तो गया।

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