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ग़ज़लें : मीर तक़ी मीर
Webdunia
बुधवार, 21 मई 2008 (15:53 IST)
1.
गुल को महबूब में क़यास किया
फ़र्क़ निकला बहुत जो बास किया
Aziz Ansari
WD
दिल ने हम को मिसाल-ए-आईना
एक आलम से रूशनास किया
कुछ नहीं सूझता हमें उस बिन
शौक़ ने हम को बेहवास किया
सुबहा तक शम्आ सर को धुनती रही
क्या पतिंगे ने इल्तिमास किया
ऐसे वहशी कहाँ हैं ऐ खूबाँ
मीर को तुम अबस उदास किया
2.
क़द्र रखती न थी मता-ए-दिल
सारे आलम को मैं दिखा लाया
दिल के इक क़तरा खूँ नहीं है बेश
एक आलम के सर बला लाया
सब पे जिस बार ने गिरानी की
उस को ये नातवाँ उठा लाया
दिल मुझे उस गली में ले जाकर
और भी खाक में मिला लाया
इब्तिदा ही में मर गए सब यार
इश्क़ की कौन इंतिहा लाया
अब तो जाते हैं मैकदे से मीर
फिर मिलेंगे अगर खुदा लाया
3.
इब्तिदा-ए-इश्क़ है रोता है क्या
आगे-आगे देखिए होता है क्या
क़ाफ़ले में सुबहा के इक शोर है
यानी ग़ाफ़िल हम चले सोता है क्या
सब्ज़ होती ही नहीं ये सरज़मीं
तुख़्म-ए-ख़्वाहिश दिल में तू बोता है क्या
ये निशान-ए-इश्क़ हैं जाते नहीं
दाग़ छाती के अबस धोता है क्या
ग़ैरत-ए-यूसुफ़ है ये वक़्त-ए-अज़ीज़
मीर इस को रायगाँ खोता है क्या
4.
बेकली बेख़ुदी कुछ आज नहीं
एक मुद्दत से वो मिज़ाज नहीं
दर्द अगर ये है तो मुझे बस है
अब दवा की कुछ एहतेयाज नहीं
हम ने अपनी सी की बहुत लेकिन
मरज़-ए-इश्क़ का इलाज नहीं
शहर-ए-ख़ूबाँ को ख़ूब देखा मीर
जिंस-ए-दिल का कहीं रिवाज नहीं
5.
इश्क़ में जी को सब्र-ओ-ताब कहाँ
इससे आँखें लगीं तो ख़्वाब कहाँ
हस्ती अपनी है बीच में परदा
हम न होवें तो फिर हिजाब कहाँ
गिरया-ए-शब से सुर्ख हैं आँखें
मुझ बला नोश को शराब कहाँ
इश्क़ का घर है मीर से आबाद
ऐसे फिर ख़ाँनुमाँ ख़राब कहाँ
6.
नहीं विश्वास जी गँवाने के
हाय रे ज़ौक़ दिल लगाने के
मेरे तग़यीर-ए-हाल पर मत जा
इत्तेफ़ाक़ात हैं ज़माने के
दम-ए-आखिर ही क्या न आना था
और भी वक़्त थे बहाने के
इस कदूरत को हम समझते हैं
ढब हैं ये ख़ाक में मिलाने के
दिल-ओ-दीं, होश-ओ-सब्र, सब ही गए
आगे-आगे तुम्हारे आने के
7.
मसाइब और थे पर दिल का जाना
अजब इक सानेहा सा हो गया है
सरहाने मीर के आहिस्ता बोलो
अभी टुक रोते-रोते सो गया है
8.
उम्र भर हम रहे शराबी से
दिल-ए-पुर्खूं की इक गुलाबी से
खिलना कम-कम कली ने सीखा है
उसकी आँखों की नीम ख़्वाबी से
काम थे इश्क़ में बहुत ऐ मीर
हम ही फ़ारिग़ हुए शताबी से
9.
तुम नहीं फ़ितना साज़ सच साहब
शहर-ए-पुरशोर इस ग़ुलाम से है
कोई तुझ सा भी काश तुझ को मिले
मुद्दुआ हम को इंतिक़ाम से है
शे'र मेरे हैं सब ख़्वास पसन्द
पर मुझे गुफ़्तगू अवाम से है
सह्ल है मीर का समझना क्या
हर सुख़न उसका इक मक़ाम से है
10.
नाला जब गर्मकार होता है
दिल कलेजे के पार होता है
सब मज़े दरकिनार आलम के
यार जब हमकिनार होता है
जब्र है, क़ह्र है, क़यामत है
दिल जो बेइख़तियार होता है
11.
यही इश्क़ ही जी खपा जानता है
कि जानाँ से भी दिल मिला जानता है
मेरा शे'र अच्छा भी दानिस्ता ज़िद से
किसी और ही का कहा जानता है
ज़माने के अक्सर सितम्गार देखे
वही ख़ूब तर्ज़-ए-जफ़ा जानता है
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