ग़ज़लें : सैफ़ुद्दीन सैफ़

Webdunia
बुधवार, 6 अगस्त 2008 (15:31 IST)
1. क़रीब मौत खड़ी है, ज़रा ठहर जाओ
क़ज़ा से आँख लड़ी है, ज़रा ठहर जाओ

थकी थकी सी फ़िज़ाएँ, बुझे बुझे तारे
बड़ी उदास घड़ी है, ज़रा ठहर जाओ

नहीं उम्मीद के हम आज की सहर देखें
ये रात हम पे कड़ी है, ज़रा ठहर जाओ

अभी न जाओ कि तारों का दिल धड़कता है
तमाम रात पड़ी है, ज़रा ठहर जाओ

फिर इसके बाद कभी हम न तुम को रोकेंगे
लबों पे सांस अड़ी है ज़रा, ज़रा ठहर जाओ

दम-ए-फ़िराक़ में जी भर के तुमको देख तो लें
ये फ़ैसले की घड़ी है, ज़रा ठहर जाओ

2. राह आसान हो गई होगी
जान पहचान हो गई होगी

फिर पलट कर निगाह न आई
तुझ पे क़ुरबान हो गई होगी

तेरी ज़ुल्फ़ों को छेड़ती थी सबा
खुद पशेमान हो गई होगी

उनसे भी छीन लोगे याद अपनी
जिनका ईमान होगी होगी

मरने वालों पे 'सैफ़' हैरत क्यों
मौत आसान हो गई होगी

3. दरपरदा जफ़ाओं को अगर जान गए हम
तुम ये ना समझना कि बुरा मान गए हम

अब और ही आलम है जहाँ का दिल-ए-नादाँ
जब होश में आऎं तो मेरी जान गए हम

पलकों पे लरज़ते हुए तारे से ये आँसू
ऎ हुन-ए-पशेमाँ तेरे क़ुरबान गए हम

बदला है मगर भेस ग़म-ए-इश्क़ का तूने
बस ऎ ग़म-ए-दौराँ तुझे पहचान गए हम

हम और तेरे हुस्न-ए-तग़ाफ़ुल से बिगड़ते
जब तूने कहा मान गए, मान गए हम

है सैफ़ बस इतना ही सा अफ़साना-ए-हस्ती
आए थे परेशान, परेशान गए हम

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